गर्मी
की एक अलसाई दोपहर ...
लंच के बाद कुछ देर की नियमित पंद्रह मिनट की झपकी लेने
बिस्तर की गोद मेँ जाने को तत्पर ही हुई थी कि कॉल बेल की
ट्रिन ट्रिन ट्रिन ने पैर जमीन पर ही रोक दिये।
घर मेँ अकेली थी, भरी दोपहरिया कौन आया देखने चली...मेन
गेट के बाहर लोहे के बड़े गेट के पार मेरी शक्ल देखते ही एक
मुस्टंडे से, जवान साधु वेश धारी ने हाँक लगाई- "ओ बड़
भागी आ बाबा जी बड़ी दूर से पधारे हैँ, कुछ जलपान, और
दक्षिणा ले आ..."
इतना गुस्सा आया कि क्या बताऊँ,
हट्टा, कट्टा मुसटंडा। मैंने कहा बाबा आगे बढ़ो घर पे कोई
नहीं है।
''अरे ओ महलों वाली, अरी ओ
राजरानी, अरी ओ पूतौ वाली...चल एक पचास रूपए ही दे
जा...बाबाजी कुछ पेट मेँ डाल लेंगे।''
मैं उसे बोलता, बकता, झकता छोड़ दरवाजा बँद कर अंदर
आ गई। मुझे ऐसे ढोंगी साधुओं से बड़ा डर लगता है, एकदम रावण
जैसे लगते हैँ।
अब आती हूँ कथा के अंतिम पड़ाव पर...
अंदर आते ही अचानक बड़ी जोर की गाने की आवाज़ गूँजी ...
एक आँख मारूँ तो पर्दा हट जाये, दूजी आँख मारूँ कलेजा कट
जाये, दोनो आँखें मारूँ तो छोरी पट जाये, छोरी पट जाये...
खिड़की से झाँका तो हँसते हँसते बुरा हाल हो गया ...बाबाजी
सूनी सड़क पर बिल्कुल जितेंद्र स्टाइल मेँ उछल कूद मचा रहे
थे। एक हाथ मेँ अपने मोबाइल फोन को थामे हुए थे और दूसरे
मेँ चिलम का कश...आँखों पर चढ़ा ग़ॉगल्ज
जय बोलो गुरु घंटाल महराज की ...
१ सितंबर २०१८ |