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फरवरी
माह की उतरती सर्दी भरी रात है पर प्रकृति ने अपना प्रकोप
दिखला दिया मानो। पिछले कुछ दिनों से लगातार गिरते पानी व ठंडी
शीत लहरें असमय ही बढ़तीं जातीं हैं। दिन के साथ रात्रि कालिमा
और घने कोहरे, बर्फीली हवा बढ़ाकर वातावरण को चुनौती दे रहीं
हैं। कहीं रोशनी कहीं अंधेरा, कदमभर आगे भी हाथ को हाथ नहीं
सूझ रहा। चारों तरफ के पेड़ पौधों से टप टप पानी की बूँदे
टपकतीं। शहर की सड़कों पर छाया सन्नाटा भयावह लगता।
दूर तक
चारों ओर सुनसान, न कोई गाड़ी न इंसान। ओस से भीगती अँधेरी रात
में गीली सड़क पर दूर से कोई साया आता नजर आया। साधारण से
कपड़े पहन ऊपर से पुरानी सी शॉल ओढ़े सुक्खु है, अपनी धीमी चाल
से चलता जाता। पैरों की चप्पलों की अनजानी सी बोझिल आवाज
वातावरण में गूँजकर रहस्यमय प्रतीत होती। अपने से पूर्णतः
बेखबर वह गुमसुम सा खोया ठिठकता आगे बढ़ता जाता। मानो!
कड़कड़ाती ठंड का भी उस पर कोई असर नहीं है। उसकी चाल ही उसकी
परेशानी प्रकट करती है मौसम की खराबी के कारण उसे आज जिसकी
ज्यादा जरूरत है वह नहीं मिली है।
इन दुकानवालों को भी आज जाने क्या हुआ है, दुकान बंद कर के
बैठे हैं। सारी दुनिया का, अपना गम भुलाने की अचूक दवा उसे आज
नहीं मिली है। लाल कोठी के पीछे आउटहाउस में रहने वाला सुक्खु।
निर्माणाधीन बड़े बँगले बाहर टीन के शेड में चारों ओर से कच्ची
ईंटों को घेर कर बनाया गया है उसका कमरा। लकड़ी के तख्ते से
झाड़कर एक चरमराता सा दरवाजा लगा रखा है। कुल मिलाकर इतनी जगह
तो हो गई है कि कोने में खाना बनाने के बाद खाट लगाने के अलावा
थोड़ी सी खुली जगह भी हो गई है, वहीं उठो बैठो व बच्चे सुरक्षित
खेलते रहते हैं। सुक्खु दरवाजा हटाकर अंदर गया। उसकी ढीली सी
चारपाई पर करीने से बिछाई गई कथड़ी को पुराने मोटे चादर से ढका
देखा। जिसके सिरहाने पुराने कपड़ों की गठरी लगी हुई है। ओढ़ने
को बड़े साहब के यहाँ से दी गई पुरानी बड़ी रजाई नजर आई।
पहले
कमली पर नजर पड़ी, वहीं जमीन पर एक कोने में तीनों बच्चों को
जतन से संभालकर एक फटे कंबल से ओढ़ाकर सुला दिया था उसने। खुद
दीवाल से चिपककर फटी चादर को बोरी के टुकड़े से मिलाकर ठंड से
कुछ सिकुड़ कर लेटी दिखी। पत्नी के बगल में ही उसका पालतू
कुत्ता मोती भी एक नन्हे बच्चे की भाँति दुबका पड़ा था, उसे
देखकर चूँ तक नहीं की? अब उसे ढिबरी के हल्के उजाले में कमली
की फटी साड़ी से ढका मुँह नजर आ गया। चोटों के निशानों से पूरा
सूजा हुआ सा लगा। उसकी भोली सूरत पर दिखती विवशता मानो उसकी
पूरी कहानी कह रहे हों। उसका भोलापन देखकर उलझ गया वह, लगा
कितने दिनों बाद उसे देख रहा है।
समझ आया रोज इस समय तक होश में ही कहाँ रहता है, उसे कुछ भी
देखने समझने का। दिन भर जो कमाता शाम को उड़ा आता है ठेके पर
जाकर। दुख दर्द चिंता परेशानी सब गायब हो जाते हैं। बस! खाओ
पियो रहो सुख से। व्यर्थ में क्यों पचड़े में पड़े घर में आकर।
"कमरे को घर भी कमली ने बना रखा है", बहुत समय पश्चात उसको
दृष्टिभर उसने देखा शायद। विचलित होकर वह बेचैन सा होने लगा,
ओह ! ये क्या? उसका क्या योगदान है यहाँ ?
