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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
ुक्ता पाठक की लघुकथा- जब राम और शिव में युद्ध हुआ


बात उन दिनों की है जब श्रीराम का अश्वमेघ यज्ञ चल रहा था। यज्ञ का घोडा जब राजा वीरमणि द्वारा शासित राज्य देवपुर पहुंचा तो राजकुमार रुक्मांगद ने उसे बंदी बना लिया। यह सूचना राजा वीरमणि को मिली तो वे बहुत चिंतित हुए और अपने पुत्र से कहा कि अनजाने में तुमने श्रीराम के यज्ञ का घोडा पकड़ लिया है। श्रीराम हमारे मित्र हैं और उनसे शत्रुता करने का कोई औचित्य नहीं है इसलिए तुम यज्ञ का घोडा वापस लौटा आओ।

लेकिन रुक्मांगद ने युद्ध की चुनौती दे दी थी, युद्ध टाला नहीं जा सकता था। भयानक युद्ध छिड़ गया। राजा वीरमणि ने जब देखा कि उनकी सेना हार के कगार पर है तो उन्होंने भगवान शिव का स्मरण किया। राजा वीरमणि ने भगवान शिव की तपस्या कर उन्हें प्रसन्न किया था और शिव ने उन्हें उनकी और उनके पूरे राज्य की रक्षा का वरदान दिया था।

भक्त की पुकार सुन शिव ने वीरभद्र के नेतृत्व में नंदी, भृंगी सहित सारे गणों को युद्ध क्षेत्र में भेज दिया। महाकाल के सारे अनुचर उनकी जयजयकार करते हुए अयोध्या की सेना पर टूट पड़े सारे लोगों को लगा कि जैसे प्रलय आ गया हो। भरतपुत्र पुष्कल मारे गए शत्रुघ्न और हनुमान को बंदी बना लिया गया।

अब राम की सेना के पास राम के स्मरण के सिवा कोई चारा न था। उन्होंने राम को याद किया और भक्तों की पुकार सुन राम प्रकट हो गए। श्रीराम के आने पर जैसे पूरी सेना में प्राण का संचार हो गया। श्रीराम ने शत्रुघ्न को मुक्त कराया और उधर लक्ष्मण ने हनुमान को। लेकिन जब उन्हें यह पता चला कि भरत पुत्र पुष्कल मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं तो उन्हें बड़ा दुःख हुआ। भरत तो शोक में मूर्छित भी हो गए।

श्रीराम ने विचलित होकर भयंकर युद्ध किया और शिवगणों पर विश्वामित्र द्वारा प्रदान किये गए दिव्यास्त्रों से सारी सेना को विदीर्ण कर दिया। अब सारे गणों ने एक स्वर में शिव का आवाहन करना शुरू कर दिया। जब शिव ने देखा कि उनकी सेना बड़े कष्ट में है तो वे स्वयं युद्ध क्षेत्र में प्रकट हो गए।

श्रीराम ने साक्षात शिव को रणक्षेत्र में देखा तो शस्त्र का त्यागकर दंडवत प्रणाम किया एवं उनकी स्तुति करते हुए कहा कि हे सारे बृह्मांड के स्वामी! आपके ही के प्रताप से मैंने महापराक्रमी रावण का वध किया, आप स्वयं ज्योतिर्लिंग में रामेश्वरम में पधारे। हमारा जो भी बल है वो भी आपके आशीर्वाद के फलस्वरूप ही है। ये जो अश्वमेघ यज्ञ मैंने किया है वो भी आपकी इच्छा से ही हो रहा है इसलिए हमपर कृपा करें और इस युद्ध का अंत करें।

ये सुनकर भगवान शिव बोले कि हे राम, आप स्वयं विष्णु के दूसरे रूप है मेरी आपसे युद्ध करने की कोई इच्छा नहीं है फिर भी चूँकि मैंने अपने भक्त वीरमणि को उसकी रक्षा का वरदान दिया है इसलिए मैं इस युद्ध से पीछे नहीं हट सकता अतः संकोच छोड़कर आप युद्ध करें। श्रीराम ने इसे महाकाल की आज्ञा मानकर युद्ध करना शुरू किया। दोनों में महान युद्ध छिड़ गया। इस अद्भुत दृश्य को देखने के लिये देवता गण आकाश में स्थित हो गए।

श्रीराम ने अपने सारे दिव्यास्त्रों का प्रयोग महाकाल पर कर दिया पर उन्हें संतुष्ट नहीं कर सके। अंत में उन्होंने पाशुपतास्त्र का संधान किया और भगवान शिव से बोले की हे प्रभु, आपने ही मुझे ये वरदान दिया है कि आपके द्वारा प्रदत्त इस अस्त्र से त्रिलोक में कोई पराजित हुए बिना नहीं रह सकता, इसलिए हे शिव आपकी ही आज्ञा और इच्छा से मैं इसका प्रयोग आपपर ही करता हूँ। ये कहते हुए श्रीराम ने वो महान दिव्यास्त्र भगवान शिव पर चला दिया।

वो अस्त्र सीधा शिव के हृदयस्थल में समा गया और भगवान शिव इससे संतुष्ट हो गए। उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक श्रीराम से कहा कि आपने युद्ध में मुझे संतुष्ट किया है इसलिए जो इच्छा हो वर माँग लें। इसपर श्रीराम ने कहा कि हे भगवान ! यहाँ इस युद्ध क्षेत्र में भ्राता भरत के पुत्र पुष्कल के साथ असंख्य योद्धा वीरगति को प्राप्त हो गए है, उन्हें कृपया जीवन दान दीजिये।

शिव ने मुस्कुराते हुए तथास्तु कहा और पुष्कल समेत दोनों ओर के सारे योद्धाओं को जीवित कर दिया। इसके बाद उनकी आज्ञा से राजा वीरमणि ने यज्ञ का घोडा श्रीराम को लौटा दिया और अपना राज्य रुक्मांगद को सौंप कर वे भी शत्रुघ्न के साथ आगे चल दिये।

दादी कहती थीं कि जैसी उनकी मित्रता हुई वैसी सबकी हो, कोई युद्ध न हो और अंत भला तो सब भला। बोलो श्री रामचंद्र की जय! शिवशंकर महादेव की जय!

१ अप्रैल २०१९

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