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लघु-कथाएँ

लघु-कथाओं के क्रम में प्रस्तुत है, प्रमोद यादव की कलम से
लघु-कथा- अदृश्य आँखें


सुबह-सुबह धोबी से कपड़े लिये और पच्चीस रूपये देने के लिये उसे सौ का नोट दिया। उसने नोट अपनी माँ को देते हुए कहा- ‘इसमें पच्चीस काटकर दो’ उसकी माँ ने मेज पर बिछे मोटे कपड़े के एक कोने को उठाकर चिल्लर नोट निकाल उसे दिए। उसने गिने और मुझे वापस करते कहा-‘पाँच रूपये अगली बार दे देना बाबू’ मैंने नोट गिने, पूरे नब्बे रूपये थे। एक पचास का, एक बीस का और दो नोट दस-दस के। मैंने चुपचाप रख लिये।

एक पल के लिये सोचा कि हमेशा की तरह ईमानदारी दिखाते हुए दस रूपये वापस कर दूँ पर दूसरे ही पल ख़याल आया-सुबह-सुबह कौन बोहनी खराब करे वैसे भी उसे तो भान ही नहीं कि कोई घाटा हुआ ना ही वह दुखी है तो फिर बेवजह उसे क्यों छेड़ना? मैं दस रूपये के अप्रत्याशित लाभ से पुलकते घर आ गया।

शाम को आवश्यक घरेलू सामान खरीदने बाजार गया तो जेब में पूरे आठ सौ रूपये थे। ढेर सारे सामान खरीदकर लौटा। सबका हिसाब मुझे जुबानी याद था। जलाराम मिष्ठान से एक सौ सत्तर का मिक्सचर, सेव.पापड़ी, पटेल डेयरी से दो सौ बीस का दही, ब्रेड, खोवे की जलेबी, मेडिकल दूकान से अस्सी की दवाई आदि-आदि। घर आकर बचे पैसों की गिनती की तो सौ रूपये का हिसाब नहीं मिला। कई बार हिसाब किया पर हर बार सौ रूपये कम ही निकले।

आखिरकार बात समझ में आ गई कि किसी दूकानदार को धोखे से एक नोट की जगह दो नोट दे दिए। शायद दो नोट सटकर चले गए। अब किससे जाकर पूछता और कौन भला बताता कि हाँ आपने दो नोट दिए थे। ईमानदारी का तो ज़माना ही नहीं। तब अचानक सुबह की घटना याद आई, मैंने ही कौन सी ईमानदारी दिखाई थी, इसलिये जैसे को तैसा। दस रूपये के फायदे से दिन भर पुलकता रहा, शाम को दस गुना अधिक चूना लगा तब समझ में आया कि चाहे किसी की आँखें हमारी बेईमानी देखेँ न देखेँ पर ऊपर कहीं न कहीं कोई अदृश्य आँखें हैं जो सब कुछ देखती-समझती हैं और शीघ्रातिशीघ्र सारे हिसाब बराबर भी कर देती हैं।

६ अक्तूबर २०१४

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