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					 बीस 
					फरवरी को बटालियन की स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर जैसलमेर में 
					सेवानिवृत्त और सेवारत सैन्याधिकारियों, जेसीओ साहबानों, 
					जवानों और उनके परिवारों का महामिलन था। तीन दिन का बड़ा 
					व्यस्त कार्यक्रम था। चौथा दिन अतिथियों की अपनी स्वेच्छा का 
					दिन था। उनके मनोरंजन के लिये कई विकल्प थे। बस शाम को “डेजर्ट 
					नाइट” के लिये सब को रिसोर्ट पर पहुँचना था। 
 पाँच बजे सब डजर्टस्प्रिंग रिसोर्ट पहुँचे। चाय नाश्ते के बाद 
					सैण्ड ड्यून पर जाकर सूर्यास्त देखने का कार्यक्रम था। ऊँट की 
					सवारी करते ही राधिका को याद आया। एक बार उसने जनरल यज्ञेन्द्र 
					से मजाक में कहा था- “यज्ञेन्द्र! मैंने हाथी, घोड़ा, खच्चर, 
					इक्का, ताँगा, बैलगाडी, बुग्गी, रिक्शा, बस, रेल, हवाईजहाज, 
					हेलीकॉप्टर, पानी का जहाज आदि सब की सवारी कर ली पर ऊँट की 
					नहीं की।”
 
 तब यज्ञेन्द्र ने कहा था- “ऊँट की सवारी के लिये तो तुम्हें 
					राजस्थान चलना पड़ेगा, जहाँ तुम जाना नहीं चाहती हो।” राधिका 
					ने तब तड़फकर कहा था- “मरते दम तक राजस्थान में कदम नहीं 
					रखूँगी।” जनरल ने उसे समझाते हुए कहा था- “उस हादसे का बोझ कब 
					तक अपने सीने पर ढोती रहोगी। जो गुजर गया है, उसे गुजर जाने 
					दो।” किंचित रोष के साथ उसने पलटवार किया था-”यज्ञेन्द्र! 
					हादसा गुजर कर भी नहीं गुजरता, वहीं ठहरा रहता है।”
 
 बात को टालने के लिये जनरल यज्ञेन्द्र ने कहा- “अतीत नहीं 
					वर्तमान को देखो, बाकी तुम्हारी मर्जी।” राधिका का रिसता घाव 
					कभी सूखा नहीं था। उसका स्वर्णजयन्ती में भी आने का कोई इरादा 
					नहीं था। वह तो मिसेज जेपी ने बहुत जोर दिया- “राधिका! क्या 
					सुन रही हूँ कि तुम जैसलमेर नहीं आ रही हो। कमाल है! यूके से 
					कर्नल शेखावत, कनाडा से धालीवाल, अमेरिका से ब्रिगे.वर्मा, 
					ब्रिगे.प्रसाद आदि सपरिवार इतनी दूर से अपना समय और पैसा खर्च 
					करके हम सब से मिलने आ रहे हैं और तुम दिल्ली से नहीं आ रहीं 
					हो, गलत बात। मैं कुछ नहीं जानती, बस तुम आ रही हो।”
 
 दूसरी तरफ जनरल यज्ञेन्द्र का भी उस पर भावनात्मक दबाव पड़ा- 
					“राधिका! मैंने इस बटालियन को कमांड करते समय इसकी सिल्वर 
					जुबली सेलिब्रेट की थी, तब सब से वायदा किया था- "जिन्दा रहा 
					तो गोल्डन जुबली में जरूर मिलेंगे। मैं यह अवसर गवाँना नहीं 
					चाहता हूँ, पर तुम्हारे बिना अकेले जाना भी नहीं चाहता हूँ।”
 
 राधिका ने दुखी होकर कहा- “पर बीच में जोधपुर....।” बीच में ही 
					रोककर उसके कन्धें थपथपाते हुए यज्ञेन्द्र ने कहा था- “डियर 
					राधिका! हम सीधे जैसलमेर फ्लाइट से जायेंगे।” बड़े दर्द के साथ 
					उसने हामी भरी थी। यज्ञेन्द्र ने अपनी खुशी का इजहार एक 
					फ्लाइंग किस उसकी तरफ उछाल कर किया था। वह मन ही मन मुस्कुरा 
					पड़ी।
 
