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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
सीमा मधुरिमा
की लघुकथा- होली के रंग


हर बार की तरह होली आ ही धमकी थी। अब बस इन्तजार था उस पल का जब अजय अपनी ट्रेनिग पूरी कर घर वापस आ जाय और मेरा इन्तजार खत्म हो। आज ही के दिन तो उसको आना था! मन भी कहीं न लग रहा था। बार बार आँखें दीवार पर टंगी घड़ी की तरफ उठ ही जा रही थीं। पुरा एक वर्ष हो गया था उसे गये हुए।

हाँ, मैं और अजय एक ही कोचिंग में तैयारी कर रहे थे सिविल सेवा की परीक्षा की... अजय पढ़ने में बहुत अच्छा था और मुझे पूरा विश्वास था कि वह कोई भी परीक्षा बड़ी आसानी से पास कर लेगा।

वही हुआ, पहली ही बार में सिविल सेवा में अव्वल आने पर उसने बड़ी ही प्रसन्नता से मेरे सामने विवाह का प्रस्ताव रखा और मैंने भी उतनी ही सरलता से उसे हामी दे दी थी। मेरे हामी देते ही जैसे उसे पर लग गये हों और उसने हमारे भविष्य के सपने देखने शुरू कर दिए। पर उन सपनों में मैं हमेशा एक गृहिणी के रूप में ही दिखी उसे और ऐसे ही खत्म हो गयी मेरी भविष्य की सम्भावनाएँ!

हालाँकि मुझे कभी कोई शिकायत भी न रही, क्योंकि मुझे अजय के प्रेम पर पूरा विश्वास था। क्या फर्क पड़ता है वो ऑफिसर बने या मैं हम दोनों ही तो एक दुसरे के पूरक हैं।

यही सोचते सोचते कब दोपहर बीत गयी गीता जान ही नहीं पायी और अजय के आने का समय भी समाप्त होता जा रहा था।
अब उसके मन में तरह तरह की आशंकाएँ घर करने लगीं।
आखिर अजय क्यों नहीं आया! अभी तीन दिन पहले तो सब ठीक था। बोल रहा था घर आते ही विवाह का मुहूर्त निकलवाना उसके सबसे पहले कामों में से होगा फिर ऐसा क्या हुआ होगा?

गीता का मन रुंधता जा रहा था पल प्रतिपल! अचानक कमरे के अंदर से फोन के घनघनाने की आवाज आई, गीता उसकी और तेजी से लपकी। उधर से अजय की माँ की आवाज थी, "गीता बेटा दो दिन बाद अजय का विवाह तय हुआ है अपने मंत्री जी की बेटी से, देखो, तुम तो उसकी सबसे अभिन्न मित्र हो जरूर आना, वह बहुत खुश होगा।" गीता सन्न रह गयी अचानक उसकी समझ में नहीं आ रहा था वह उनसे क्या कहे और रुंधे गले से बोली, "हाँ माँ जी जरूर..." और यह कहकर वहीं अचेत हो गयी।

होली ऐसा भी रंग दिखायेगी कभी गीता ने सोचा न था।
बाहर से होली की खुशियाँ मनाये जाने की आवाजें गीता को नश्तर की तरह चुभ रही थीं।

१ सितंबर २०१८

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