कहीं बैठता, पर मन अन्तर्द्वन्द से बिखरने लगा है। ये क्या
करने लगा है वो, ऐसा तो नहीं रहा कभी। माँ बाबूजी ने कितने लाड़
से उसका नाम "सुखदेव" रखा। उनकी आशा आकांक्षा बनी रही कि
जिंदगी में वो सबको अच्छे से रखेगा। दुखों की छाँह नहीं आने
देगा। अब जब से अम्मा बाबू गए, ये उसका परिवार अनचीन्हा हो चला
है। नहीं समझ पाता, कैसे वो अपनी राह से भटक गया व इतनी
दिक्कतों में स्वयं पड़कर इन सबको भी ले आया है। खटिया पर बैठकर
सोचने लगा घर का सबसे अच्छा बिस्तर तो कमली ने उसके लिये लगा
दिया है। बच्चों को सुला देने के बाद, पर उसके अपने लिये? रोज
दिन भर बड़ी मेमसाब की चाकरी करनी पड़ रही है, बच्चों की
जिम्मेदारी, रात में उसके लिये खाने सुविधा का इंतजाम करती
थकती नहीं है और उसका यह बेहाल। यहाँ तक ठीक है पर उस निरपराध पर उसकी अनचाही मारपीट। आराम के
नाम पर कोई शिकायत तक नहीं। ओह! कहे भी तो किस से कहे? भय ही
लगने लगा, उसे स्वयं से। पछताता, कितना संवेदनहीन हो गया है
वो, क्या इसी प्रकार परिवार को दुखी करता रहेगा?
अनुत्तरित प्रश्नों की झड़ी लग गई उसके समक्ष, खुद से मुँह
चुराने लगा।
तभी उसकी निगाह ऊपर टँगे खाने के छींके पर गई। तब उसने क्या
खाया होगा? सुबह ही तो राशन के लिये कहा था। अपने हाड़ मांस को
तोड़कर आजकल पेट भी वही भर रही है उन सबका। और वो अच्छा काम
मिलने का बहाना बनाके गलत आदतों साथियों से मन बहलाने लगा है।
पत्नी की बदरंगी चूड़ियों भरे खुरदरे हाथों को देख कर मन कलपकर
जाने कैसा हो गया? कितनी दुबली सूखी लग रही है उसकी कमली। "उसे
कहीं कुछ हो गया तो"? एक झुरझुरी सी उठ गई तन मन में, आगे
कल्पना भी नहीं कर सका वह।
हाँ, अपने आपसे वादा करता है कि अब चाहे जो हो वो अपने लोगों
को इस नरक से निकालने को जान लगा देगा। माँ बाबूजी का सुक्खू
सुखदेव ही बनने का प्रयास करेगा। उसकी नींद भूख प्यास सब गायब
हो गई। विचारों में भटक कर सुक्खु को अनायास याद हो आया वह दिन
जब उसे ब्याहकर शहर ले आया था वो।
गाँव से शहर आकर बहुत अच्छी नौकरी तो नहीं मिली। ज्यादा कुछ
नहीं रहता पर इतना तो कमा ही लेता कि सुख से दो वक्त की रोटी
खाकर थोड़ा बहुत बचा भी लेते। हाँ कितने खुश रहते थे दोनों ?
