वह
अपने छोटे–छोटे हाथों से कचरा बीन रही थी। वह बहुत तेजी से
पॉलिथिन, प्लास्टिक के टूटे टुकड़े, कांच और चिनी मिट्टी की
टूटी फूटी चीजें और रद्दी कागज कचरे से बटोरकर बोरे में
भरती जा रही थी। उसके रूखे भूरे बाल उसके छोटे नाजुक कंधों
पर बिखरे थे और उसकी घिसी, मटमैली, टूटे बटनों वाली फ्राक
बार–बार उसके कंधों से गिर जाती थी, जिसे वह तेजी के साथ
कंधे पर चढ़ा लेती थी। उसके पैर फटे थे और उसकी सूखी काली
देह पर जगह–जगह खरोंच की सफेद लाइनें सी बनी थीं। दूर–दूर
तक कोई नहीं था और वह तपती धूप में अकेली अपने काम में
तल्लीन थी।
कचरा बटोरते–बटोरते उसे एक टूटी पेंसिल मिली। उसने पेंसिल
को अपने दातों से छीला और लगभग उसी स्टाइल में एक पत्थर पर
बैठ गयी, जिस तरह उस स्कूल के बच्चे क्लास में बेंचों पर
बैठते हैं। वह स्कूल उसकी माँ की झुग्गी से कुछ
दूर, सड़क के पार है। पहले
वह एक तुड़े मुड़े कागज को पेंसिल से गोदती रही, फिर कुछ
सोचने लगी...।
अगर वह भी सड़क के
पार वाले स्कूल जाती तो क्या–क्या होता? वह शायद क्लास की
उस बेंच पर बैठती जो खिड़की के पास है, और जिस पर बैठे
बच्चे सड़क से दीखते हैं, जिन्हें उसने कई बार देखा
है...हाँ ठीक वहीं पर...क्योंकि वहाँ से सड़क का नज़ारा भी
दीखता होगा। जब बरसात होती है, तो उस खिडकी से बच्चे अपना
हाथ बाहर निकाल देते हैं...और पानी की बूँदें उनके हाथों
पर गिरने लगती है...बच्चों में हाथ निकालने का होड सी हो
जाती है...वे सब हँसते चिल्लाते हुए पानी की बूँदों में
अपना हाथ घुमाते रहते हैं...छिः यह भी कोई खेल हुआ...उसे
तो बरसात से डर सा लगता है...जब वह कचरा बीनती है, तो
भगवान से मनाती रहती है कि कहीं बारिश न हो जाय...हे भगवान
पानी मत गिराना, वर्ना भीगते हुए, ठिठुरते हुए कचरा बीनना
पड़ेगा...। स्कूल के लड़के–लड़कियाँ तो बुद्धू है...उन्हें
शायद नहीं मालूम कि, कौन सी चीज अच्छी है और कौन सी चीज
खराब...अगर वह स्कूल जाती तो उनको यह सब बताती, क्योंकि वह
उन सबसे ज्यादा होशियार है...उसे यकीन सा है कि वह स्कूल
के बच्चों से ज्यादा होशियार है...बिल्कुल वह उनसे ज्यादा
होशियार है...अगर वह स्कूल जाती तो लड़के–लड़कियाँ इस मामले
में तो उसका रौब मान जाते...हाँ मान ही जाते, वह मनवा ही
लेती...। वह उन्हें बताती कि कागज़ों पर कैसे लिखना
चाहिए...और वह जो खेल है, जो वे स्कूल के मैदान में खेलते
हैं, गेंद को हाथों से उछाल–उछाल कर...सुंदर ने बताया था
उस खेल को बास्केटबॉल कहते हैं...वह खेलना चाहिए। ऐसा नहीं
है कि बच्चों की सब बातें खराब ही हैं...उस लड़कियों के एक
से सफेद रिबन और नीली ड्रेस अच्छी लगती है और हाँ उनकी
रंग–बिरंगी किताबें जिन्हें वे उलटते पलटते रहते हैं...जब
वे सब गाते हैं .. . .तब कितना अच्छा लगता है...। वह एक
बार स्कूल के पास तक
गई थी, सुंदर भी था...वे दोनों स्कूल की चारदीवारी के
जंगले से सटकर देर तक उन बच्चों को देखते रहे थे...।
वह देर तक सोचती रही। जब उसकी तंद्रा टूटी तब तक सूरज ढलने
लगा था। वह थोड़ा घबरा गई। पता नहीं वह क्या–क्या सोचने लगी
थी? कितना समय बरबाद हो गया। आज तो वह जरा सा काम भी नहीं
कर पाई। उसे लगा आज उसका बोरा आधा भी नहीं भर पायेगा। वह
जल्दी–जल्दी फिर से कचरे से चीजें बटोरकर बोरे में भरने
लगी। पर जल्द ही रात हो गई। उस रोज झुग्गी में जब उसकी माँ
ने उसका कम भरा बोरा देखा तो गुस्से से उबल पड़ी। माँ ने
उसे खूब डाँटा, उसे झुग्गी से बाहर कर दिया और खाना भी
नहीं दिया। अक्सर जब उसका बोरा कम भरा होता है, तब उसकी
माँ उसके साथ ऐसा ही बर्ताव करती है। देर रात जब उसकी माँ
सो गई तब वह चुपके से झुग्गी में सरक आई। झुग्गी में
लेटे–लेटे उस रात उसने अपने आप से एक वादा किया, कि अबसे
वह कचरा बीनते समय सड़क पार वाले स्कूल की बात नहीं सोचेगी।
९ जुलाई
२००३ |