यह
किस्सा है उन दिनों का, जब दलित लेखन में नया नया उबाल आया
था। नये नये फायरब्रान्ड दलित लेखक तैयार हो रहे थे।
तथाकथित उच्च जातियाँ उनके निशाने पर थीं। हमारे कालेज के
प्रिंसिपल लोढ़ा राम जी ने उन्हीं में से एक बड़े लेखक को,
जो मन वचन कर्म से कुछ चित्र विचित्र थे और अग्रगण्य
फायरब्रान्ड थे, बुला कर उनका अभिभाषण कराने का निर्णय
लिया। खूसट सीतापुरी और मनहूस सुलताना आयोजन समिति के
सदस्य थे। हम विद्यार्थी परिषद वाले क्षुब्ध थे पर सरकार
उनकी थी, तो हम खून का घूँट पीने को मजबूर थे। हमारे
मंत्री ने कान में कहा
- दादा! क्या धर्म का अनादर
देखते रहेंगे? आपसे यह उम्मीद नहीं थी।
आँखों-आँखों में बात हुई। लेखक आग उगलती तकरीर देकर जलपान
स्थल की ओर चले। एक ओर मनहूस सुल्ताना और दूसरी ओर खूसट
सीतापुरी। सामने से स्वागतार्थ नव निर्वाचित नगर अध्यक्ष आ
रही थीं। कम पढ़ी लिखी होने से साहित्य का स ही जानती थीं।
विलंब होने से तेज तेज आ रही थीं। पीछे से धक्का आया।
साहित्य राजनीति से टकराया। राजनीति ने लोफर समझ कर सैंडल
निकाली। फिर तो जब तक समझें और मामला सँभालें, लेखक महाशय
अच्छी तरह कूटे जा चुके थे। प्रिंसिपल साहब ने झाड़-पोंछ कर
उन्हें उठाया। लेखक ने कराहते हुए पिछवाड़े की ओर इशारा
किया, जहाँ संभवतः पेंसिल हील अत्याचार कर गयी थी।
-यह सवर्ण की साजिश है। खूसट जी
मिनमिनाए।
-अध्यक्ष तो आरक्षित है। मनहूस
जी उवाचीं।
-सैंडल तो किसी सवर्ण की कंपनी का होगा।
अब किसका दम जो प्रिंसिपल की बात काटे।
१ सितंबर २०१८ |