कॉलेज
छोड़ने के बाद यह हमारी पहली मुलाक़ात थी। मित्र को न जाने
कैसे पता चल गया कि मैं इस कॉलोनी में हूँ। कमरे में बैठते
ही मैंने आवाज़ लगाई, ''सुनीता! देख, आज कौन आया है?''
पत्नी संभवतः घर पर नहीं थी। उत्तर नहीं मिला। इतने में मेरी
पाँच वर्षीय लाड़ला आ धमका और पैरों से लिपटते हुए बोला,
''पापा! पापा! मम्मी गुप्ता आंटी के घर गई हैं।''
रोज़ का हाल है यह! किसी न
किसी चीज़ के लिए पत्नी को पड़ोस में भागना पड़ता है। माह के
आखिरी दिन थे। मित्र के अकस्मात आगमन से मैं मुश्किल में फँस
गया था।
मित्र ने ध्यान भंग किया, ''और कितने बच्चे हैं... राजेश?''
''दो ओर हैं- एक लड़का... एक लड़की, दोनों स्कूल गए हैं!''
मैंने बरबस मुस्कराने का यत्न किया।
''अब और नहीं होने चाहिए।'' मित्र की फीकी हँसी बड़ी देर तक
कमरे में लटकी रही।
समय निकलता जा रहा था और
अभी तक हम चाय नहीं पी पाए थे। पत्नी की अनुपस्थिति खलने
लगी। ''शायद, पत्नी स्कूल चली गई- बच्चों को लेने। आज हाफ डे
है न!''
मैंने अपनी कमज़ोरी छिपाई। सच्ची-झूठी बातें कब तक झेलता।
मैंने बबूल से कहा, ''बेटा! ज़रा देख तो आ मम्मी को। कहीं
बिहारिन आँटी के घर न हों। अभी तक तो हम दो बार चाय पी चुके
होते।''
''छोड़ भी यार। जब से बैठा हूँ। चाय की रट लगा रखी है। मैं
हर पंद्रहवें दिन दिल्ली आता हूँ, फिर कभी पी लेंगे चाय...
भाभी के हाथ की। मुझे चलने दे अब!'' यह कहकर मित्र उठ खड़ा
हुआ।
मैंने रोकना चाहा पर वह
नहीं माना और बबलू को दस का नोट थमाकर बाहर निकल आया। मैंने
बबलू को खींचकर झट से अंदर किया और उसे समझाया, ''तुम यहीं
रहना। मम्मी से कहना पापा बाज़ार गए हैं।''
बबलू सिर खुजलाता रह गया।
अब हम दोनों सड़क नाप रहे थे। मैंने कहा, ''यार! इतने दिनों
बाद मिले और एक कप चाय भी न पिला पाया। घर न सही चलो किसी
दुकान में बैठकर पी लेते हैं।''
हम दोनों एक ढाबे में बैठ
गए। चाय के सा समोसे भी मँगा लिए थे। चाय पी चुकने के बाद
मैंने कुछ हल्कापन महसूस किया। मैंने बड़े रोब में दुकानदार
को पैसे बढ़ाए! यह क्या... मेरा हाथ काँप रहा था। दुकानदार
बोला, ''बाबू जी! आज इतनी सर्दी नहीं है... फिर भी...।''
मेरे हाथ में बबलू को दिया
गया मित्र का वह दस रुपए का नोट फड़फड़ा रहा था। शायद मित्र
न समझ पाया हो। फिर भी मेरा हाथ बड़ी देर तक काँपता रहा।
१२ जनवरी २००९ |