लेखक
था वो। कुछ-कुछ क्रांतिकारी विचारोंवाला। वर्तमान व्यवस्था
में आमूल-चूल परिवर्तन का कट्टर हिमायती। बेचारा... ।
व्यवस्था तो क्या बदल पाती उसकी लेखनी... पर वह खुद
मुफलिसी के गर्त में जा फँसा।
दीन-ईमान का जमाना खर्च हो चुका था। रातों-रात अमीरी हासिल
करने की होड़ रफ्तार पर थी... दलाली तरह-तरह की... उसके
फटेहाल यारों को कोठी-मोटर-मोटे बैंक खातों वाला बना चुकी
थी। वह मन ही मन कुढ़ता। काश, मैं भी...
इसी उधेड़-बुन में महीनों पगलाया रहा- पैसा-पैसा,
कोठी-बँगला... पर कैसे? आखिर आयी थी अक्ल उसको भी... मगर
देर के बाद...
सामाजिक तत्व उसके लेखन के मुरीद बन न पाये, परंतु
असामाजिक तत्वों को उसकी लेखनी भा गयी थी। जहाँ कहीं शांति
व्यापती और इन तत्वों का लूटपाट का धंधा मंदा पड़ता, तब-तब
उसकी लेखनी ही वहाँ चिंगारी बीजती...
'तेल लगा के डाब... बाबर का... इस्ला... के... सब कुरबान।'
विरोधी गुट उसकी काबलियत के कायल हो गये थे। पोलिटिक्स के
अखाड़े में भी उसकी पूछ हो चली थी। पौ बारे हो गये उसके...
ये धंधा चमक उठा था उसका।
कार, कोठीवाला बन गया था अब वो भी...
२ दिसंबर
२०१३ |