उसकी रंगीन चूड़ियों की खनखनाहट कितनी मनभावन लगा करती, थोड़े
से खर्चे में भी कितना बन सँवरकर रहती। घर को सँभालती, कुछ भी
कहने का मौका नहीं देती उसको ? दोनों भरपूर खर्चा करके कुछ
बचाकर घर भी भेजते। कभी सिनेमा, नौटंकी तो कभी मंदिर नियमित
जाते। तब तक उसके मित्र भी अच्छे बने रहे। सब मिलकर अक्सर
पिकनिक तो कभी चौपाटी का भरपूर आनंद लेते। पश्चात उसका घर
खुशियों से भर उठा, पहले रामी फिर लकी और अब कृष्णा के आने के
बाद कमली व्यस्त होती गई। पर कोरोना काल के बाद नौकरी छूटने से
उसके तो हाथ ही बँध गए पिछले वर्ष अपने गाँव भी जाकर देखा पर
वहाँ तो और आपाधापी मिली। सपरिवार फिर शहर लौटा तो रोजगार कौन
कहे, बड़ी मुश्किल से ये मजदूरी मिल रही है। वो भी जिस दिन न जा
पाए, पैसा नहीं। बस परिस्थितियों से घबराकर इस संगत में आन
पड़ा। आज भी अगर उसी हाल में होता तो शायद वही मारपीट झंझट करता
रहता। प्रभु को धन्यवाद देता है कि कम से कम इसी तरह सही आँखें
तो खुलीं ।
नहीं अब नहीं मन में दृढ़ निश्चयकरता है।
पर इतने संकटों पश्चात भी उसकी पत्नी कमली बिल्कुल नहीं टूटी।
उसके स्वभाव में कोई अंतर नहीं आया है। वह तो मानो और
जिम्मेदार बन गई है। उसकी दिनचर्या में भले ही बदलाव आया हो पर
स्वभाव सेवाभाव में नहीं। उनके सुख की खातिर वो कभी अनदेखा
नहीं करती। सबके लिये इतनी सजग सतर्क रहती है कोई शिकायत भी
कभी नहीं पर स्वयं के लिये इतनी उदासीन क्यों हो गई है।
वास्तविकता आज समझ आ रही है, कमली की गलती नहीं, वही इतना
ज्यादा लापरवाह हो गया है।
लेटा भी नहीं जा रहा है सुक्खु से ? चारों तरफ दृष्टि डाली तो
सब कुछ अनजान सा लगा। क्या अपने ही घर को नहीं पहचान पा रहा है
वो ? छत के टीन पर गिरती पानी की बूँदों की आवाज आई वो सन्न सा
रह गया। वहीं कपकपाती ठंडी हवा को रोकने को लगाई गई फटी चटाई
और प्लास्टिक के टुकड़ों को ठीक किया उसने। ओह! वो तो घर के
एक कोने में बच्चों के पास चूल्हे की गर्मी मौजूद थी वरन वो
इसे घर कैसे कहता ? वो तो खुद ही बिखेरता तोड़ता आया है। चैतन्य
होकर दुखी मन से शिथिल होकर लेट गया। विचारों के बवंडर में कब
झपकी लगी नहीं जान पाया।
अचानक कमली की नींद खुली, देखा उसने "अरे ये कब आए हैं, बिना
ओढ़े ही सो गए हैं ? कुछ खाना भी नहीं खाया है शायद!" अपने आप
से कहा उसने, "खाना तो खा लेते।" जोर से पुकारा पर जगाया नहीं
उसने। पैताने लगी रजाई हौले से उढ़ा दी। पति के पास छोटी को
धीरे से लिटा दिया और चुपचाप जाकर सो गई। सुक्खु की हल्की झपकी
भर लगी थी, नींद खुल गई पर कोई हरकत नहीं की। वह हिम्मत नहीं
जुटा पाया या स्वयं से आँखें चुराता रहा। जागकर भी चुपचाप लेटा
रहा। सारी रात आँखों में गुजर गई फिर नींद ही उचट गई।
इतनी ठंडी में भी सुबह पाँच बजे अँधेरे में उठकर कमली अपनी खटर
पटर में लग गई। कमरा साफ करके चूल्हा जलाकर कुछ चढ़ा दिया
उसने। खूँटी में टँगी साफ धोती लेकर बाहर हैण्डपंप पर नहाने को
चली गई। उसके जाते ही सुक्खु जल्दी से उठा। आज कुछ नयापन लगा,
