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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
कुँवर भारती की लघुकथा- नेता जी


पूरे इलाके में शर्माजी की बहुत इज्ज़त थी। लोग उन पर अपनों से ज्यादा विश्वास करते थे। वह सबके काम अपनी प्राथमिकताओं को पीछे छोड़कर करते थे या स्वयं जाकर सम्बंधित अधिकारी से करवा देते थे। ऐसा पिछले चार साल से निरंतर हो रहा था लिहाज़ा उनकी लोकप्रियता अपने शिखर पर पहुँच गयी थी।

लोगों ने उनसे विधान सभा का चुनाव लड़ने की गुज़ारिश की जिसे उन्होंने कुछ ना-नुकर करने के बाद स्वीकार कर लिया और अपना नामांकन एक निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में करा दिया। जैसी कि उम्मीद थी उन्हें अपनी चार साल की तपस्या का फल मिल गया और वह चुनाव जीत गए। उनके घर पर बधाइयाँ देने वालों का ताँता लग गया।

जल्द ही शर्माजी को राजनीति समझ में आने लगी और उन्होंने पाँच करोड़ रुपये लेकर सत्तारूढ़ दल को समर्थन दे दिया | मुख्य मंत्री जी ने भी एहसान के बदले में शर्मा जी को एक कार्पोरेशन का चेयरमैन बना कर लाल बत्ती दे दी। अगले छह महीने में शर्माजी ने शहर के पोश इलाके में एक आलीशान कोठी बनवा ली और वहाँ शिफ्ट कर गए। अब वे अपने चुनाव क्षेत्र को काफी कुछ भूल चुके थे और बस एक ही धुन में लगे थे कि पाँच साल में इतना पैसा इकट्ठा कर लें कि आने वाली कई पीढियाँ आराम से ऐश करें।

अब उनके इलाके के लोग उनसे मिलने को भी तरस जाते थे। उन्हें अपने फैसले पर अफ़सोस होने लगा था। पर शर्माजी के पास उन इलाकेवालों से अब न तो कोई स्वार्थ बचा था और न ही उनके पास शर्म ही बाकी बची थी जो उन्हें उन लोगों के तानों से कुछ घबराहट होती। वह सबसे प्यारे प्यारे वादे तो करते पर उनको पूरा करने की रत्ती भर भी कोशिश न करते। लोगों ने उनके अंदर छिपे रावण को पहचान लिया था और अगले चुनाव के लिए एक ऐसे राम की तलाश शुरू कर दी थी जो चुनाव के बाद रावण न बन जाये जैसे शर्माजी बन गए थे।

१४ जुलाई २०१४

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