कार
से उतरते ही, "बुआ आ गयीं... बुआ आ गयीं।" कहती हुई मनु
मुझसे आ लिपटी।
घर में खुशी का माहौल छा गया था। ऊपर से मौसम भी इतना
सुहावना हो चला था कि हल्की रिमझिम-सी बारिश में मेरा मन
छत पर जाने को हो आया। साथ ही अपने हाथों से बनाई क्यारी
भी देखने को जी ललक आया।
"क्यों भैया, मेरे पेड़-पौधों का क्या हाल है?"
बदले में भाभी हँसकर बोली, "जाइए, मिल आइए अपने पेड़-पौधों
से, कब से आपका इंतजार कर रहे हैं।"
मनु को साथ लेकर मैं एक साँस में सीढ़ियाँ चढ़ती ऊपर पहुँच
गयी।
अहा! एकाएक रजनीगंधा की खुशबू का एक झोंका मन को महका गया।
ओह! आज भी वह अपनी बालकनी में बैठा इधर ही घूर रहा था,
लफंगा कहीं का।
इतने में मनु ने हाथ हिलाकर उससे अभिवादन किया।
मैने हल्के से उसे डाँट लगाई, "क्यों बोलती है तू उससे।
मालूम नहीं, वो आदमी ठीक नहीं।"
"अरे नहीं बुआ, अंकल बहुत ही अच्छे इंसान हैं, वो अक्सर
हमें गार्डनिंग टिप्स भी दिया करते हैं। मगर आप ऐसे क्यों
बोल रही हैं उन्हें?"
मैं गम्भीर स्वर में बोली, "कोई यों ही थोड़ी न कह रही।
शादी के पहले जब भी मैं पेड़-पौधे देखने छत पर आया करती, तब
भी ये जनाब घूर-घूर कर देखा करते थे मेरी ओर। देखो, आज भी
कैसे घूर रहे हैं।"
"ओह नो बुआ, बहुत पहले उन्होंने पापा को बताया था कि वे
खाली समय में हमारी छत की हरियाली निहारा करते हैं। दरअसल
उन्हें पेड़-पौधों से बहुत लगाव है ना और उनके घर में तुलसी
के गमले के अलावा और कुछ ज्यादा रखने की जगह नहीं है।
मालूम, ये जो इतने सारे रजनीगंधा लगे हैं ना, सब उन्हीं
अंकल ने लाकर दिए हैं।"
"...!"
मनु बोले जा रही थी और मैं ठगी-सी खुद की बनाई वर्षों
पुरानी अवधारणा के बोझ तले, खुद से ही क्षमायाचना के लिए
विकल हुई जा रही थी।
१ सितंबर २०२१ |