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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत इस अंक में प्रस्तुत है विनीता अग्रवाल की लघुकथा — पाषाण–पिंड

प्रियंवदा व्यस्त हथेलियों से बालों पर कंघी फेरते हुए अपने रत्न किरीट से दमकते मुख को पुनः देख मुस्कुरा दी थी। अहाॐ कितनी शुभ्र आकृति ……,इतने दिनों में कुछ अधिक ही उद्भासित हो उठी है। सुन्दर……अति सुन्दर…। उसके हृदय की अदम्य गहराईयों में आत्म प्रशंसा के स्वर स्वतः ही आपस में टकराकर अजीब सी ध्वनि की संरचना कर उठे थे।

जिस दिन से मध्यप्रदेश के 'बेटुल' नाम के छोटे से कस्बे से निकल, अपने पाँव दिल्ली महानगरी में रखे, उस दिन से आज तक उसकी जीवन दीर्घा में कितने परिवर्तन हुए, कितने कीर्तिमान स्थापित किये उसने, उनकी थाह वह स्वयं कैसे ले सकती थी। उसके पास रूप लावण्य की सम्पत्ति थी, साथ ही तीव्र बुद्धि की वह स्वामिनी भी थी। इन्जीनियरिंग कॉलेज में सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर लेने के बाद इस शहर में उस के लिये विशेष कुछ नहीं बचता था। सो उसने पग बढ़ा दिये थे उस ओर जिस दिशा में सभी भागे जाते थे। यह भी सत्य है कि अंततः, धन समृद्धि के प्रथम सोपान इस महानगर से ही प्रारम्भ होते हैं।

'मल्टीनेशनल' का 'क्रेज़' था सो नौकरी मिली, रहने को फ्लैट मिला, धन अर्जित कर घर की एक–एक ईंट को स्वर्ण कणों से जड़ डाला। वस्तुतः उसका सौन्दर्य मणिजटित अट्टालिका के प्रकाश के कारण अधिक दमकता था। वीज़ा का कार्य पूर्ण कर किसी सुदूर देश में बसने की इच्छा शेष थी। पूर्णता का एहसास प्रायः उसे झंकृत कर देता। वह उत्कृष्टता का प्रतीक, अहा …कितने सुन्दर भाग्य हैं उसके, कोई कमी शेष तो नहीं …? वह इम्पोर्टेड कार में तैरती सी अपने भीतर कुछ टटोल रही थी एक 'परफैक्शनिस्ट' की तरह।

स्वयं के लिये उसे एक उपनाम की आवश्यकता थी, जो उसके व्यक्तित्व और उपलब्धियों को उजागर करता हो ऐसा। कार एक हल्के झटके के साथ 'रैड लाइट' पर ठहर गई थी। उसने आलस्य से बाहर देखा था, जन समूह को अपनी उपस्थिति का आभास दिलाने का तुच्छ सा उपक्रम। सहसा अस्थिपंजर सी एक जीर्ण काया गाड़ी के शीशे पर प्रकट हुई। सत्तर अस्सी वर्ष का वृद्ध जिस पर परिजनों ने अपंग और निकम्मा होने का आरोप धर कर बाहर खदेडा. होगा, अपने लकड़ी से कन्धों पर टँगे शाक सब्ज़ी और परचून से भरे थैलों को बड़े ही कष्ट के साथ संभाल पा रहा था। उसकी बाँस जैसी कमज़ोर टाँगों का कम्पन देखकर ऐसा प्रतीत होता था मानो वह अब गिर पड़ेगा।

"बेटी दया कर बस में बिठा दो...मदद करो...मदद करो...।" वह अत्यन्त करूण स्वर में याचना कर रहा था। प्रियंवदा ने द्रवित हो कलाई घड़ी की ओर नज़र घुमाई, समय अधिक न था। अकेली बूढ़े को बिठा सकेगी वह...सांय–सांय भागती बसों की चिंघाड़ सुनने की और देह को शुष्क कर देने वाला धूल धुआँ पीने की शक्ति उस में है क्या...? वह तो बिल्कुल भूत बन जाएगी। ऊपर से स्वीडिश डेलिगेशन को सेमिनार देना है, प्रोजैक्ट सबमिशन है...लेट होना 'ऐर्फोड' कर सकेगी वह...कैसे होगा सब...कैसे...। वह आतंकित हो उठी थी ।

माथे पर उभर आई पसीने की बूँदों को पोंछते हुए उसने ऐक्सलरेटर पर पाँव जमाते हुए गाड़ी को तेजी से दौड़ा दिया। जिस उपनाम को वह अब तक खोजती रही थी वही अब उसके अपराधी हृदय में शूल बन चुभ रहा था 'पाषाण पिण्ड'।
 

९ नवंबर २००३

 
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