 ढलती शाम में मस्त बसन्ती हवा चल रही थी। ऊँटों और ऊँटगाडियों 
					का काफिला सैण्डड्यू की तरफ चल पड़ा। रेत के समुद्र में समाई 
					नीरवता ऊँटों के गले में बँधी घंटियों की रुनझुन से मुखरित और 
					बीच बीच में हिचकोले खाते हुए हँसी के आवरण में लिपटी हुई डर 
					की चींखों से गुंजायमान थी। वनस्पति विहीन मरुस्थल में जहाँ तक 
					नजर गयी, रेत के छोटे बड़े ऊँचे नीचे टिब्बे नजर आये। सोने सी 
					रेत के महासागर में हवा के बहाव ने लहरों का जाल बिछा दिया था। 
					दूर कहीं ऊँटों और इंसानों के पग चिह्न भी दिखाई दिये। सब से 
					ऊँचे टिब्बे पर कुर्सियाँ कतार से सजी हुई थीं। दो टिब्बों के 
					बीच समतल जगह पर ऊँटों के साथ उनके चालक विश्राम करने लगे।
 
 सूर्यदेव का संध्या सुंदरी से विदा लेने की बेला आ गयी। सब 
					चौकन्ने होकर बैठ गये। सूर्य अपनी सम्पूर्ण किरणों का जाल 
					खींचकर एक लाल बिम्ब में पूंजीभूत हो गया। लाल बिम्ब धीरे धीरे 
					आगे बढ़ने लगा। उसकी रक्तिम आभा चारों ओर फैलने लगी। सुरमई 
					बादलों के साथ मिलकर एक नये आलोक संसार की सृष्टि होने लगी। 
					दृष्टि पथ पर आने वाले आखिरी टिब्बे पर पहुँचकर वह धीरे धीरे 
					नीचे सरकने लगा। दिन भर साथ देने वाली किरणों का साथ छूट रहा 
					था। रक्ताभा पीताभा में परिवर्तित होने लगी। पलक झपकते ही 
					सूर्य टिब्बे के पीछे छिप गया। आकाश में लालिमा और धुंधुलके की 
					लुकाछिपी चलने लगी। इसी बीच न जाने कहाँ से काले बादलों के 
					झुण्ड आकाश में छा गये । ऊँट चालक तैयार होकर आवाज़ें देने लगे 
					- "साहब जी जल्दी पधारों घटा छा गयी है।” सब जल्दी जल्दी ऊँटों 
					की तरफ प्रस्थान करने लगे।
 
 हल्की पानी की फुहारें डालकर बादल हवा के साथ उड़ गये। सब 
					जल्दी से जल्दी रिसोर्ट से सटे टेंट विलेज में पहुँचना चाहते 
					थे, जिसमें आज रैनबसेरा था। अचानक मौसम के मिजाज़ बदलने से 
					डजर्टनाइट के लिये डर लगने लगा, कहीं प्रोग्राम कैन्सिल न हो 
					जाये। निर्दिष्ट टेंट के सामने जनरल यज्ञेन्द्र का सहायक 
					रघुपति उनकी प्रतीक्षा में खड़ा था। टेंट राजस्थानी शानशौकत से 
					सजा पाँच सितारा होटल का सूट जैसा था।
 
 मौसम की वजह से निर्धारित समय से एक घंटा विलम्ब से सब 
					राजस्थानी सांस्कृतिक कार्यक्रम देखने के लिये रिसोर्ट की छत 
					पर पहुँचे। सीढ़ियाँ चढ़ते हुए राधिका ने “मोहितक्वीन नाइट” के 
					बड़े बड़े पोस्टर देखे। मोहित नाम से कुछ बेचैन हो गयी। ऊपर 
					खुला परिसर था। आसमान में त्रयोदशी का चाँद निकल आया था। 
					बसन्ती बयार किंचित् आर्द्रता अपने में घोले धीरे-धीरे डोल रही 
					थी। दायीं तरफ अर्धचंद्राकार खुला स्टेज था। सामने थोड़ी जगह 
					छोड़कर सीटिंग अरेन्जमेंट था। बायीं तरफ डिनर का इन्तजाम था। 
					राधिका और जनरल यज्ञेन्द्र सामने ही जनरल शर्मा दम्पति के साथ 
					बैठ गये। ड्रिंक्स और स्नैक्स सर्व होने लगी। राधिका को थोड़ी 
					ठण्ड महसूस हुई, उसने चाय माँगी। थोड़ी देर में विश्वमोहनी का 
					रूप धारण किये मोहितक्वीन ने स्टेज पर आकर कार्यक्रम का आगाज़ 
					किया- “खमागनी, शुभसंध्या एण्ड गुड इवनिंग लेडीज़ एण्ड 
					जेटलमैन।” खनकदार आवाज़ पूरे परिवेश में गूँज उठी। ट्रूपे के 
					साथियों का परिचय देने के बाद “पधारो म्हारे देश”, “रंगीलो 
					राजस्थान” आदि से कार्यक्रम का शुभारम्भ हुआ।
 
