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पुराण-कथाएँ

पुराण-कथाओं के क्रम में प्रस्तुत है, मुक्ता की कलम से
पुराण-कथा- अभिमान का अंत


एक बार की बात है कृष्ण भगवान के सदा साथ रहने वाले गरुड़, सुदर्शन चक्र तथा सत्यभामा को अभिमान हो गया। अभिमान था- गरु़ण को तेज गति का, सुदर्शन चक्र को सर्व शक्तिमान होने का तथा सत्यभामा को सर्वश्रेष्ठ सुंदरी होने का।

यह अकारण नहीं था। इसके कुछ कारण भी थे। श्रीकृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा को स्वर्ग से पारिजात लाकर दिया था, यह माना जाता था कि जिसके पास यह पारिजात होता है वह स्त्री परम सुंदरी और अपने पति की प्रिय हो जाती है। इसी विश्वास ने सत्यभामा को अभिमानी बना दिया। सुदर्शन चक्र ने एक युद्ध में इंद्र के वज्र को परास्त कर दिया था इसलिये सुदर्शन चक्र को यह अभिमान हो गया कि जब वह इंद्र के वज्र को परास्त कर सकता हो तो किसी को भी परास्त कर सकता है। गरुड़ को श्रीकृष्ण के वाहन बनने का अधिकार मिला तो उसे लगा कि जब भगवान मेरे बिना कहीं आ जा नहीं सकते तो भला मेरी गति से कोई क्या मुकाबला करेगा, निश्चय ही मुझसे वेगवान इस विश्व में कोई नहीं।

इन तीन महान आत्माओं को अभिमान करते देख श्रीकृष्ण सोच में पड़ गए। यदि उनके सर्वथा निकट रहने वाले व्यक्ति अभिमानी हो जाएँगे तो भला भगवान का काम कैसे चलेगा? अतः उन्होंने सबके अभिमान का अंत करने के लिये हनुमान जी की सहायता ली।

श्रीकृष्ण द्वारा हनुमान जी का स्मरण करते ही वे जान गए कि उन्हें क्यों बुलाया गया है और वे तत्काल द्वारिका आ गए। श्रीकृष्ण और श्रीराम दोनों एक ही हैं, वह यह भी जानते ही थे। इसीलिए सीधे राजदरबार नहीं गए कुछ कौतुक करने के लिए उद्यान में चले गए। वृक्षों पर लगे फल तोड़ने लगे, कुछ खाए, कुछ फेंक दिए, वृक्षों को उखाड़ फेंका, कुछ को तोड़ डाला... बाग वीरान बना दिया। फल तोड़ना और फेंक देना, हनुमान जी का उद्देश्य नहीं था। वह सब श्रीकृष्ण के संकेत से की जाने वाली लीला थी। बात श्रीकृष्ण तक पहुँची, किसी वानर ने राजोद्यान को उजाड़ दिया है, कुछ किया जाए। श्रीकृष्ण ने गरुड़ को बुलाया और "कहा, "सेना लेकर जाओ और उस वानर को पकड़ लाओ।"

गरुड़ ने कहा, "प्रभु, एक मामूली वानर को पकड़ने के लिए सेना की क्या आवश्यकता है? मैं अकेला ही उसे मजा चखा दूँगा|" कृष्ण मन ही मन मुस्करा दिए... "जैसा तुम चाहो, लेकिन उसे रोको।"
वैनतेय ने हनुमान जी को ललकारा, "बाग क्यों उजाड़ रहे हो? फल क्यों तोड़ रहे हो? चलो, तुम्हें श्रीकृष्ण बुला रहे हैं।"
हनुमान जी ने कहा, "मैं किसी कृष्ण को नहीं जानता। मैं तो श्रीराम का सेवक हूँ। जाओ, कह दो, मैं नहीं आऊँगा।"

गरुड़ क्रोधित होकर बोला, "तुम नहीं चलोगे तो मैं तुम्हें पकड़कर ले जाऊँगा|" हनुमान जी ने कोई उत्तर नहीं दिया। गरुड़ की अनदेखी कर वे फल तोड़ते रहे और गरुड़ को समझाया, "वानर का काम फल तोड़ना और फेंकना है, मैं अपने स्वभाव के अनुसार ही कर रहा हूँ, मेरे काम में दखल न दो, क्यों झगड़ा मोल लेते हो, जाओ... मुझे आराम से फल खाने दो।"

