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लघुकथाएं

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियोँ के अंतर्गत इस अंक में प्रस्तुत है सुभाष नीरव की लघुकथा - ” 'मकड़ी'

धिक बरस नहीं बीते जब बाज़ार ने खुद चलकर उसके द्वार पर दस्तक दी थी। चकाचौंध से भरपूर लुभावने बाज़ार को देखकर वह दंग रह गया था। अवश्य बाज़ार को कोई ग़लत-फहमी हुई होगी, जो वह ग़लत जगह पर आ गया - उसने सोचा था। 

उसने बाज़ार को समझाने की कोशिश की थी कि यह कोई रुपये-पैसे वाले अमीर व्यक्ति का घर नहीं, बल्कि एक ग़रीब बाबू का घर है, जहां हर महीने बंधी-बंधाई तनख्वाह आती है और बमुश्किल पूरा महीना खींच पाती है। इस पर बाज़ार ने हंसकर कहा था, "आप अपने आप को इतना हीन क्यों समझते हैं? इस बाज़ार पर जितना रुपये-पैसों वाले अमीर लोगों का हक है, उतना ही आपका भी? हम जो आपके लिए लाए हैं, उससे अमीर-गरीब का फर्क ही ख़त्म हो जाएगा।" 

बाज़ार ने जिस मोहित कर देने वाली मुस्कान में बात की थी, उसका असर इतनी तेज़ी से हुआ था कि वह बाज़ार की गिरफ्त में आने से स्वयं को बचा न सका था। अब उसकी जेब में सुनहरी कार्ड रहने लगा था। अकेले में उसे देख;-देखकर वह मुग्ध होता रहता। धीरे-धीरे उसमें आत्म-विश्वास पैदा हुआ। जिन वातानुकूलित चमचमाती दुकानों में घुसने का उसके अंदर साहस नहीं होता था, वह उनमें गर्दन ऊंची करके जाने लगा।

धीरे-धीरे घर का नक्शा बदलने लगा। सोफा, फ्रिज, रंगीन टी .वी .;, वाशिंग-मशीन आदि घर की शोभा बढ़ाने लगे। आस-पड़ोस और रिश्तेदारों में रुतबा बढ़ गया। घर में फोन की घंटियां बजने लगीं। हाथ में मोबाइल आ गया। कुछ ही समय बाद बाज़ार फिर उसके द्वार पर था। इस बार बाज़ार पहले से अधिक लुभावने रूप में था। मुफ्त कार्ड, अधिक लिमिट, साथ में बीमा दो लाख का। जब चाहे वक्त-बेवक्त ज़रूरत पड़ने पर ए .टी .एम .से कैश। किसी महाजन; दोस्त-यार, रिश्तेदार के आगे हाथ फैलाने की ज़रूरत नहीं।

इसी बीच पत्नी भंयकर रूप से बीमार पड़ गई थी। डॉक्टर ने ऑप्रेशन की सलाह दी थी और दस हज़ार का ख़र्चा बता दिया था। इतने रुपये कहां थे उसके पास? बंधे-बंधाये वेतन में से बमुश्किल गुज़ारा होता था। और अब तो बिलों का भुगतान भी हर माह करना पड़ता था। पर इलाज तो करवाना था। उसे चिंता सताने लगी थी। कैसे होगा? तभी, जेब मे रखे कार्ड उछलने लगे थे, जैसे कह रहे हों- हम हैं न! धन्य हो इस बाज़ार का! न किसी के पीछे मारे-मारे घूमने की ज़रूरत, न गिड़गिड़ाने की। ए.टी.एम.से रूपया निकलवाकर उसने पत्नी का ऑप्रेशन कराया था।

लेकिन, कुछ बरस पहले बहुत लुभावना लगने वाला बाज़ार अब उसे भयभीत करने लगा था। हर माह आने वाले बिलों का न्यूनतम चुकाने में ही उसकी आधी तनख्वाह खत्म हो जाती थी। इधर बच्चे बड़े हो रहे थे, उनकी पढ़ाई का खर्च बढ़ रहा था। हारी-बीमारी अलग थी। कोई चारा न देख, आफिस के बाद वह दो घंटे पार्ट टाइम करने लगा। पर इससे अधिक राहत न मिली। बिलों का न्यूनतम ही वह अदा कर पाता था। बकाया रकम और उस पर लगने वाले ब्याज ने उसका मानसिक चैन छीन लिया था। उसकी नींद गायब कर दी थी। रात में, बमुश्किल आंख लगती तो सपने में जाले ही जाले दिखाई देते जिनमें वह खुद को बुरी तरह फंसा हुआ पाता।

छुट्टी का दिन था और वह घर पर था। डोर-बैल बजी तो उसने उठकर दरवाज़ा खोला। एक सुंदर-सी बाला फिर एक नया बाज़ार लिए उसके सामने खड़ी थी, मोहक मुस्कान बिखेरती। उसने फटाक-से दरवाज़ा बंद कर दिया। उसकी सांसे तेज़ हो गई थीं जैसे बाहर कोई भयानक चीज़ देख ली हो। पत्नी ने पूछा, "क्या बात है? इतना घबरा क्यों गए? बाहर कौन है?"
"मकड़ी!"

1 अगस्त 2006

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