लॉकडाउन
का कुछ दो-ढाई साल लम्बा दौर खत्म हो रहा था। कामकाज और
नौकरीपेशा जनता अपनी जन्मभूमि से कर्मभूमि में वापस लौटने की
तैयारी में मुँह लटकाए व्यस्त थी। ऋचा भी सामान बाँध चुकी थी,
बस खाने-पीने के सामान वाले बैग की जिम्मेदारी माँ की थी।
निकलने का वक्त हो गया था और इन्क्वायरी से पता भी हो गया था
की गाड़ी समय से चल रही और प्लेटफार्म नंबर दो पर आएगी सो खाने
का बैग भी अब बाहर लाकर रख लिया जाये, यह सोचकर ऋचा माँ को
पुकारती हुई रसोई की ओर तेज कदमों से चल पड़ी। माँ हड़बड़ी में
बैग उठाकर ला ही रही थी कि याद आया- ओहो! ऋचा जरा ठहर वो तेरा
चिकन वाला मसाला मैंने बनाकर रखा तो है पर बैग में डालना भूल
गयी। ऐसा कर तू ये बैग लेकर चल, मैं मसाले का डिब्बा लेकर आती
हूँ।
ऋचा माथा पीटकर हँसते हुए बोली माँ तुम और कुछ तो भूली नहीं और
चिकन का मसाला जो मैंने कम से कम सौ बार याद दिलाया होगा, वह
ही भूल गयी। वाह जी वाह!
माँ चिढ़कर बोली ज्यादा ताने कसने की जरूरत नहीं है। जा! अब कल
से माँ का मोल समझ आएगा। जब सुबह बनी-बनाई दालचीनी वाली चाय और
दिन के खाने में मसालेदार सूखी सब्जी तो रात के खाने में तीखी
तरी वाली सब्जी के साथ चावल बनाकर खिलाने वाला कोई न होगा तो
देखती हूँ कैसा लगता है! बड़ी आई!
ऋचा माँ को मुँह बिचकाते देख और खिलखिलाकर हँस पड़ी।
ऋचा बोली मैं ताना थोड़े ही कस रही थी माँ ! मैं तो बस कह रही
थी कि मैंने कितनी बार याद दिलाया था तुम्हे फिर भी तुम भूल
गयी। तुम तो जानती हो कि तुम्हारे हाथों के बने चिकन के अलावा
मैं कहीं भी चिकन नहीं खाती। अब अगर मसाला भी छूट जाता तो कुछ
नहीं तो अगले छः महीनों तक मुझे शाकाहारी बनकर जीना पड़ता। और
ऐसे जीने से तो अच्छा है...।
ऋचा ने कुछ नाटकीय अंदाज में कहा ही था कि तभी माँ ने सर पर
धीमे से हाँथ मारते हुए कहा अच्छा चुप! कुछ भी बोलती चली जाती
है। अभी गाड़ी पकड़नी है और जब देखो जबान से उलटी-सीधी बातें ही
निकालती रहती है यह लड़की।
सारा सामान ऑटो में लदवाकर ऋचा माँ का पैर छूने को हुई कि माँ
ने उसके हाथ रोककर उसे गले से लगा लिया। उसकी पीठ को सहलाते
हुए माँ ने कहा-खुश रह! अपना ख्याल रखना और जब भी पहली छुट्टी
मिले फ़ौरन घर आ जाना।
ऋचा को माँ की आवाज का कम्पन महसूस होते ही समझ आ गया था कि अब
जो गंगा माँ की आँखों से बहना शुरू हुई तो थमने का नाम नहीं
लेगी इसलिए उसने माँ को जोर से बाहों में जकड़ा और समझाते हुए
बोली- माँ ऐसा विदा करोगी तो सारे रास्ते रोते हुए जाऊँगी। तुम
क्या ये चाहती हो चलो मुस्कुराकर विदा लो ताकि मैं भी
निश्चिन्त मन से जा सकूँ। और मैं कौन सा शौक से रहती हूँ वहाँ,
छुट्टी मिलते ही भागूँगी और सीधा तेरे पास।
ऋचा को मुस्कुराता देख माँ भी मुस्कुराने लगी। भला उससे बेहतर
कौन समझ सकता था कि ऋचा की नौकरी ने ऋचा में जो आत्मविश्वास और
आत्मसम्मान जगाया था वह उन दोनों के लिए ही कितना अनमोल था।
अगली सुबह जब ऋचा अपने फ्लैट पर पहुँची तो सबकुछ अस्त-व्यस्त
और गन्दा पड़ा था। फ्लैट की यह हालत देखते ही उसे साफ-सुथरा घर
याद आने लगा। खैर! उसने जल्दी-जल्दी झाड़ू -पोंछा मारा और सामान
एक तरफ रखकर, जैसे -तैसे तैयार होकर ऑफिस निकल गयी। अगला एक
हफ्ता फ्लैट को व्यवस्थित करने और ऑफिस का रूटीन बनाने में
