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लघुकथाएँ

लघुकथाओं में महानगर की कहानियाँ के अंतर्गत
सूरज प्रकाश की लघुकथा- "बीच का रास्ता"।


"हाय, करूणा, आज कित्ते दिन बाद दिख रही है तू? मुझे लगा या तो नौकरी बदल ली तूने या ट्रेन?"
"कुछ नहीं बदला शुभदा, सब कुछ वही है, बस जरा होम फ्रंट पर जूझ रही थी, इसलिए रोज ही ये ट्रेन मिस हो जाती थी।"
"क्यों क्या हुआ? सब ठीक तो है ना?"
"वही सास ससुर का पुराना लफड़ा। होम टाउन में अच्छा खासा घर है। पूरी जिंदगी वहीं गुजारने के बाद वहाँ अब मन नहीं लगता सो चले आते हैं यहाँ। हम दोनों की मामूली सी नौकरी, छोटा सा फ्लैट और तीन बच्चे। मैं तो कंटाल जाती हूँ उनके आने से। समझ में नहीं आता क्या करूँ।"

"एक बात बता, तेरे ससुर क्या करते थे रिटायरमेंट से पहले?"
"सरकारी दफ्तर में स्टोरकीपर थे।"
"उनकी सेहत कैसी है?"
"ठीक ही है।"
"उन दोनों में से कोई बिस्तर पर तो नहीं है?"
"नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं है। बस, बुढ़ापे की परेशानियाँ है, बाकी तो...।"
"और तेरा सरकारी मकान है। तेरे ही नाम है ना...तेरे हस्बैंड की तो प्राइवेट नौकरी है . . . ?"
"हाँ है तो...।"
"और तेरे ससुर की पेंशन तो १५०० से ज्यादा ही होगी?"
"हाँ होगी कोई २३०० के करीब।"
"बिलकुल ठीक। और तू रोज रोज के यहाँ टिकने से बचना चाहती है?"
"चाहती तो हूँ, लेकिन मेरी चलती ही कहाँ है। घर में उनकी तरफदारी करने के लिए बैठा है ना श्रवण कुमार।"

"अब तेरी ही चलेगी। एक काम कर। अपने ऑफिस में एक गुमनाम शिकायत डलवा दे कि तेरे नॉन डिपेंडेंट सास ससुर बिना ऑफिस की परमिशन के तेरे घर में रह रहे हैं। तेरे ऑफिस वाले तुझे एक मेमो इश्यू कर देंगे, बस। सास ससुर के सामने रोने धोने का नाटक कर देना...कि किसी पड़ोसी ने शिकायत कर दी है। मैं क्या करूँ? ऐसी हालत में वे जायेंगे ही।"
"सच, क्या कोई ऐसा रूल है?"
"रूल है भी और नहीं भी। लेकिन इस मेमो से डर तो पैदा किया ही जा सकता है।"
"लेकिन शिकायत डालेगा कौन?"
"अरे, टाइप करके खुद ही डाल दे। कहे तो मैं ही डाल दूँ। मैंने भी अपने सास–ससुर से ऐसे ही छुटकारा पाया है।"

९ सितंबर २००२

 
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