 मोहितक्वीन में गजब की फुर्ती और लचक थी। नृत्य की भावभंगिमा व 
					अंग संचालन लास्यपूर्ण और सम्मोहक थे । राजस्थानी लोकनृत्य व 
					संगीत के साथ साथ दिल दहलाने वाले आग और तलवार के करतब दिखाकर 
					सबको चमत्कृत कर दिया। फिर अरजित सिंह के रोमांटिक 
					गानों– “ख़ामोशियाँ” और “है इज़ाजत तू भी कर ले 
					मौहब्बत” पर दिल छू लेने वाला नृत्य किया। राधिका अभी तक उसे 
					लड़की ही समझ रही थी। तभी वह धमाल मचाने के लिये अफसरों को नाम 
					से आमंत्रित करने लगी। लिस्ट उसके हाथ में थी। उसने जनरल शर्मा 
					का नाम पुकारा। शर्मा दम्पति के ग्रेसफुल डांस की राधिका सदैव 
					से प्रशंसक रही थी। वह तल्लीन होकर उन्हें थिरकते देखती रही। 
					तभी जनरल यज्ञेन्द्र का नाम उसने पुकारा, वह उठे नहीं, तो 
					मोहितक्वीन स्वयं आकर एक हाथ से राधिका और दूसरे से यज्ञेन्द्र 
					को खींचकर स्टेज पर ले आई। उसके हाथ के स्पर्श से राधिका को 
					जोर का करेन्ट लगा। वह गिरते गिरते बची। मन में बवन्डर सा उठा। 
					“सॉरी में इतनी तेज धुन पर डांस नहीं कर पाऊँगी।”
 
 एक्सक्यूज मी” -कहकर वह लौटने लगी। “नो मैम! प्लीज।” पता नहीं 
					उसकी आँखों में क्या देखकर उसके कदम वहीं रुक गये। कुछ ही पल 
					में स्लो गाना- “तुम जो मिल गये हो, जहाँ मिल गया है”-गूंज 
					उठा। मोहितक्वीन अपनी मर्जी से उसे घुमाती रही, राधिका 
					मोहाविष्ट सी उसके इशारे पर नाचती रही। बड़े ही रोमांटिक 
					अंदाज़ में मोहित क्वीन ने अपने एक हाथ से उसे थाम लिया और उस 
					पर झुक गई। लोगों ने सीटियाँ मारी” वंस मोर, वंस मोर” का शोर 
					गूँज उठा। वह झेंपकर अपनी सीट पर आकर बैठ गयी। धीरे धीरे सभी 
					यंग अफसर, लेडीज़ और बच्चे मोहितक्वीन के साथ स्टेज पर धमाल 
					मचाते रहे। शाम का मजा लेते रहे। डिनर का समय हो गया था। 
					मोहितक्वीन ने उद्घोषणा की -”आज का यह प्रोग्राम 
					सैन्याधिकारियों के सम्मान में हमारी तरफ से छोटी सी भेंट है। 
					शुभरात्रि, गुडनाइट कहकर वह अंधेरे में विलीन हो गयी।
 
 राधिका अपने अन्दर चलने वाले तूफान से निपट नहीं पा रही थी। 
					हाथ पसीने से तर थे। पता नहीं किस मोहवश उसने डिनर में सिर्फ 
					चावल और गट्टे की सब्जी खाई, जिससे उसे हाथ ना धोने पड़े। 
					रातभर करवटें बदलती रही। सुबह जल्दी उठ बैठी। हल्की हल्की ठंड 
					लगी। शॉल ऊपर डालकर वह टेंट से बाहर निकली। अनायास उसके कदम 
					रिसोर्ट की छत की तरफ बढ़ गये। पूरा रिसोर्ट नींद में 
					अलसाया-सा पड़ा था। मोहितक्वीन को वहाँ योगाभ्यास करते देखकर 
					उसे आश्चर्य हुआ। उसे देखकर उसने कहा-”गुडमॉर्निंग मैम।” 
					काँपते स्वर में उसने कहा- ''गुडमॉर्निंग मोहितक्वीन।'' मोहित 
					ने मुस्कराते हुए कहा- ''मैम!कल रात 
					वाली आपकी साड़ी बहुत ब्यूटीफुल थी।'' “थैक्स! पर इतनी भीड़ 
					में भी आपने मेरी साड़ी को नोटिस किया। कमाल है।''
 “उस जैसी साड़ी को अकसर सपने में देखा करता हूँ। एक धुंधला सा 
					बिम्ब उभरता है, जैसे कोई ट्यूलिप के फूलों को साड़ी पर पेंट 
					कर रहा हो। फिर सपना खो जाता है।''
 
