वृद्ध कई दिनों से बीमार चल
रहा था। आखिर उसने अपने चित्रकार पुत्र को बुलाकर कहा-
“बेटा, तुझे मैंने जितनी शिक्षा देनी थी, दे चुका... अब तू
बच्चों पर तीन चित्र बनाकर मुझे दिखा दे, तो मेरी चिन्ता
दूर हो।“
बेटा जान गया कि पिता परीक्षा लेना चाहते हैं। वह चित्र
बनाकर ले गया।
पहला चित्र एक बहुत अमीर और स्वस्थ बच्चे का था, बच्चा
नौकर की गोद में था।
पिता बोले, “वाह! रौब और अमीरी में भी बच्चे के चेहरे से
असंतोष के भाव को तुमने क्या खूब दिखाया है। पृष्ठभूमि में
कार और बिना पत्तों का छोटा सा पेड़ बहुत कुछ कह रहे है।“
दूसरा चित्र एक मध्यवर्गीय बच्चे का था।
उसे देखकर पिता बोले – “माता पिता के हाथ पकड़कर खड़ा यह
बच्चा अपने मन की हालत कुद ही कह रहा है। बच्चे को सुंदर
कपड़े पहनाकर माता पिता कितने खुश हैं, मानो उनका फर्ज इसी
में पूरा हो गया हो।“
“और पिताजी यह रहा तीसरा चित्र।“ पुत्र ने आखिरी चित्र आगे
बढ़ाया।
पिता ने देखा तो देखते ही रह गए, बोले- “तुमने तो इस चित्र
में जैसा जान ही फूँक दी। मिट्टी के ढेर पर बैठा यह दुबला
पतला बच्चा कितना सहज लग रहा है... हवा में बिखरे बालों
में से झाँकती, इसकी चमकीली आँखें कितनी अर्थपूर्ण हैं।
जेब में मिट्टी भरकर उस पर हाथ यूँ रखा है कि जैसे उसमें
हीरे भरे हों... मिट्टी भरे हाथ को यह यों बढ़ा रहा है,
जैसे कि हमें खेलने के लिये बुला रहा हो, पर एक बात तो
बताओ...”
“जी कहिये...”
पिता ने पूछा- “पहले दोनो चित्र तो तुमने गीले रंगों से
बनाए हैं लेकिन इस चित्र को काली पेंसिल से क्यों बनाया?”
“पिताजी, इस चित्र की बारी आई तो सब रंग खत्म हो चुके थे।“
६ जून २०१२ |