वे
लोक निर्माण विभाग में अधीक्षण यंत्री के पद पर पदस्थ हैं।
कोई भी कार्य स्वीकृत करने के पूर्व अपना कमीशन बड़े बाबू
के माध्यम से पहले ही वसूल कर लेते हैं। दो लड़के हैं। पढ़ने
के लिये विदेश गये थे, और वहीं विदेशी कन्याओं से विवाह कर
वहाँ के स्थाई निवासी होकर रह गये। यहाँ दोनों पति-पत्नी
और साथ में एक बीमार माँ रहती हैं। घर का सारा खर्च
मुख्यालय सहायक यंत्री के जिम्मे रहता है। कहीं भी जाना
हो, शासकीय वाहन का उपयोग करते हैं।
माँ अधिक बीमार हो गईं। पंडित ने गाय दान कराने का परामर्श
दिया। उन्होंने मुख्यालय स्थित सहायक यंत्री को गाय की
तत्काल व्यवस्था करने के निर्देश दिये। गाँव से एक दुधारू
गाय की व्यवस्था की गई और माँ के हाथों ब्राह्मण को गाय
दान कराई गई। कहने की आवश्यकता नहीं है कि गाय खरीदने से
लेकर दान-दक्षिणा की व्यवस्था उस सहायक यंत्री द्वारा ही
की गई थी।
कुछ दिन बाद माँ का देहांत हो गया। मुख्यालय सहायक यंत्री
ने तत्काल दाह-संस्कार की व्यवस्था की। जितने रिश्तेदार
आये उन्हें सरकारी रेस्टहाउस में रुकने की व्यवस्था कराई
गई। मुख्यालय कार्यपालन यंत्री ने मण्डल के नियंत्रण में
आने वाले चारों कार्यपालन यंत्रियों की बैठक बुलाई।
अधीक्षण यंत्री महोदय की माँ की तेरहवीं का मीनू तैयार
किया गया। ब्राह्मणों को दिये जाने वाले दान के सामान की
सूची तैयार की गई। एक कार्यपालन यंत्री ने ब्राह्मण की
दान-दक्षिणा का भार सँभाला, दो ने तेरहवीं के खाने-पीने का
दायित्व अपने ऊपर लिया। एक ने मेहमानों के प्रबंध की
व्यवस्था सँभाली। निश्चित दिन माँ की तेहरवीं का उत्सव
समारोह पूर्वक सम्पन्न हुआ।
सभी रिश्तेदार उनको दिल से दुआयें दे रहे थे, कह रहे थे
"बेटा हो तो ऐसा, देखो किस प्रकार बीमार माँ की देखभाल की।
और उनका निधन हो जाने पर पूरे विधि-विधान से माँ की
तेरहवीं भी। सभी मेहमानों के रहने-खाने की व्यवस्था भी ऐसी
की, कोई शादी-विवाह में भी क्या करेगा। भगवान ऐसा बेटा
सबको दे।"
२० अप्रैल २०१५ |