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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
आभा सक्सेना की लघुकथा- बेला महका


सुधीर रात का खाना खा कर अपने बिस्तर पर लेटे तो उन्होंने महसूस किया कि आज उनका शयन कक्ष जरूरत से ज्यादा महक रहा है, "दीपा! देखो बाहर से कितनी अच्छी खुशबू आ रही है लगता है बेला महक रहा है।" दीपा का जब कोई जबाब नहीं आया तो सुधीर ने अपना वाक्य फिर से दोहराया, फिर भी दीपा का कोई उत्तर ना पा कर सुधीर को शंका हुई कोई न कोई बात जरूर है अभी थोड़ी देर पहले तक तो वह एक दम ठीक थी। जब सुधीर ने दीपा का मुँह अपनी ओर घुमाया तो देखा दीपा आँसुओं रो रही थी। "क्या हुआ तुम रो क्यों रही हो अभी थोड़ी देर पहले तक तो तुम अच्छी भली थी फिर अचानक क्या हुआ?''
"ये सब कुछ अचानक नहीं हुआ आज सुबह जब से सो कर उठी हूँ तब से ही सोच रही हूँ कि तुम कितना बदल गये हो दीपा ने रोते हुये कहा। आज सुबह से सारे काम तुम्हारे ही पसन्द के कर रही हूँ पर एक तुम हो कि...और लेटे हुये ही दीपा ने अपना मुँह दूसरी ओर घुमा लिया और सिसकियाँ लेने लगी।
"अच्छा बताओ तो सही आखिर हुआ क्या है"?
"ये मुझसे पूछ रहे हो कि हुआ क्या है? जब आज पूरा दिन निकल गया है"।
सुधीर ने दीपा का मुँह अपनी ओर फिर से घुमा लिया।
"हाँ लगा तो था कि आज कुछ खास है फिर सोचा ना तो आज होली है ना दिवाली और ना ही कोई और त्यौहार जिस के लिये तुम इतने खास किस्म के पकवान बनाती हो। आज डिनर में भी मेरी पसन्द की पूरी, कचैरी, मटर, पनीर सभी कुछ तो बनाया था। सुबह जब तुमने इडली, चटनी परोसी थी तो वह इतनी स्वादिष्ट थी कि लगा तुम्हारे हाथ चूम लूँ मैं चूम भी लेता अगर नाश्ता करने बंटी न आ गया होता। फिर टिफिन में मटर पुलाव इतना टेस्टी था कि मैं तुम्हें फोन करने वाला ही था तभी बॉस का फोन आ गया। अब तब, जब मैं तुम्हारे बनाये हुये डिनर की तारीफ करता तो देखा कि तुम तो रो ही रही हो"।
"हाँ तुम्हें क्यों याद रहता कि आज मेरा जन्म दिन है आज सुबह से सबके फोन आये एक तुमने ही विश नहीं किया। तुम्हारे पिछले जन्म दिन पर मैंने यह मोगरे का पेड़ तुम्हारे ही हाथों लगवाया था और देखो आज यह कितना महक रहा है इसकी महक सूँघ कर भी तुम्हें याद नहीं आया।" दीपा अब भी रो रही थी
"ओह! तो यह बात है
सौरी यार! गलती हो गयी अब कल का पूरा दिन तुम्हारे साथ...
अच्छा यह तो बताओ यह बेला आज कुछ जरूरत से ज्यादा नहीं महक रहा है"?
‘‘यह बेला नहीं मोगरा है मैं नर्सरी से मोंगरा कह कर ही यह पेड़ लायी थी।’’
‘‘अरे यार! क्या फर्क पड़ता है मोगरा कहो या फिर बेला दानो एक ही होते हैं।’’

सुधीर ने दीपा को अपने और करीब यह कह कर खींच लिया ‘‘देखा तुम्हारा मोंगरा तो महक रहा है पर मैं अपने इस प्यारे से बेले को क्या करूं जो आज मेरी छोटी सी भूल से मुरझा गया है मैं इसे मुरझाने नहीं दूंगा’’ और दीपा के माथे पर एक प्यार भरा चुंबन अंकित कर ही दिया।
और फिर आधी रात में बेला वाकई में महकने लगा था।

१५ जून २०१५

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