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                      उसके इकलौते पुत्र के 
                      विवाहोत्सव के पश्चात घर में गहरा सन्नाटा पसर गया। 
                      रिश्ते-नातेदारों के जाने के साथ-साथ पुत्र एवं पुत्रवधू भी 
                      हनीमून मनाने किसी पहाड़ी शहर को चले गए। माँ की प्रसन्नता का 
                      पारापार न था। किंतु अपने पुत्र एवं पुत्रवधू के 'हनीमून' 
                      नाम से उत्पन्न एहसास ने उसके सूने ह्रदय में एक विचित्र-सी 
                      गुदगुदी उत्पन्न कर दी और वह कुछ प्रफुल्लित होती हुई अपने 
                      ड्राइंगरूम के एक कोने में रखी आराम-कुर्सी पर लेट-सी गई और 
                      अपने अतीत में गोते लगाने लगी। आज से लगभग बाईस वर्ष पूर्व 
                      वह भी दुल्हन बनकर आई थी। तब वह मात्र सोलह वर्ष की थी। वह 
                      भी अपने पति के साथ हनीमून मनाने गई थी। पति-पत्नी कितने खुश 
                      थे। शादी के लगभग एक वर्ष के बाद उसकी गोद में उसका यह 
                      इकलौता पुत्र खेलने लगा था। किंतु जन्म के छः माह पश्चात ही 
                      काल ने उसकी खुशियों को अपना ग्रास बना लिया। उसका पति मात्र 
                      उसकी यादों में ही रह गया। तब उसके घर-परिवार के लोगों ने 
                      पुत्र के किशोर होते-होते तक उस पर पुनर्विवाह हेतु ज़ोर 
                      डाला था। उस बात को उसका पुत्र भी जानता था। किंतु उसका कहना 
                      था कि अपने सुख के लिए वह पुत्र के भविष्य को अंधकारमय नहीं 
                      बनाएगी। अपने पति के प्यार की निशानी को वह एक अच्छा इंसान 
                      बनाएगी। अपने पैरों पर खड़ा करेगी और उसका घर बसाने के 
                      पश्चात ही यदि समय एवं समाज ने अनुमति दी तो अपने विषय में 
                      विचार करेगी। अतीत से अभी वह उभरी ही थी 
                      कि अतीत की एक अन्य घटना ने स्मरण में आकर उसे पुनः रोमांचित 
                      कर दिया... पति की मृत्यु के पश्चात पढ़ी-लिखी होने के कारण 
                      उसे उसी कार्यालय में अच्छी नौकरी मिल गई थी। वहाँ कार्यरत 
                      रहते-रहते उसका एक सहकर्मी भावना के स्तर पर उसकी ओर आकर्षित 
                      हुआ था। धीरे-धीरे दोनों में प्रेम हुआ और है भी। किंतु वह 
                      प्रेम सदैव एक मर्यादा में ही चलता रहा। किंतु उसके दायित्व 
                      ने उसे कहीं भी चूकने नहीं दिया। उसके सहकर्मी ने उसकी 
                      प्रतीक्षा में विवाह नहीं किया। आज वह अपने सहकर्मी के विषय 
                      में सोच रही है, क्या इस उम्र में विवाह करना ठीक होगा? वह  
                      अपने नए पति को सुख दे पाएगी? घर वाले क्या सोचेंगे? सबसे 
                      बड़ी बात, उसका पुत्र और बहू क्या सोचेंगे? क्या प्रभाव 
                      पड़ेगा उन पर? क्या वह अपनी माँ से संबंध रखना पसंद करेंगे? 
                      क्या वह अपनी माँ के त्याग पर विचार करेंगे? इन संशयों के 
                      उभरते ही वह सहम गई। उसके मन में उठी गुदगुदी सिहरन में बदल 
                      गई। किंतु उसने निश्चय किया कि वह अपने मन की बात अपने 
                      पुत्र-बहू से अवश्य कहेगी। हनीमून से लौटने पर उचित 
                      अवसर देखकर पुत्र ने कहा, ''माँ! क्या बात है? जब से हम लोग 
                      बाहर से लौटे हैं... तुम्हें बराबर खोया-खोया-सा देख रहे 
                      हैं। यदि भूल हुई हो तो क्षमा करना।''''नहीं बेटा! तुम जैसे श्रवण पुत्र पर किस माँ को गर्व नहीं 
                      होगा?''
 ''तो अपनी परेशानी का कारण बताओ, माँ! तुम्हारी 
                      कसम...तुम्हारी खुशी के लिए मैं कुछ भी कर सकता हूँ। मैं 
                      जानता हूँ, तुमने मेरे लिए क्या कुछ नहीं किया। बताओ माँ।''
 ''बेटा! कहने से डरती हूँ।... मैं कहकर तुम्हें खोना नहीं 
                      चाहती।''
 ''तुम्हें मेरी कसम! अब कह भी डालो।''
 ''बेटा तुम अपने रवींद्र अंकल को तो जानते ही हो...''
 बात को बीच में ही काटकर, ''हाँ! जानता हूँ! सब जानता हूँ 
                      माँ। मैं अब बच्चा तो नहीं। तुम्हारे संघर्ष एवं त्याग ने तो 
                      मुझे समय से पूर्व ही सारी दुनियादारी सिखा दी है माँ।''
 ''..........''
 ''हाँ माँ! मैं आज रवींद्र अंकल से मिला था। तुम्हीरी बहू को 
                      भी मिलवा लाया हूँ। हम लोगों ने तुम्हारे और उनके संबंध में 
                      फाइनल बात कर ली है बस! तुम्हारी स्वीकृति की आवश्यकता है... 
                      जिस दिन चाहो कोर्ट में चलकर तुम दोनों भी...!''
 ''बेटा!''
 ''आश्चर्य न करो माँ।''
 माँ ने बेटे को चूम लिया।
 ३ मार्च २००८ |