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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
ध्रुव तांती की लघुकथा गणतंत्र का अट्टहास

सड़क पर ढोल ताशे की धमक। ध्वनि विस्तारक यंत्र से आती कान-फाड़ू आवाज़- ''ज़िंदाबाद- ज़िंदाबाद...जीत लिया जी, जीत लिया...हमारा नेता कैसा हो... कलानंद बाबू जैसा हो।'' आदि नारों के बीच कलानंद बाबू का चेहरा गरमी से लथपथ। आखिर यह विजयोत्सव है न। खुशी का इज़हार तो होना ही है। वर्षों की मेहनत रंग लाई है। इसी विजय श्री का सेहरा बँधने के लिए न जाने कितने दिनों से इंतज़ार कर रहे थे। अबीर-गुलाल से पुते और मालाओं से लदे मल्टीकलर चेहरा से भारतीय गणतंत्र की रंग-बिरंगी आभा फूट रही थी। यह बात दीगर है कि कभी-कभी चेहरे से बहुत सारे बदनुमा दाग़ भी उभर आते थे। पर किसे थी फ़ुर्सत देखने की?

इधर नारी के बीच कलानंद बाबू का चिंतन जारी है,''अभी तो मात्र एक प्रतिनिधि भर हैं। शीघ्र ही दिल्ली जाना पड़ेगा। लक्ष्य प्राप्ति के लिए अभी भी बहुत पापड़ बेलने हैं।'' पर वह आश्वस्त है,''अपने तिकड़म पर कि मंत्री पद तो पा ही लेगा। तभी ते जनता की कुछ सेवा कर पाएगा। सामान्य प्रतिनिधि भर रहने से तो अपना पेट भी भरना मुश्किल होता है। नहीं...नहीं, कोई जुगाड़ तो लगाना ही है।'' नारों के बीच कलानंद बाबू का दैदीप्यमान चेहरा खिल रहा है। कारवाँ की आवाज़ अब धीरे-धीरे दूर होती जा रही है।

दूसरी ओर रधिया अपने बेटे जोगिया की आहुति इस निर्वाचन महायज्ञ में दे चुकी है। श्लथ देह लिए घर में पड़ी है। उसके आँसू लाडले के लिए थम नहीं पाते। कितनी आशाएँ थीं कि एक दिन जोगिया वैधव्य बुढ़ापा का सहारा बनेगा। पर, जोगिया ने कलानंद बाबू के बुथ-लुटेरों से दो-दो हाथ करने में जान ही गँवा दी। फिर भी लोकतंत्र की अस्मिता कहाँ बच पाई? रधिया को सांत्वना के ढेर सारे शब्द तो मिले पर, राहत कहाँ मिली? वह आँसू बहाती सोच रही थी,''यह देश सचमुच महान है जहाँ जनतंत्र के हत्यारे की भी जय होती है।'' तभी विजयी कारवाँ की आवाज़ सुन उद्वेलित हो जाती है और खिड़की खोल देखती है तो लगता है कि उसका लाडला जनतंत्र की लाश अपने कंधे पर डाल आगे-आगे अट्टहास करते जा रहा है। वह एक चीख मार कर आँखें बंद कर लेती हैं। संभवतः सदा के लिए।

११ अगस्त २००८

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