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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
राजेन्द्र परदेसी की लघुकथा- जंगलीपन


बहुत दिनों बाद गाँव जाना हुआ था। वापसी में गाँव के पास स्थित रेलवे स्टेशन पर बचपन के एक मित्र से भेंट हो गयी। पुरानी यादें ताज़ा हो उठीं, गले लगकर कुछ पलों के लिए वह एक दूसरे में खो गए फिर व्यक्तिगत चर्चा होने लगी -
"बहुत दिनों बाद दिखाई पड़े कहाँ रह रहे हो?"
"दिल्ली में एक कंपनी में काम करता हूँ, छुट्टी मिलती नहीं कहीं आना जाना नहीं हो पाता।"
"फिर कैसे आये?"
"बापू को ले जाने के लिए, उन्हें डॉक्टर को दिखाना है।"
"उन्हें क्या हो गया है?"
"पैरों में सूजन, चलने फिरने में परेशानी।"
"अब कैसे हैं?"
"काफी आराम है। पहले चलते समय पैर लड़खड़ाते थे अब ठीक चल लेते हैं इसलिए सोचता हूँ एक बार फिर डॉक्टर को दिखा दूँ।"
"बापू कहाँ हैं?"
"वहाँ सामने किसी से बतिया रहे हैं।"
"उन्हें अपने पास क्यों नहीं रखते, खेती तो अब उनसे होती नहीं, वहीं तुम्हारे साथ आराम से रहे।"
"कई बार ले गया लेकिन यह रहते कहाँ, दो चार दिन बीते नहीं कि गाँव लौटने की जिद्द करने लगते हैं।"
"इन्हें तुम्हारे पास अच्छा नहीं लगता होगा।"
"इनके लिए रंगीन टी वी लगवा दिया हूँ, कमरे में ए सी भी लगा है फिर भी मन नहीं लगता उनका वहाँ।"
"फिर क्या बात है?"
"कहते हैं, दम घुटता है अपनी जमीन से जुड़ कर मन खेत घूमने और चौपाल पर बैठ बतियाने को करता है। कुएँ से चार बाल्टी पानी खींचने का अलग ही आनंद है, सुख सुविधा छोड़ यदि उन्हें यही जंगलीपन पसंद है तो मैं क्या करूँ?"
शहरी मानसिकता की आवाज़ सुन मित्र आवाक रह गया।

१३ जुलाई २०१५

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