बुखार सर तक चढ़ जाने के कारण,
या कोई पूर्वाभास था कि चम्पा बड़बड़ा रही थी- अरे गुडुइया
देख तो बहरै कौनो गाड़ी रुकी, जान परत है हमार मुन्ना
आइगै। हमरी बीमारी का संदेसा पायके। हमार जिउ कहत रहा फोन
मिलतै दौड़त चला अइहै हमार भैया, जा दौड़ के पानी लै आउ...
गुड़िया आँधी की गति से बाहर गई और चीखती हुई सी लौटी- हाँ
अम्मा गाड़ी तो रुकी है लेकिन दीदी आई हैं भइया कहीं दिखाई
नहीं पड़ रहे। ज्वर के ताप में भी बुआ की आँखें विस्फारित
हो उठीं- बिटिया ऊ कैसे आइ गई एतनी दूरी से, कहीं कलेक्टर
है बिटिया, लाल बत्ती गाड़ी से आइ होइहै। मुला सन्देसवा तौ
हम मुन्ना के लगे भेजे रहिन।
ढेर सारे फल मिठाइयों और कपड़ों से लदी अक्षरा ने कमरे में
प्रवेश किया और सामान कुर्सी पर डाल बुआ से लिपट गई- अरे
बुआ तुम भी बीमार पड़ गयीं? भैया को बुलाने का नाटक किया
है न? तुम कैसे बीमार पड़ सकती हो, सुबह से रात तक चकर
घिन्नी की तरह चलने वाली हमारी चम्पा बुआ। भैया मेरे घर पर
ही था जब तु्म्हारी बीमारी का संदेशा मिला कुछ काम से बाहर
गया है। चलो तुम्हें ही ले चल कर मिला लाऊँ तुम्हारे
मुन्ना से।
चंपा के आसपास जो भी स्थिर था भीग गया। आँसुओं की धार गले
तक उतर आई... बीस बरस की कोमल वय से वैधव्य का भार झेलती
बुआ का पूरा जीवन मायके में बीता। भाई भतीजों की चाकरी
करते। बेटियों के लिये चम्पा के खयालात तंग थे। हर बात पर
अक्षरा को टोकती- रोटी बनाना सीख, पढ़-लिखकर कलेक्टर तो
बनेगी नहीं।
अक्षरा बुआ के भोलेपन पर निहाल रहती। उन्हें समझाती- बुआ
लड़का लडकी मन का भ्रम है। हम वो सब काम कर सकते हैं जो
भैया कर सकता है। बुआ रूठ जाती- झूठै जबान चलावत हौ
बिटिया, तोहें तो ससुरे जाय का अहै, अबहीं हमें जरूरत पड़ी
तो भैया काम अइहैं।
हिचकियों से काँपती बुआ की कमजोर काया को बाहों में भरकर
अक्षरा स्वयं को संभालती है। बुखार से बुआ का पूरा शरीर तप
रहा था, हिम्मत रखो बुआ, समय मिलते ही भैया आएगा तुम्हें
देखने।
बिटिया.... बुआ के आर्तनाद से घर गूँज उठा। हमें अउर
शरमिंदा न कर बिटिया, तू पहले से कहत रही ठीकै कहत रही...
लड़का लड़की मन का भरम है।
१ सितंबर २०१८ |