 राधिका का कलेजा मुँह में आ गया। बैराया सा अतीत सामने खड़ा हो 
					गया। लगभग पच्चीस साल पहले बाडमेर में उसने इस साड़ी को खुद 
					पेंट किया था। पेंट कर रही थी । तब उसका बेटा -"मम्मी निन्ना, 
					निन्ना" कहता हुआ उसके गले में बाहें डालकर झूल गया था। हाथ 
					हिल जाने से एक फूल खराब भी हो गया था। इस बात और मोहित नाम की 
					समानता से उसके मन में उठने वाले सारे किन्तु परन्तु की शान्ति 
					के लिये मोहितक्वीन की तलहटी में जाना बहुत जरूरी हो गया था। 
					लेकिन अपने आप को संयमित करते हुए उसने कहा- “कल आपके शानदार 
					कार्यक्रम ने हम सब का दिल चुरा लिया। अगर आपके पास समय हो, तो 
					एक कप चाय साथ बैठकर पीते हैं।''
 “श्योर मैम! इधर आइये। यहाँ धूप देर से आती है। हल्की हल्की 
					ठंड के एहसास में गरम चाय का मज़ा ही कुछ और है''
					-कहकर वह चाय का आर्डर देने चला गया।
 चाय का कप हाथ में थामकर राधिका ने कहा- “अगर बुरा न लगे, तो 
					कुछ अपने बारे में बताओ।''
 
					
					मैम! हम तो परिवार से अस्वीकृत, ममता से वंचित, समाज से 
					तिरस्कृत, अंधेरों के पाले शापित जीव हैं।” राधिका ने हार नहीं मानी- “मैं ट्रांसजेन्डर पर एक बुक लिख रही 
					हूँ। सम्भवत: आपकी जानकारी से मुझे नयी दृष्टि मिल जाये। अपने 
					बचपन के बारे में कुछ बताओ।”
 मोहित ने उदास स्वर में कहा- “बचपन तो गुमनामी के अंधेरे में 
					दफन है। कभी कभी सपने में ट्यूलिप वाली साड़ी दिख जाती हैं। एक 
					लम्बी ट्रेन जर्नी की धुँधली-सी याद है। हमारे डिब्बे में फोन 
					लगा था। कारपेट बिछा था। पर बहुत सालों से वह सपना भी नहीं आया 
					है।”
 
					
					एक पल के लिये राधिका की आँखों के सामने अंधेरा-सा छा गया। 
					मुश्किल से उसने चाय का एक घूँट भरा, उसे याद आया-बंगलौर से वह 
					लोग बाडमेर स्पेशल मिलिट्री ट्रेन से आये थे। तब छोटे मोहित ने 
					कहा था- "यह छुक छुक बहुत अच्छी है। इसमें पर्दे हैं, फोन है, 
					घंटी बजाने पर आईसक्रीम भी आ जाती हैं। मम्मी हम हमेशा ऐसी ही 
					छुक छुक में जाया करेंगे।" राधिका का शक जैसे जैसे हकीकत में 
					बदल रहा था, उत्तेजना से उसकी साँसें तेज चलने लगी। किसी तरह 
					खांसी के बहाने पल्लू को मुँह पर लगाकर अपने को नियंत्रित 
					किया। फिर शांत होकर बोली-”पेरेन्ट्स के बारे में..?” “मैम! जब बहुत छोटा था, तब उनसे अलग हो गया था।”
 “पिता का नाम तो याद होगा?”
 थोड़ी तुर्शी के साथ उसने कहा- “उनका नाम क्यों याद रखता? बाबा 
					का नाम याद है, जिन्होंने मुझे सर्दियों की रात में, जोधपुर 
					स्टेशन पर पापा पापा कहकर रोते हुए को पुचकारा था- "रोओ नहीं 
					बेटा, पापा यहीं कहीं होंगे, अभी आ जायेंगे।" रात भर बाबा मुझे 
					गोद में लिये मेरे पापा का इन्तजार करते रहे। दूसरे दिन बाबा 
					की समझ में आ गया कि मैं जानबूझ कर त्यागा गया हूँ। मैं उनकी 
					सामाजिक प्रतिष्ठा पर बदनुमा दाग था। नि:संतान बाबा ने ही मुझे 
					पाला।”
 