बीता। सोमवार से शुक्रवार आते-आते ऋचा को ऐसा लगने लगा जैसे वह
एक ही हफ्ते में बूढ़ी हो गयी है। थकान से सारा शरीर मुरझा गया
था। अब अगर उसे जिन्दगी से कुछ चाहिए था तो वो था माँ के हाथ
का चिकन और दिन भर की नींद।
शनिवार का दिन छुट्टी का था। ऋचा ने सोचा आज बस दोपहर को माँ
से पूछकर चिकन बना लूँगी और पेट भर कर खाने के बाद पूरा दिन
सोऊँगी। बस दिक्कत एक ही थी की चिकन खरीदने उसे खुद जाना था और
इसकी आदत उसे बिल्कुल थी नहीं। आते-जाते उसने देखा तो था कि
कुछ दूर पर एक गुमटी है जहाँ चिकन मिलता है, उसकी व्यवस्था तो
कुछ खास अच्छी नहीं पर जिस हिसाब से वहाँ लोगों की भीड़ दिखती
थी, उससे लगता था कि चिकन वह अच्छा देता होगा। ऋचा ने अपनी
सोसाइटी के लोगों को भी वहाँ से चिकन खरीदते देखा था तो बस तय
हो गया कि वह चिकन वहीं से ले आएगी।
पैर में चप्पल डाली और तड़तड़ सीढ़ियों से नीचे उतर आई। गुमटी तक
का रास्ता पैदल का ही था, धूप भी कुछ खास तेज नहीं थी सो वो
पैदल ही चल पड़ी। उसे दूर से ही गुमटी पर जबरदस्त भीड़ दिख रही
थी। शनिवार की वजह से हो सकता है और दिनों से ज्यादा भीड़ हो,
यह सोचती हुई ऋचा आगे बढती गयी। भीड़ को देखकर दिक्कत तो महसूस
कर रही थी वो, पर मन में एक संतुष्टि भी थी। बीते कुछ सालों
में जिस तरह से सरकार देश में परिवर्तन किये थे। ऋचा को तो
लगने लगा था की मांसाहारी होना भी जल्द देश में कानूनन अपराध
हो जायेगा और पकड़े जाने पर जेल हो जाया करेगी। ख्यालों में ही
खुद को हथकड़ी लगा देख वह ऐसी घबरायी की बस ध्यान टूट गया और
उसने देखा की कसाई उससे ही कह रहा है मैडम आप जरा किनारे हो कर
खड़ी हो जाइये। ऋचा उसकी तरफ गुस्से से देखकर बोली अरे क्यों,
आगे से पीछे क्यों हो जाऊँ? मुझे भी जल्दी है।
कसाई नौजवान लड़का था, नाम था राशिद, ऋचा की उम्र के आगे-पीछे
ही उसकी उम्र भी रही होगी। उसने ऋचा की ओर हैरानी से देखकर कुछ
समझाते हुए कहा मैं समझता हूँ। यहाँ तो हर एक को ही जल्दी है।
बस मुझे लगा की मर्दों की भीड़ में कहीं आपको धक्का-वक्का लग
जाये इसलिए कह रहा था। बाकी आपकी मर्जी।
ऋचा ने अपने आसपास देखा तो सचमुच मर्दों की भीड़ में वह अकेली
खड़ी थी। आज पहली बार तो वह कसाई की दुकान पर खुद मांस खरीदने
आई थी और वो भी ख्यालों में गुम। उसने ध्यान ही नहीं दिया कि
उसे कहाँ और कैसे खड़ा होना चाहिए। थोड़ा झेंपते हुए वह किनारे
हट गयी। राशिद ने उसके चेहरे की लाली लो देखते हुए कहा आप पीछे
की ओर बैठ जाइये। पाँच मिनट दीजिये मुझे। मैं निबटाकर आपको
बुलाता हूँ।
ऋचा ने हामी में हल्के से सर हिला दिया और पीछे की ओर चली गयी।
साड़ी पहने वहाँ एक और औरत बैठी थी। ऋचा को अपनी तरफ आते देखा
तो उसने अपना झुका हुआ सर उठाया। ऋचा जो उसे औरत जानकर एक ठंडी
साँस ले ही रही थी कि उसका चेहरा देख ठिठक गयी। वह औरत नहीं थी
बल्कि किन्नर थी। उसने ऋचा को आता देख मुस्कुराकर, अपने बगल की
जगह पर रखा झोला हटाकर ऋचा के बैठने के लिए जगह बना दी। ऋचा
थोड़ी असहज थी पर वह जाकर उस जगह पर बैठ गयी। कुछ सेकंड योंही
चुपचाप बैठे-बैठे बिताने के बाद ऋचा घड़ी में समय देखने लगी। वह
कुछ अनुमान लगा रही थी कि बगल से उसने कहा- अभी समय लगेगा।
आराम से बैठो आप।
ऋचा ने उसकी तरफ चौंककर देखा और असहजता के भाव से बोली- अरे
नही ! ठीक है। मैं तो बस योंही...
