"जरा
जल्दी से पिचकारियाँ दिखा दो भैया,” वह दुकानदार से बोली।
“इधर आ जाइए मैडम, इस तरफ लगी हुई हैं।” वह उलट पलट कर
पिचकारियों को देखने लगी। ‘कैसी सुन्दर पिचकारियाँ आने लगी
हैं आजकल’ उसने मन में सोचा। उन रंग बिरंगी आकृतियों ने
मानो उसकी नज़रें ही बाँध ली थी, कहीं छोटा भीम तो कहीं
डोरेमोन।
वह देख ही रही थी तभी पीछे से आवाज आई, “एक पिचकारी मुझे
भी दिला दो आंटी।”
उसने पलट कर देखा। एक भीख माँगने वाला बच्चा था, उम्र यही
कोई सात आठ साल।
उसकी हँसी छूट गई। बोली, “अरे! इसे देखो। कुछ खाने पीने की
चीज माँगने की बजाए पिचकारी माँग रहा है।”
उसकी हँसी बच्चे के मन में चुभ गई।
उसने तीखी नज़रों से उसे देखा, जैसे पूछ रहा हो-
’क्यों आंटी! खुशियाँ क्या सिर्फ आप बड़े लोग मना
सकते हैं? क्या हम गरीबों के लिए पेट भरने से आगे कुछ
सोचना गुनाह है?’
उसे तुरंत अपनी गलती का एहसास हुआ पर तब तक वह बच्चा उसे
घूर कर न जाने कहाँ गायब हो गया था।
तीन साल बीत चुके हैं इस घटना को। तब से वह हर होली पर
गरीब बच्चों को मिठाई, कपड़े और पिचकारियाँ बाँटती है। यह
सोच कर कि शायद कहीं वह बच्चा फिर मिल जाये और वह उसके
खामोश सवाल का जवाब दे सके कि, "नहीं बेटा तुझे भी खुशियाँ
मनाने का उतना ही हक है, जितना कि मेरे बच्चों को..."
१५ मार्च २०१६ |