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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
डॉ. सरस्वती माथुर की लघुकथा- बदलाव और प्रेम की सुहानी हवा


मूलचंद बाबू जब घर लौटे तो बहुत उदास थे, हाथ में उनके एक लिफाफा था और माथे पर चिंता की लकीरें! मूलचंद जी को चिंतित देख सभी के चेहरे पर एक प्रश्न चिन्ह टंक गया
"क्या हुआ साहिब जी, किसका खत है?
"तुम्हारे बबुआ का!" मूलचंद जी रसोई में ही पत्नी के पास रखी चटाई पर बैठ गए!
"अरे वाह क्या लिखा है, वो आ रहा है न ऑफिस के काम से? "
"हाँ भाग्यवान, आ रहा है बबुआ लेकिन अकेला नहीं है, अपनी अंग्रेज़ बहू को भी साथ ला रहा है, लिखा है कभी भी पहुँच कर सरप्राइज़ देगा!"

"ओह हो, पर साहिब जी हम तो कह दिये थे बबुआ को कि अंग्रेज़ से ब्याह कर लिया है तो हमारे घर की देहरी पर उसे लेकर पैर न धरियो ..अब देखो दो बरस हो गए हैं, कलेजे पर पत्थर रख लिये है, कभी याद किए ओको?" कह कर शरबती अपने पलंग पर जा लेटी!  जाने कब आँख लग गयी।
जाने कितनी देर तक सोयी रही, वो तो जब नौकरानी ने झँझोड़ा तो वे चौंक कर जागी, देखा बबुआ पैरों के पास प्रणाम की मुद्रा में हाथ जोड़े खड़ा है और एक दुबली पतली गोरी सी महिला साड़ी में लिपटी उसके पास खड़ी है! वह भौंचक सी उन्हें देख रही थी, तभी वह गोरी सी महिला उनके पैरों पर झुक कर बोली ---"प्रणाम माँ!"
उनके बिलकुल पीछे मूलचंद जी खड़े मुस्कराते हुए बोले -" शरबती देख री तेरी बहू हिन्दी भी बोलती है और देख साड़ी भी डाली है!"

"हाँ साहबजी देखा मैंने! "शरबती अनायास कठपुतली सी उठी और उसे सीने से चिपका लिया। सारे शिकवे गिले भूल कर बहू को पत्नी ने गले लगाया तो जाने क्यूँ मूलचंद जी की आँखें नम हो गईं और वे सोचने लगे कि देश हो या विदेश बस परम्पराएँ जरूर अलग होती हैं पर भावनाएँ तो वही होती हैं! बेटे बहू को दो साल बाद देखकर शरबती सब गिले शिकवे भूल गई। नौकरानी से बोली --"जा री, पूजा का थाल ला; आज मेरी बहू पहली बार घर आयी है, स्वागत तो करूँगी न?"

तभी वह गोरी सी बहू एकाएक कह उठी- "और हाँ माँ, तिल के लड्डू और पपड़ी भी बनाना सिखाइयेगा, बायना भी निकालना होगा न आज, आपके बेटे ने यहाँ के हर रीति रिवाज से मुझे अवगत करा दिया है, देखिये न, दो साल में मैंने हिन्दी भी सीख ली है!" बहू के मुख से इतना सुनते ही घर में उत्साह की लहर दौड़ गयी! मकर सक्रांति में सूरज दक्षिण से उत्तरायन की तरफ आ जाता है जो ऋतु चक्र बदलता है। इस बदलाव के संकेत के साथ मूलचंद बाबू के घर के जीवन का ऋतु चक्र भी बदल गया।

परिवर्तन तो पलटते युग की माँग है ...पश्चिम का यह सूरज पूरब की दिशा में आया है तो चलो इस उत्सव का स्वागत पूरी बिरादरी को बुला कर किया जाये, एक अच्छी दावत दूँगी तो यह अच्छी शुरुआत होगी, इस बदलाव का दिल से स्वागत करूँगी- और शरबती की इस सोच के साथ मूलचंद जी के घर में ही नहीं पूरे मोहल्ले में चहल पहल का वातावरण बन गया ! सभी को लगा कि सच में इस बार की मकर सक्रांति उत्साह, बदलाव और प्रेम की सुहानी हवा लेकर आई है।

१३ जनवरी २०१४

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