फिर उसने कहा- आपको पहली बार देख रही हूँ यहाँ। नयी हो?
ऋचा ने हाँ में सर हिलाया ऐसे, जैसे कि वह इस बातचीत में शामिल
नहीं होना चाहती।
ऋचा के भाव समझकर वह भी चुप हो गयी। थोड़ी देर बाद ऋचा को खुद
ही अपना व्यवहार अच्छा नहीं लगा। उसकी सोच कि वह है तो भेदभाव
से परे, फिर व्यवहार ऐसा क्यों? मन ही मन में यह सोचते हुए ऋचा
ने उसकी ओर देखकर नर्म शब्दों में पूछा- आप यहाँ अक्सर आती
हैं?
ऋचा को बात करते देखकर शायद उसे अच्छा लगा। उसने मुस्कान के
साथ कहा- हाँ! मैं तो आती-जाती रहती हूँ। असल में राशिद मेरा
चचेरा भाई भी है तो इसी बहाने मुलाक़ात भी हो जाती है।
यह बोलते-बोलते वह रुक गयी। उसे एहसास हुआ कि खुशी-खुशी में वह
कुछ ज्यादा ही बोल गई।
ऋचा ने पूछा- कौन?
वह बताना तो नहीं चाहती थी पर जब एक बार बात मुँह से निकल ही
गयी तो उसने सोचा बता ही देती हूँ।
राशिद अरे वही जो दुकान पर बैठा होगा। जिसने आपको इधर बैठने को
कहा होगा।
ऋचा ने कहा- अच्छा-अच्छा वो जो पीला
कुर्ता...
उसने कहा हाँ हाँ वही वही।
''वो आपके चचेरे भाई लगते हैं?''
''जी! मैं शबनम। वो मेरे चच्चा का लड़का
है।''
''ऋचा ने कहा अच्छा! मैं तो वैसे पहली
ही बार आ रही हूँ। पास में ही रहती हूँ। गुलमोहर सोसाइटी में।''
''वही न जो मोड़ पर है। सामने झरना है।''
''हाँ वही। उसी में रह रही हूँ। घर तो
दूसरे शहर में है। यहाँ तो बस नौकरी करती हूँ।''
''हाँ इधर ज्यादातर नौकरी वाले ही रहते
हैं। ये सामने वाले हाईवे पर आगे जाएँगी तो एक गाँव पड़ता है,
दाहिनी ओर। नाम का गाँव है बस, अब तो शहर में है तो गाँव जैसा
कुछ है नहीं। पतली सी सड़क नीचे उतरती है। मैं उधर ही रहती हूँ।''
''हाँ समझ गयी। उसी रास्ते से तो मैं
रोज ऑफिस जाती हूँ।''
''पहले तो इधर ही रहती थी। ये राशिद के
घर के बगल में ही घर था। बचपन इसके साथ ही बीता पर जवानी आते
आते अब्बू से मेरा हाल बर्दाश्त नहीं हुआ और उन्होंने घर से
निकाल दिया।''
ऋचा के मुँह से ओह निकल गया, पर शबनम अपनी बातों में ऐसे खोई
हुई थी कि उसने शायद वह ओह सुना ही नहीं और बस एक ओर नजर
टिकाये बोलती चली गयी।
''घर से निकाल क्या दिया! बेचारे वे भी
क्या करते? कब तक लोगों की कानाफूसी का जवाब अपनी खामोशी से
देते? अम्मी तो मेरी पैदाइश से ही जिद पर अड़ी थी कि ये कहीं
नहीं जायेगा। यहीं घर में रहेगा सारा वक्त। पर ऐसा होता है
क्या? कहीं न कहीं पता तो था ही कि जाना पड़ेगा।''
शबनम की आँखों में जो नमी अब तक लकीर की तरह दिख रही थी, धीरे
धीरे बाँध की तरह भारी होती जा रही थी।
अब तो एक अस्पताल में काम करती हूँ। अल्लाह की मेहर से प्यार
और इज्जत भी है !
