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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
कल्पना रामानी की लघुकथा- तकलीफ


सुबह-सुबह लान में टहलते हुए दिवाकर रॉय के मन में द्वंद्व छिड़ा हुआ था। पत्नी के निधन के बाद वो सारा व्यापार बेटे को सौंपकर अपना समय किसी तरह घर के छोटे-छोटे कार्यों व पोते-पोती के साथ खेलने बतियाने में काट रहे थे, लेकिन जब से डॉक्टर ने उसे एड्स से संक्रमित होना बताया है, बेटे-बहू का व्यवहार उसके प्रति बदल गया है। डॉक्टर के यह कहने के बावजूद कि यह बीमारी लाइलाज ज़रूर है लेकिन छूत की नहीं, आप लोगों को अब इनका विशेष ध्यान रखना चाहिए..., वे उससे कन्नी काटने लगे हैं। बच्चों को उसके निकट तक नहीं फटकने दिया जाता। भोजन भी नौकर के हाथ कमरे में भिजवाया जाने लगा है। उसे अब अपनी मेहनत के बल पर खड़ा किया गया अपना साम्राज्य –बंगला, गाड़ी, नौकर-चाकर, बैंक बैलेंस आदि सब व्यर्थ लगने लगा है।

टहलते- टहलते वो बेटे-बहू की मोटे परदे लगी हुई लान में खुलने वाली खिड़की के निकट से गुज़रे तो उनकी अस्फुट बातचीत में ‘पिताजी’ शब्द सुनकर वहीँ आड़ में खड़े होकर उनकी बातचीत सुनने लगे। बहू कह रही थी- “देखो, पिताजी की बीमारी चाहे छूत की न भी हो लेकिन मैं परिवार के स्वास्थ्य के मामले में कोई रिस्क नहीं लेना चाहती, तुम्हें उनको अच्छे से वृद्धाश्रम में भर्ती करवा देना चाहिए, रुपए-पैसे की तो कोई कमी है नहीं और हम भी उनसे मिलने जाते रहेंगे।”
“सही कह रही हो, मैं आज ही उनसे बात करूँगा।”
दिवाकर के कान इसके आगे कुछ सुन नहीं सके, उनके घूमते हुए कदम शिथिल पड़ने लगे और वे कमरे में आकर निढाल होकर बिस्तर पर पड़ गए।

रात को भोजन के बाद बेटे ने जब नीची निगाहों से उनके कमरे में प्रवेश किया, वे एक दृढ़ निश्चय के साथ स्वयं को नई ज़िन्दगी के लिए तैयार कर चुके थे। बेटे को देखकर चौंकने का अभिनय करते हुए बोले- “आओ विमल, कहो आज इधर कैसे चले आए, कुछ परेशान से दिख रहे हो, क्या बात है”?
“जी, मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूँ, सर झुकाए हुए ही विमल ने बुझे हुए से स्वर में कहा”।
“मुझे भी तुमसे कुछ कहना है बेटा, मैं तुम्हें बुलाने ही वाला था, अच्छा हुआ तुम स्वयं आ गए, बेफिक्र होकर अपनी बात कहो...”
“पहले आप अपनी बात कहिये पिताजी...” समीप ही पड़ी हुई कुर्सी पर बैठते हुए विमल बोला।
“बात यह है बेटे, कि डॉक्टर ने जब मेरी बीमारी लाइलाज बताई है तो मैं चाहता हूँ कि मैं अपना शेष जीवनकाल अपने जैसे असहाय, बेसहारा और अक्षम बुजुर्गों के साथ व्यतीत करूँ।” कहते हुए दिवाकर का गला रुँधने लगा।

सुनते ही विमल मन ही मन ख़ुशी से फूला न समाया, पिताजी ने स्वयं आगे रहकर उसे अपराध-बोध से मुक्त कर दिया था। लेकिन दिखावे के लिए उसने पिता से कहा- “यह आप क्या कह रहे हैं पिताजी, आपको यहाँ रहने में क्या तकलीफ है?

“नहीं बेटे, मुझे यहाँ रहने में कोई तकलीफ नहीं लेकिन यह कहने में तकलीफ हो रही है कि तुम अब अपने रहने की व्यवस्था अन्यत्र कर लो, मैंने इस बँगले को वृद्धाश्रम का रूप देने का निर्णय लिया है, ताकि अपनी यादों और जड़ों से जुड़ा रहकर बची हुई ज़िन्दगी जी सकूँ...और हाँ, तुम भी कुछ कहना चाहते थे न!...”

१ सितंबर २०१८

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