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‘रमेश, सुरेश कब आयेगा।'
‘माँ, भइया अपने काम में व्यस्त हैं।
उनके पास छुट्टियाँ नहीं हैं। तुम बार बार पूछकर
मेरा दिमाग खराब मत किया करो।'
‘बेटा तुमने उसे खबर तो कर दी है न, कि मैं सख्त बीमार
हूँ, और एक बार उसे देखना चाहती हूँ।'
‘हाँ बता दिया, बस और कुछ?' कहकर, रमेश माँ से लगभग पीछा
छुड़ाता हुआ, कमरे से बाहर आ गया।
उसकी पत्नी जो कमरे के बाहर से यह सब वार्तालाप सुन रही
थी, बोली, ‘ पर आपने तो भाईसाहब को बताया ही नहीं, कि माँ
इतनी ज्यादा बीमार हैं, और उन्हें एक बार देखना चाहती हैं।
उनका जब भी फोन आता है और माँ के बारे में पूछते हैं, आप
कह देते हैं, माँ ठीक हैं। उनका तो बुढ़ापा है। बुढ़ापे में
कुछ न कुछ तो बीमारी लगी ही रहती है। माँ की अब सुनने की
शक्ति कम हो गई है फोन पर बात सुनायी नहीं पड़ती है, इसलिये
वो उनसे फोन पर बात नहीं कर पाते। कौन जाने उनके प्राण भाई
साहब में ही अटके हों।’
‘हो सकता है तुम्हारा कहना सही
हो, लेकिन मैं क्यों चाहूँगा कि वो आएँ।’ पति ने कहा।
‘क्यों नहीं? पत्नी ने बड़ी
सरलता से पूछा।
‘तुम्हें याद नहीं, जब पिताजी
बीमार पड़े, हमने भाईसाहब को फोन
किया, तो अगले दिन ही भाईसाहब फ्लाइट ले कर पँहुच गये।
पिताजी के साथ दो दिन बिताये,
और उनके सामने ही पिताजी चल बसे।
भाईसाहब ने ही अन्त्येष्टि क्रिया की।
अंतिम संस्कार का सारा पुन्य प्रताप भी उन्हीं को
मिला, और सभी नाते रिश्तेदार भी उन्ही की तारीफ के पुल
बाँधते रहे।
सभी बुजुर्ग उन्हें आशीष देते और कहते, ‘ बेटा, अच्छा हुआ
तुम समय पर आ गये। तुम्हारे पिताजी सुकून से शरीर त्याग
सके ।ये मोह ममता बड़ी बुरी चीज बनायी भगवान ने।तुम्हारे
पिताजी की आत्मा तुम्हे आशीष देगी।'
‘मैंने पूरे समय उनकी देख रेख की, उनकी प्रत्येक आवश्यकता
पूरी की, और अन्त समय सारा श्रेय हमारे आदरणीय भाईसाहब ले
गये’’ अतिरिक्त क्रोध के कारण रमेश का मुँह लाल हुआ जा रहा
था।
‘मैं दोबारा ऐसी गल्ती नहीं करूँगा।’’ रमेश ने स्पष्टीकरण
देते हुये कहा।
‘लेकिन माँ की इच्छा का भी तो आपको विचार करना चाहिये।'
पत्नी ने समझाने के लहजे मैं कहा। पत्नी अपनी बीमार सास की
सेवा कर करके बहुत थक गयी थी और चाहती थी कि उनसे जितनी
जल्दी मुक्ति मिल सके उतना अच्छा है, लेकिन पतिदेव उसकी
कोई बात सुनने के लिये तैयार नहीं थे।
‘वो तो वृद्ध हैं। जब उनका समय पूरा हो जायगा, चली जाएँगी।
कोई किसी का इन्तजार नहीं करता, तुम चिन्तित मत हो।’ रमेश
ने अपनी दलील पेश की।
‘तो तुम्हें माँ की इच्छा से ज्यादा अपनी वाहवाही की
चिन्ता है’। पत्नी ने कुछ चिढ़ते हुये कहा।
‘हाँ, तो उसमें गलत क्या है। वो मेरे साथ रहती हैं, मैं
उनकी देख रेख करता हूँ। उनका अन्तिम संस्कार भी मैं ही
करूँगा। यदि भाईसाहब आ जाएँगे तो फिर बड़े होने के कारण,
फिर वही अन्त्येष्टि क्रिया करेंगे, और वही सबकी आशीष और
वाह वाही बटोर ले जाएँगे। औैर मैं फिर एक बार पिटे हुये
मोहरे की तरह उनका मुँह ताकता रह जाऊँगा।' कहकर रमेश क्रोध
में पैर पटकता हुआ घर से बाहर चला गया।
२ अप्रैल २०१२ |