वह आँखों में बाँध लिए ऋचा को ऐसे बता रही थी जैसे ऋचा उसकी
कामयाबी तोलने ही बैठी हो। जैसे ऋचा ऋचा नहीं बल्कि शबनम के
लिए वो शख्स हो, जिससे वह मन ही मन रोज ये बातें कहती हो पर
सामने से कभी कहने का मौका उसे न मिला हो।
बस माँ की बहुत याद आती है !
और आखिर उस शख्स का जिक्र आ गया, बाँध टूट गया।
ऋचा के हलक में सांत्वना आकर अटक गयी। उसके मन ने उसे शबनम के
कंधे पर हाथ रखने की इजाजत दे दी थी पर जाने क्या था जिसने
उसके हाथों को उनकी जगह पर ही जमा दिया था।
अटकते- अटकते बातों की दिशा थोड़ी बदलते हुए ऋचा ने कहा- सही कह
रहीं हैं आप ! माँ की याद तो मुझे भी बहुत आ रही है और उनके
हाथों का चिकन ! मैं क्या बताऊँ, अगर आप खा लें तो सारी दुनिया
का दुःख भूल जाएँ।
शबनम ने आँसू पोंछकर हैरानी से कहा- मतलब आप भी?
ऋचा कुछ समझ नहीं पायी- मतलब?
''मतलब आपको भी माँ के हाथ का बना
चिकन बहुत पसंद है?''
''आपको भी?''
''जी! बहुत ज्यादा! आज उसी के लिए यहाँ
आई भी हूँ।''
ऋचा ने मुस्कुराकर कहा- मैं भी!
और दोनों के मुँह से एक साथ निकला- पर...
दोनों ने एक दूसरे की ओर देखा।
दोनों के पास कुछ देर में चिकन तो होता, पर माँ?
बुरा बहुत लगता है। पर जब रहा नहीं जाता तो राशिद के हाथों
चिकन भेजवा देती हूँ और माँ अब्बू से छुप-छुपाकर उसे बनाकर
राशिद के हाथ से वापस भेजवा देती।
एक कौर मुँह में पड़ता नहीं कि सारा गम स्वाद में घुलकर सीधा
पेट में !
ऋचा कुछ उदास होते हुए बोली- मैं तो माँ से मसाला बनवाकर लायी
हूँ। उसी से काम चलाऊँगी। आप तो लकी हैं!
यह कहकर ऋचा ने हँसते हुए शबनम के कंधे पर हाथ रख दिया। जो भी
ताकत उसे ऐसा करने से रोक रही थी, ऋचा से उसे हरा दिया।
शबनम को ऋचा का यह कहना कुछ अलग-सा अच्छा लगा। लकी शब्द उसने
अपनी पूरी जिन्दगी में अपने लिए न सुना था, न महसूस किया था।
राशिद की आवाज आयी- मैडम ! आ जाइये।
ऋचा ने चलने के लिए उठते हुए कहा चलती हूँ मैं! आपसे मिलकर
अच्छा लगा! फिर मिलेंगे तो बताइयेगा अपनी माँ के हाथ के चिकन
का राज। मैं भी अपनी माँ से पूछकर रखूँगी, खास आपकी माँ के
लिए।
और हँसते हुए, पलट कर चल पड़ी।
शबनम वहीं बैठी थी, मुस्कुराते हुए जाती हुई ऋचा को देखे जा
रही थी। ऋचा ने उसके और उसकी माँ के बीच बुझ चुकी बातों की आग
में एक छोटी-सी चिंगारी छोड़ दी थी और वो चिंगारी थी माँ के
हाथों के चिकन का राज। |