वह माँ काली का उपासक था।
तंत्र विद्या में उसने अनेक सिद्धियाँ प्राप्त कर ली थीं।
लेकिन अपनी कई बुरी लतों से वह उबर नहीं पाया था, उनमें से
एक था, गाँजे का सेवन। हालाँकि वह इसे भी प्रसाद ही कहता
था, लेकिन जानता था कि यह उसकी निम्नतर चेतना से जुड़ी हुई
आदत है। और इसी कारण गाँजा पाने के लिए वह अपनी तांत्रिक
सिद्धि का उपयोग कभी नहीं करता था।
आज तीसरा दिन था, वह गाँजे की तलब से तड़प रहा था। आदत के
खोंचों ने उसे इतना उन्मत्त बना दिया कि वह अपनी आराध्या
को ही कोसने लगा। वह प्रार्थना कर-करके हार चुका था। अब
गालियाँ बकने लगा। वह पागल नहीं था, लेकिन अभी उसकी हालत
पागलों से भी बदतर हो रही थी। उसका मन हो रहा था, सामने
बहती नदी में कूदकर प्राण दे दे या जिस पेड़ के नीचे बैठा
है, उसी से लटककर फाँसी लगा ले। शायद वह कुछ कर ही बैठता,
लेकिन उसका एकांत भंग हो गया।
एक सिपाही, किसी चोर की कमर में रस्सा बाँधे, उसी पेड़ के
नीचे रूका। चोर के हाथ हथकड़ी में जकड़े थे। वह काफी पिट
चुका होगा, बदहाल था। गरमी भी बहुत थी। सिपाही ने उसे पेड़
के तने से कसकर बाँध दिया और तांत्रिक को प्रणाम करते हुए
बोला -'बाबा ! मैं जरा नदी में हाथ-मुँह धोकर आता हूँ। आप
तनिक नजर रखेंगे कि यह शैतान कोई गड़बड़ न करे। अगर इसने चूँ
भी किया तो, आप पुकार लेंगे।'
सिपाही के जाने पर चोर गिड़गिड़ाया - 'बाबा!'
'देखो, सिपाही मुझ पर विश्वास जता गया है मैं उसके साथ
धोखा नहीं कर सकता। यदि पानी पीना चाहते हो, तो पिला
दूँगा। लेकिन भागने में मैं तुम्हारी मदद नहीं करूँगा।'
'नहीं, बाबा! मैं रस्सी खोलने के लिए नहीं कहता।'
'तब ? क्या चाहिए तुम्हें ?'
'मैं एक मामूली चोरी में पकड़ा गया हूँ। छोटी-मोटी सजा
होगी, जल्दी ही छूट जाऊँगा। लेकिन, बाबा! आप मेरी मदद कर
दें, तो बड़ी सजा से बच जाऊँ। लगता है, भगवान ने मेरी मदद
के लिए ही आपको यहाँ बैठा रखा था।'- उसका गला रुँध गया।
अब तांत्रिक का मन भी समस्या में तनिक हट गया, उसने
आत्मीयता से पूछा- 'सजा कम कराने में मैं तुम्हारी क्या
मदद कर सकता हूँ ?'
'बाबा! मेरी जेब में गाँजा है। वहाँ, थाने में मेरी तलाशी
होगी। गाँजा निकलेगा, तो मैं वर्षों जेल में सड़ता रह
जाऊँगा। आपके पैर पड़ता हूँ। मेरी जेब से गाँजा निकालकर
कहीं छिपा दें, हम चले जाएँगे, तो नदी में फेंक देंना।'
तांत्रिक की बाछें खिल गयीं।
उसने फुरती से, चोर की जेब से गाँजे का एक-एक टुकड़ा
निकालकर अपनी गाँठ में बाँध लिया और बड़ी बेचैनी के साथ
इनके जाने की राह देखने लगा।
चोर और सिपाही, दोनों ने कृतज्ञता से भरकर तांत्रिक को
प्रणाम किया और अपने मार्ग पर बढ़ गये।
उनके जाने और गाँजे की पोटली खोलने के बीच जो क्षण आया,
उसी में तांत्रिक के पूरे शरीर में बिजली-सी कौंध गयी।
उसके मुँह से निकला - 'माँ! बाकी शब्द उसके मन में ही बजते
रहे -'ओह! मेरे लिए, इस नराधम के लिए माँ, तुझे इतनी तकलीफ
करनी पड़ी। ऐसी योजना बनानी पड़ी। चोर-सिपाही के खेल में भाग
लेना पड़ा मेरे लिए! यह मैंने क्या कर डाला? माँ तुझे इतना
क्यों सताया?' वह बहुत देर तक मन-ही-मन बिलपता रहा। फिर
उठकर नदी किनारे गया, अपनी चादर की गाँठ खोली और गाँजे को
पानी में फेंक दिया। शीतल जल में नहा-धोकर जब वह बाहर आया,
तो उसे लगा कि आज उसकी बुरी लत की अस्थियाँ नदी की धारा
में प्रवाहित हो गयीं।
४ नवंबर
२०१३ |