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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
शशिकांत गीते की लघुकथा- आस्था


बस के चलने में अभी देरी थी। उसने सोचा तब तक एक कट चाय पी ली जाये। उसने चाय पीकर अठन्नी काउंटर पर दी तो चाय वाले ने अठन्नी खोटी कह कर लौटा दी। चाय वाले ने यह न सोचा हो कि उसने जानबूझ कर खोटी अठन्नी दी है। न भी सोचा हो, किसी ने उसे बेवकूफ तो बनाया ही है। उसने सोचा।

क्रोध तो बहुत आया मगर शर्मिंदा अधिक हुआ। उसकी सिगरेट पीने की इच्छा हो आयी, यद्यपि वह सिगरेट नहीं ही पीता है। सिगरेट वाले ने भी अठन्नी लौटा दी। अठन्नी चलाने की कोशिश में उसने एक रूपया खर्च कर दिया। क्रोध, शर्मिंदगी और अफ़सोस के मिले जुले आक्रमण से विचलित वह, वापस बस में आकर बैठ गया।

अब वाह सोच रहा था कि अपने सर पर लगे बेवकूफी के दाग को कैसे किसी पर ट्रांसफर कर दे। काफी तैयारी के बावजूद भी वह अठन्नी कंडक्टर को टिका देने का साहस नहीं जुटा पाया। उससे तो वे ग्रामीण अच्छे जो पैसा बीसियों बार उलट- पलट और गिन कर लेते हैं।

उसे अपने आप पर बहुत खीज आ रही थी। बस नर्मदा नदी के पुल से गुजर रही थी। सहसा वह अपने आप को हल्का महसूस करने लगा। उसने वह अठन्नी जेब से निकाल कर नर्मदा की तरफ उछाल दी और हाथ जोड़ लिये।

२३ फरवरी २०१५

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