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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
डॉ. दिनेश पाठक शशि की लघुकथा- समानांतर दर्द


“टिकट ?”
टी.टी.ई. के पूछते ही युवक ने जेब से निकालकर दो टिकट आगे कर दिये।
"ये तो जनरल के टिकट हैं।"
युवक के साथ यात्रा कर रही युवती की ओर देखते हुए टी.टी.ई. बोला, फिर सामने वाले यात्री से खिसकने का इशारा किया और उसके खिसकते ही खाली जगह में बैठ गया।
"जी वो...वो... भागते भागते पकड़ी थी गाड़ी, इसलिये... जाना भी बहुत जरूरी था न", युवक ने सफाई पेश की।

"
एक सौ बहत्तर रुपये दो।"
हाथ में पकड़ी रसीदबुक को खोलने का उपक्रम-सा करते हुए टी.टी.ई. की दुत्कार सुनकर युवक ने जेब से निकालकर अस्सी रुपये उसकी ओर बढ़ा दिये। टी.टी.ई. ने रुपयों को पहले चुपके से गिना फिर जोर-जोर से चिल्लाने लगा, "ये तो केवल अस्सी रुपये ही हैं इतने में तो रसीद भी नहीं बनेगी।" कहते हुए टी.टी.ई. झटके से उठा और फिर दूसरे कोच की ओर जाने लगा। युवती ने जाते हुए टी.टी.ई. की ओर देखा और फिर साथी युवक की ओर देखकर कुछ इशारा-सा किया तो युवक टी.टी.ई. के पीछे हो लिया।

जब युवक वापस लौटकर आया तो एक घंटा बीत चुका था। और उन दोनो की एक चौथाई दूरी भी, वह थोड़ी देर तक युवती के पास बैठा किंतु उसकी घबराहट भरी उद्विग्नता स्पष्ट झलक रही थी। वह अपने स्थान से उठा और फिर से टी.टी.ई. के पास चल दिया।

जब दुबारा लौटकर आया तो उसकी यात्रा की आधी दूरी तय हो चुकी थी और फिर इसी तरह तीन चौथाई दूरी भी। आखिर
में जब यात्रा के ४-५ किलोमीटर ही बचे होंगे कि इस बार टी.टी.ई. भी उस युवक के साथ आता हुआ दिखाई दिया। युवक का चेहरा काफी तनावपूर्ण लग रहा था। टी.टी.ई. था कि बार बार उसे धमकी तो दे रहा था पर रसीद नहीं काट रहा था।
युवती मौन, भाव शून्य-सी सबकुछ देख, सुन रही थी।

उस कोच के कुछ यात्री, दोनो को फँसा देख, मन ही मन प्रसन्न हो रहे थे तो कुछ सही टिकट लेकर चलने की सलाह दे रहे थे तो कुछ उन दोनो को संदेह की नजर से भी देख रहे थे।
कहीं भागकर तो नहीं आए ये दोनो ? और इसी क्रम में कुछ मनचले यात्री उस युवती की ओर देख देख कर उल्टे सीधे वाक्य उछाल रहे थे।

जैसे जैसे स्टेशन नजदीक आता जा रहा था युवक के दिल की धड़कन बढ़ती जा रही थी। युवती अब भी शांत थी। जैसे ही उनका स्टेशन आने को हुआ, गाड़ी के धीमे होते ही टी.टी.ई. ने युवक की ओर देखा- अच्छा लाओ दो क्या है ? युवक ने हाथ में मोड़कर पकड़े हुए रुपये उसे थमा दिये और राहत सी महसूस की।

चाहे कितना भी जरूरी काम हो अब कभी मत चढ़ना इस तरह रिजर्वेशन के कोच में। अहसान सा जताते हुए टी.टी.ई. ने उपदेश दिया फिर अचानक ही उसे कुछ याद सा आया। वह पुनः उन युवक युवती की ओर कुटिलता मुस्कराया, बाई दे वे आप कहाँ जा रहे हैं ? और ऐसा कौन सा जरूरी काम आ गया जो...
सुनकर कुछ यात्रियों ने ठहाका लगाया, अरे भाई, ऐश करने जा रहे हैं ऐश। इससे भी जरूरी काम और क्या होगा?
तो किसी मनचले ने मुँह से सीटी बजा दी।

युवती ने घृणा से उस टी.टी.ई. की ओर घूरा और फिर हँसी उड़ा रहे यात्रियों की ओर देखते हुए रो पड़ी। हाँ हाँ ऐश करने जा रहे हैं। आपके भी जब पिताजी मर रहे होंगे तो आप भी अपनी बहन के साथ ऐश करने गए होंगे।

यह सुनते ही सब पर घड़ों पानी पड़ गया। आस पास सन्नाटा-सा छा गया और सभी यात्री एक दूसरे से नजरे चुराने लगे थे। तभी टी.टी.ई. ने चुपके से जेब में हाथ डाला और युवक द्वारा दिये गए रुपयों को निकालकर उसके हाथ में थमा दिया, रख लो काम आएँगे।

फिर उसने युवती की ओर देखा, क्षमा करना बहन, धीरे से कहते हुए नजरें झुकाए वह दूसरे कोच में चला गया।

शायद अतीत के किसी क्षण ने उसे, उन दो के समानांतर ला खड़ा किया था।

२८ जनवरी २०१३

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