वे मेरे पड़ोसी थे।
महानगरीय जीवन में जैसी दुआ-सलाम सुबह दफ्तर जाते समय और
लौटते हुए होती है, वैसी हम लोगों के बीच भी थी। कभी-कभी हम
सिर्फ़ स्कूटरों के हॉर्न बजाकर, सिर झुकाकर दूर से ही यह
रस्म निभा लेते।
एक दिन वे दुआ-सलाम और
रस्म-अदायगी से आगे निकल मुस्कराते हुए मेरे पास आए और
औपचारिकतावश मिलने का समय माँगा। मैं उन्हें ड्राइंग-रूम में
ले गया। उन्होंने बिना किसी भूमिका के अंग्रेज़ी में
प्रकाशित एक विज्ञापन मेरे सामने रख दिया। हमारे कार्यालय
में कोई पोस्ट खाली थी और उसके लिए उनकी बेटी ने आवेदन किया
था। इसी कारण वे दुआ-सलाम की लक्ष्मण रेखा पार करके, मुस्कान
ओढ़े मेरे सामने बैठे थे।
वे मेरी प्रशंसा करते हुए
कह रहे थे, ''हमें आप पर पूरा विश्वास है। आप हमारी बेटी के
लिए कोशिश कीजिए।'' मैंने उन्हें विश्वास दिलाया कि मैं अपनी
ओर से इसके लिए पूरी कोशिश करूँगा। नाम और योग्यताएँ भी
मैंने डायरी में नोट कर लीं। दूसरे दिन शाम को वे फिर हाजिर
हुए। मैंने उन्हें प्रगति बता दी कि संबंधित विभाग से
योग्यता के आधार पर इंटरव्यू कॉल आ जाएगी। बेटी से कहिए कि
तैयारी करे।
''तैयारी, कैसी तैयारी?''
''इंटरव्यू की और किसकी?''
''देखिए, मैं आपसे स्पष्ट बात करने आया हूँ कि तैयारी बेटी
ने नहीं, हमने कर ली है। हम
संबंधित अधिकारी को 'प्लीज़' करने के लिए तैयार हैं। हमारी
तैयारी पूरी है। आप मालूम कर लीजिए।''
मैं हैरान था कि कल तक उनका
विश्वास मुझमें था और आज उनका विश्वास...
८ दिसंबर २००८ |