नींद नहीं आने के बावजूद दिमाग हल्का और तरोताजा सा है। मन में
कितना कुछ उमड़ घुमड़ रहा है पर चुप है। मुँह धोकर निकलना चाहता
था कि उसकी कमली आ गई। जाने कहाँ से कप भर दूध लेती आई। चूल्हे
पर चाय चढ़ाकर उसके साथ कलेऊ को रात की रोटी निकालकर मनोयोग से
गर्म कर दी। सोचता है इतने संकट में भी हिम्मत बनाके रखी है,
उसको भी सहारा दे रही है। नीची नजरों से सुक्खु ने चाय के साथ
नमक रोटी के बड़े बड़े गस्से खाए और चल दिया। कमली दंग रह गई,
न रोज की तरह बातचीत, न मारपीट न प्यार गुस्सा। उसने सुराख से
रुपए भी नहीं उठाए जहाँ पर वह रोज उसके लिये कुछ रख दिया करती
थी ताकि उसे माँगना ना पड़े। एक शब्द भी नहीं कहा, चिंतित हो
उठी वो जाने क्या बात हुई है।
पति कब भड़क जाए उसका भरोसा नहीं। उसके गुस्से से वह नहीं डरती
बल्कि तरस आता है उसे। कितना तो हाड़ तोड़ता है दिन भर मजदूरी
करके कमाता है पर पूरा नहीं पड़ता तो वह भी क्या करें। अरे आज
तो बीड़ी भी नहीं सुलगाई ? न कोई मान मनुहार की। पति का उतरा
चेहरा देखकर वह दुःखी हो उठी। उसके द्वारा कल की मार, दर्द
भूलकर उसे रोकने, वह पीछे दौड़ पड़ी। पर बड़े बड़े डग भरकर वह
जाने कहाँ निकल गया।
सुक्खु अशांत मन से नए काम की तलाश में निकल पड़ा है, रोज की
तरह सुस्ती से काम नहीं चलेगा। आज उसे अपनों की पीड़ा का एहसास
बहुत तेजी से हो रहा है घर की जरूरतें, बच्चों की
जिम्मेदारियाँ, परिवार की साज सम्हाल। वो तो स्वयं से ही भागता
रहा है। पत्नी के निरंतर इतने ज्यादा थका देनेवाले काम, सबसे
बड़ी ग्लानि तो उसे "अपने व्यवहार" पर होने लगी। "उसकी गलत
आदतों को भी कितने जतन से कमली ने ढाँक रखा है।"
उसके खाने पीने को अलग कर दें तब भी कुंठाग्रस्त होकर बात बात
में हाथ उठाकर कितनी पीड़ा देता है वह उसको। इतना तो आसानी से
अभी भी कमा ही लेता है कि सब का पेट भर सके । बच्चों की शिक्षा
व पोषक भोजन सबका इंतजाम कर सकता है। जब तक पहले जैसा जीवन
व्यवस्थित न हो तब तक दोनों की कमाई से घर का खर्च मजे से चल
जाएगा।
बड़े ही जतन से उसने अपने काम को नए तरीके से करना शुरू कर
दिया। रोज शाम होते ही उसकी बेचैनी बढ़ती है कदम वहीं की ओर
मुड़ने लगते हैं, पर जाने कैसे वह वापस लौट आता है। अब उसका मन
ही नहीं होता वहाँ अंदर जाने का। आजकल सुक्खु के घर जल्दी आने
से कमली चिंतित हो उठती है। समझ नहीं पाती, क्या बात है। आजकल
ना कोई जोर जबरदस्ती होती, ना झगड़ा झंझट, न पैसों की तकरार, न
कोई फरमाइश नया खाना बनाने की। वह बहुत विस्मित चिंतित भी
अवश्य होती रहती।
इधर कुछ दिनों से न कदमों में लड़खडाहट है ना साथ में कोई संगी
साथी। कुछ दिनों से देख रही है आश्चर्य ! उसके बदले व्यवहार से
भी कुछ समझ नहीं पाती। वो भी उससे कुछ नहीं कहता। बस बच्चों को
लिये बैठा खिलाता रहता है, कभी उनके लिये खाने खेलने की चीज ले
आता है। ज्यादा ठंड होने से अपनी दुखती चोटों को जब वो सेकती
तो जाने कैसा टुकुर टुकुर देखता है। पर कमजोर नहीं बनना चाहती,
उसको काम पर तो जाना ही होगा सोचती। कैसा दंड दे रहा है भगवान?