गरुड़ नहीं माना... तब हनुमान जी ने अपनी पूँछ बढ़ाई और गरुड़ को दबोच लिया। उसका घमंड दूर करने के लिए कभी पूँछ को ढीला कर देते, गरुड़ कुछ साँस लेता, और जब कसते तो गरुड़ के मानो प्राण ही निकल रहे हो... हनुमान जी ने सोचा, भगवान का वाहन है, प्रहार भी नहीं कर सकता। लेकिन इसे सबक तो सिखाना ही होगा। पूँछ को एक झटका दिया और गरुड़ को दूर समुद्र में फेंक दिया। बड़ी मुश्किल से वह गरुड़ दरबार में पहुँचा... भगवान को बताया, वह कोई साधारण वानर नहीं है। मैं उसे पकड़कर नहीं ला सकता। भगवान मुस्करा दिये - सोचा गरुड़ का शक्तिमान होने का घमंड तो दूर हो गया, लेकिन अभी इसके वेग के घमंड को चूर करना है।

श्रीकृष्ण ने कहा, "गरुड़, हनुमान श्रीराम जी के भक्त हैं, इसीलिए नहीं आए। यदि तुम कहते कि श्रीराम ने बुलाया है, तो फौरन भागे चले आते। हनुमान अब मलय पर्वत पर चले गए हैं। तुम तेजी से जाओ और उससे कहना, श्रीराम ने उन्हें बुलाया है। तुम तेज उड़ सकते हो... तुम्हारी गति बहुत है, उसे साथ ही ले आना।"

गरुड़ वेग से उड़े, मलय पर्वत पर पहुँचे। हनुमान जी से क्षमा माँगी और कहा, "श्रीराम ने आपको याद किया है, अभी मेरे साथ चलें, मैं आपको अपनी पीठ पर बैठाकर मिनटों में द्वारिका ले जाऊँगा। आप स्वयं चलेंगे तो देर हो जाएगी। मेरी गति बहुत तेज है। हनुमान जी मुस्कराए... भगवान की लीला समझ गए, बोले, "तुम जाओ, मैं तुम्हारे पीछे ही आ रहा हूँ।"

द्वारिका में श्रीकृष्ण राम रूप धारण कर सत्यभामा को सीता बना सिंहासन पर बैठ गए। सुदर्शन चक्र को आदेश दिया,. "द्वार पर रहना", कोई बिना आज्ञा अंदर न आने पाए, श्रीकृष्ण समझते थे कि श्रीराम का संदेश सुनकर तो हनुमान जी एक पल भी रुक नहीं सकते, अभी आते ही होंगे।

गरुड़ को तो हुनमान जी ने विदा कर दिया और स्वयं उससे भी तीव्र गति से उड़कर गरुड़ से पहले ही द्वारका पहुँच गए। दरबार के द्वार पर सुदर्शन ने उन्हें रोक कर कहा, "बिना आज्ञा अंदर जाना मना है।" जब श्रीराम बुला रहे हों तो हनुमान जी विलंब सहन नहीं कर सकते। सुदर्शन को पकड़ा और मुँह में दबा लिया। अंदर गए, सिंहासन पर श्रीराम और सीता जी बैठे थे। हुनमान जी समझ गए। श्रीराम को प्रणाम किया और बोले, "प्रभु, आने में देर तो नहीं हुई?" साथ ही कहा, "प्रभु माँ कहाँ है? आपके पास आज यह कौन दासी बैठी है? सत्यभामा ने सुना तो लज्जित हुई, क्योंकि वे समझती थीं कि कृष्ण द्वारा पारिजात लाकर दिए जाने से वह सबसे सुंदर स्त्री बन गई है। सत्यभामा का घमंड चूर हो गया।

उसी समय गरुड़ तेज गति से उड़ने के कारण हाँफते हुए दरबार में पहुँचे। साँस फूल रही थी, थके हुए से लग रहे थे। और हनुमान जी को दरबार में देखकर तो वह चकित रह गए। मेरी गति से भी तेज गति से हनुमान जी दरबार में पहुँच गए? लज्जा से पानी-पानी हो गए, शक्ति और तेज गति से उड़ने का घमंड चूर हो गया। श्रीराम बने हुए कृष्ण ने पूछा, "हनुमान ! तुम अंदर कैसे आ गए? किसी ने रोका नहीं?"

"रोका था भगवन, सुदर्शन ने... मैंने सोचा आपके दर्शनों में विलंब होगा... इसलिए उनसे उलझा नहीं, उसे मैंने अपने मुँह में दबा लिया था।" और यह कहकर हनुमान जी ने मुँह से सुदर्शन चक्र को निकालकर प्रभु के चरणों में डाल दिया।

तीनों के घमंड चूर हो गए। महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न हो चुका था। श्रीकृष्ण ने हनुमान जी को गले लगाया, हृदय से हृदय की बात हुई, और उन्हें विदा कर दिया।

परमात्मा अपने भक्तों में अपने निकटस्थों में अभिमान रहने नहीं देते। श्रीकृष्ण सत्यभामा, गरुड़ और सुदर्शन चक्र का घमंड दूर न करते तो परमात्मा के निकट रह नहीं सकते थे... और परमात्मा के निकट रह ही वह सकता है जो 'मैं' और 'मेरी' से रहित है।

१८ अगस्त २०१४

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