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लघु-कथाएँ

लघु-कथाओं के क्रम में प्रस्तुत है, रत्ना ठाकुर की
लघु-कथा- सुंदरता


अश्रुपूरित नेत्रों के साथ वह अपने कमरे में अकेली बैठी हुई थी। उसने अपनी सास को उनकी बहन से कहते हुए सुना था, "ये तो अच्छा हुआ मेरी पोती गोरी चिट्टी है, बिलकुल मेरे बेटे की तरह! अपनी माँ की तरह काली होती तो मुश्किल हो जाती!”

ये पहली बार नहीं था, जब उसने अपने साँवले रंग को ले कर इस तरह की बातें सुनी थीं, पर हर बार उसका दिल छलनी हो जाता था। लोगों का उसके सारे गुणों को दर किनार कर इस तरह सिर्फ उसके साँवले रंग की निंदा करना उसका दिल तोड़ जाता था।

इतने में ही उसकी चार वर्षीय बेटी गुस्से से दनदनाती हुई अन्दर घुसी और उसकी प्रश्नवाचक नज़रों को नज़रंदाज़ करते हुए बिस्तर पर लेट गई। इसके पहले कि वह कुछ पूछ सके, बेटी गुस्से से बोली, "माँ! दादी माँ सबसे कहती हैं कि मैं आप के जैसी नहीं हूँ। क्या ये सच है?”

उसके उत्तर की प्रतीक्षा न करते हुए बेटी आगे बोली,” पर माँ, मैं आपके जैसी क्यों नहीं हूँ? आप कितनी सुन्दर हो! आप इस दुनिया में सबसे सुन्दर हो! मैं आपकी तरह होना चाहती थी!”

उसने बेटी को खींच कर सीने से लगा लिया। आँखों के आँसुओं का वेग प्रबल हो उठा था, पर ये ख़ुशी के आँसू थे। अब उसे दुनिया की निंदा की कोई परवाह नहीं थी। निच्छल मन से निकले ये प्रशंसा के बोल उसके ह्रदय के घाव पर मरहम की तरह थे!

८ दिसंबर २०१४

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