पति की इस तरह चुप्पी देखकर कमली को बड़ी घबराहट होती। उसके इस
अनजाने व्यवहार ने उसे तोड़कर रख दिया।
"हे भगवान! जल्दी ठीक कर दो। पचास रुपए का प्रसाद चढ़ाऊँगी।"
मनौती माँग ली है कमली ने।
पंद्रह दिन बीत चले हैं पर न मौसम बदला है न सुक्खु, हाँ कमली
को जरूर चिंता ने बदल दिया है। इतना जरूर लगता कि वो बदल सा
गया है या कहें जिम्मेदार। अब एकदम तो बड़ा काम मिलने से रहा
प्रयास तो कर ही रहा है शायद।
उस शाम भी अपने पति का रास्ता देखते रात हो गई। बच्चे सो गए,
फिर थकी हुई चिंता में डूबी कमली की भी पलक झपक गई।
काँख में कोई गठरी नुमा चीज दबा रखी है, बड़े ही संभालकर यत्न
से पकड़ रखा है सुक्खु ने। मन की बात अभी तक वह प्रकट नहीं कर
पाया है पर अपनत्वता का सुख महसूस कर पा रहा है। फरवरी की
सर्दी भरी भीगी रात आज भी है, अँधेरी निशीथ में भी वह कैसे
अनोखे जोश से पग बढ़ाता आ रहा है। कितना बदलाव है उसकी जिंदगी
में, धीरे ही सही पर पंद्रह दिन पूर्व की उस रात और आज के इस
समय में। उस दिन का बोझिल दुखी सा अनमनापन व आज की चाल में
खुशी भरी तेजी अपनापन।
वह धीमे से खुद के घर में आया, पत्नी उसकी राह देखते बैठे-बैठे
सो गई है, गहरी नींद में है। कुछ ठिठुरी सिमटी सी, पास में
बच्चे सो रहे हैं कुनमुनाते से। सावधानी से साथ लाई पोटली को
प्यार से सहलाया। धीरे से खोला उसमें से एक मोटा "मिलिट्री
कंबल" निकाला उसने जो पिछले हफ्ते दस दिन की गाढ़ी कमाई को
जोड़कर पुराने कपड़ों के ढेर में से खरीदा था कमली के लिये।
धीरे से उसको व बच्चों को ओढ़ा दिया। उनकी गहरी नींद के इस सुखद
अहसास ने कैसी तो एक अनोखी पुलक से भर दिया उसको। उसमें भी
एकदम गर्मी सी आ गई मानो। चुपचाप देर तक देखता रहा वह उन सबको।
खूब सारा प्यार उमड़ आया मन में।
अभी पुराना है तो क्या हुआ अब वो नया भी लेकर आएगा। ठान लिया
है सही राह चलकर सबको सुखी करेगा। विवाह के कई दिनों बाद की यह
महत्वपूर्ण "अनोखी सौगात" देकर उसे कितनी सारी खुशी मिली है जो
जीवन भर की कमाई लुटाकर भी नहीं मिलती उसे लगा। इतने दिनों बाद
वह भी मीठी नींद के सपने देखता हुआ गहरी नींद के आगोश में
समा
गया, मोती को भी अपने पास में जगह दे दी।
कोई हल्की सी आहट से कमली की नींद खुली। बहुत अच्छा सा लगा
उठकर देखा, छूकर देखा, विश्वास ही नहीं हुआ। पलटकर पति को
देखा, गहरी नींद में सोता हुआ भी कैसा मुस्कुरा रहा है। समझ गई
वह सब कुछ, इतने दिनों का उसका वह अनमनापन व अजीब सा बर्ताव।
अपने "अनमोल कंबल" में समेट लिया उसने सबको। उसका "नन्हा सा
घोंसला" एक नई अनोखी खुशी से भर गया है।
नहीं, हारना नहीं है, जीत मिलेगी उनको।
विश्वास है उसे अपने पर और अपने स्नेही सुक्खु पर। उनका जीवन
सुखद बनेगा ही। |