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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
अश्विनी कुमार विष्णु की लघुकथा- टपरी वाले का बेटा


उनका अलग ही समूह था। टपरी से थोड़ा हटकर बैठना, रोज़ का क्रम। कभी राजनीति, कभी स्वास्थ्य, कभी फ़िज़ूल की बातें करते हुए। घर से लाए बोतलबंद पानी के घूँट गटकते हुए बीच-बीच में!

डाकघर वाली सड़क पर की यह टपरी मशहूर है, सुबह-सुबह के गर्म नाश्ते के लिए। ये सभी ऊँचे तबके के लोग। कोई स्विमिंग से आकर यहाँ विरम जाता, कोई टेनिस-बैडमिंटन खेलकर यहाँ ठहर जाता। नानूभाई को सिर्फ़ राजनीति का शौक़। जब भी कभी टहलने निकलते यहाँ भी ठमक जाते। इन सबके ख़ास प्रिय। किसी न किसी बहाने उनकी तारीफ़ करना सभी का शगल!

नवीं कक्षा में पढ़ रहा नन्हू, टपरी वाले का बेटा, रोज़ उनकी बातें सुनता और सोचा करता अपने बारे में कि कभी न कभी वह भी ऐसा बन सकेगा। ख़ूब भरोसा दिलाता अपने आप को!
कई हफ़्तों से सोच रहा था, आज कह ही दिया बापू से--
"बापू, बूझ कर बताओ तो इनसे, नानू साहब से, कैसी पढ़ाई पढ़नी पड़ेगी डाक्टर बनने के लिए?"
पहले तो घुड़कना चाहा बापू ने, फिर सोचा कि पूछने में हर्ज़ ही क्या है। गया उनके पास-
"एक बात पूछनी थी नानूभाई जी, ये डाक्टर बनने के लिए कौन सी पढ़ाई पढ़नी पड़ती है? मेरा नन्हू रोज़ पूछता है मुझसे, डाक्टर बनना चाहता है।"

इससे पहले नानूभाई कुछ जवाब दें, अपनी चाय बीच में ही रोककर, टिहुँक पड़ा राठी कांट्रेक्टर-
"नानूभाई, मानना पड़ेगा आपको, सच में बहुत कामयाब राज है आपका। देखो तो! टपरी वाले की भी हालत इतनी सुधर चली है कि छोकरे को डाक्टर बनाने का सपना देख रहा है"
नन्हू ने सुना और इशारे से बुला लिया बापू को वहाँ से। खीझ और झुँझलाहट के भाव स्पष्ट थे उसके चेहरे पर!

९ फरवरी २०१५

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