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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
शरद आलोक
की लघुकथा- अन्तिम समिधा


शमशान में मनोहर अपने पिता की चिता से निकलती हुई लपटें देख रहा था। मनोहर दो थैलों में अपने पिता की पुस्तकों और सम्मान-पत्रों को अपने साथ लाया है। पुस्तकें उसके पिता की लिखी और अनूदित हैं और देश विदेश से सम्मानपत्र उसके पिता को लेखन और अनुवाद के लिए मिले हुए हैं जो इसी थैले में रखे हैं।

अपने पिता की बीमारी के इलाज के लिए उसने सबसे गुहार लगाई थी पर किसी अधिकारी या नेता ने न सुनी। उसके पिता ने लिखना छोड़ दिया था और चाय की दूकान खोल ली थी। तब भी आये दिन चाय पीने आते लोग कहते कि, 'लेखक होकर चाय बेचते हो? शर्म नहीं आती।’ उसके पिता कुछ न कहते और गरीब बेसहारा दूकानदार का धर्म निभाते हुए उलाहनों और शिकायतों का मौन-घूँट पी जाते। वे जानते थे कि प्रश्नकर्ता स्वयं जवाब जानते हैं। अपने ग्राहकों से वह बहस नहीं करना चाहते थे, क्योंकि बहस से डर था कि उनकी दुकानदारी जाती रहेगी। इस स्थिति में वे अपने बेटे को महँगी शिक्षा या सिफारिश वाली नौकरी नहीं दिला सके और वे सब अति सामान्य जीवन जीते रहे।

सिसकियों के बीच मनोहर की पत्नी दुर्गा लोगों के विरोध के बावजूद उनके पास खड़ी है। कहते हैं कि उसके खानदान में कोई भी औरत शमशान कभी नहीं आयी थी। पर अपने श्वसुर को अंतिम विदाई देने वह अपने पति के साथ आयी है। वह पति के कंधे पर हाथ रखकर सांत्वना देती है। पर मनोहर की आँखें कभी चिता पर जल रहे पिता के शव की तरफ लगी हैं और कभी पिता की जमापूँजी की तरफ, जो वह दो थैलों में लिए खड़ा है। आँखों से बहते आँसुओं के साथ-साथ बहती नाक के बीच हिचकियाँ लेता और आसपास अंतिम विदाई देने वाले मुट्ठी भर लोगों को निहारता जैसे वह उनके प्रति आभार व्यक्त कर रहा हो।

उसने पिता की मौत की खबर न तो किसी लेखक को दी और न ही उन शिक्षा संस्थानों को जहाँ कभी उसके पिता की पुस्तकें पढ़ाई जाती थीं। कुछ लेखक और अध्यापक मित्र उसके पिता से नाराज थे, कि उसने चाय की दूकान क्यों खोली है वह भी एक महाविद्यालय के सामने फुटपाथ पर। मनोहर को उसके पिता की पुरानी बातें रह-रहकर याद आ रही हैं। अब तो जब पिता चले गए तो बहुत कुछ चला गया। उसने एक थैले को जमीन पर रखा और दूसरे थैले से पुस्तकें और सम्मानपत्र चिता के हवाले करने लगा जैसे वह किसी हवन में मूल्यवान हवनसामग्री डाल रहा हो। दुर्गा रोकने की इच्छा के बावजूद उसे रोक न सकी। अनेक सम्मानपत्र और पुस्तकें चिता में लपटें बनकर उसकी आँखों के सामने अन्तिम समिधा की तरह जल गए।

घर आकर दुर्गा और मनोहर ने अपना थोड़ा-सा सामान एक थैले में भरा, और घर को बिना ताला लगाये हमेशा के लिये छोड़कर चल दिये। दूसरे दिन सुबह उसके घर पर पत्रकारों की कैमरों के साथ भीड़ जुटी, शिक्षा संस्थानों से अध्यापक और नेतागण भी जमा हुये। पड़ोसी मनोहर, उसके पिता और पत्नी दुर्गा की प्रशंसा में कसीदे पढ़ रहे थे पर कथा के सारे असली पात्र तो विदा हो गये थे।

१ सितंबर २०१८

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