 मोहित की आँखों में दर्द का हरहराता समुद्र देखकर उसने अपना 
					हाथ उसके हाथ पर रख दिया। मन के रेगिस्तान में बहती आँधी थम 
					गयी। भ्रम और धुंध के बादल छँटने लगे। मन ने मन को विश्वास 
					दिलाया - “यज्ञेन्द्र ने उस दिन सब झूठ बोला था।”
 अब उनके रचे नाटक पर से यवनिका गिर चुकी थी। एक एक दृश्य आँखों 
					के सामने जैसा का तैसा खड़ा हो गया। अचानक बाड़मेर से दिल्ली 
					जाने का प्रोग्राम यज्ञेन्द्र ने बना डाला था। ट्रेन जोधपुर 
					में डेढ़ घंटे के करीब रुकती थी। जैसलमेर से आने वाली ट्रेन के 
					कुछ डिब्बे दिल्ली के लिये इस ट्रेन में जुड़ते थे। मृणाल को 
					स्टेशन पर देखकर राधिका आश्चर्यचकित रह गयी थी, यज्ञेन्द्र ने 
					उसे नहीं बताया था कि मृणाल स्टेशन पर आयेंगी। खैर सुखद 
					अनुभूति के साथ सब ने डिब्बे के बाहर पड़ी बेंच पर बैठकर डिनर 
					लिया था। हँसी मजाक के खूब ठहाके लगे थे। एकाएक यज्ञेन्द्र ने 
					कहा था-
 “लगता है मोहित को नींद आ रही है, मैं इसे लेकर डिब्बे में 
					जाता हूँ।” सबको बाय बाय बोलकर वह डिब्बे के अन्दर चले गये थे। 
					ग्रीन सिग्नल होते ही राधिका भी ट्रेन में चढ़ गयी, वहीं 
					दरवाजे पर खड़ी होकर बातें करती रही।
 
					
					ट्रेन चलने पर वह कूपे में आई। मोहित और यज्ञेन्द्र को वहाँ न 
					देखकर थोड़ा असहज हुई, परन्तु चिन्तित नही- “बाप बेटे दोनों 
					साथ हैं, कोई मिल गया होगा।” ट्रेन ने स्पीड पकड़ ली। पंद्रह 
					मिनट बाद एक हाथ में जोधपुरी कचौड़ियों का डिब्बा पकड़े हाँफते 
					हुए यज्ञेन्द्र कूपे में दाखिल हुये। उनको अकेला देखकर राधिका चीख पड़ी- “मोहित कहाँ है?”
 अनजान बनते हुए यज्ञेन्द्र ने कहा- “मोहित को यहीं सुला कर मैं 
					कचौड़ियाँ लेने चला गया था। मम्मी को बहुत पसंद हैं। लौटा तो 
					ट्रेन चल पड़ी। किसी तरह पिछले डिब्बे में चढ़ पाया।”
 राधिका के तो प्राण सूख गये, रोते हुए बोली- “अब कहाँ उसे 
					खोजूँ? बताकर जाते या मृणाल से कह देते, उसका ड्राइवर ला 
					देता।”
 मासूम बनते हुए यज्ञेन्द्र ने कहा था- “खैर यह बात तो मेरे 
					दिमाग में आई नहीं। घबराओ नहीं, यहीं कहीं चला गया होगा।”
 
					
					उसने इन्टर कनेक्डेट डिब्बे की एक एक बर्थ छानमारी। मोहित 
					मोहित चिल्लाती हुई वह पागलों की तरह दौड़ती रही। मोहित किसी 
					को नहीं मिला। राधिका का रो रोकर बुरा हाल था। मेहतारोड स्टेशन 
					आने वाला था। यज्ञेन्द्र ने कहा- “तुम दिल्ली पहुँचो। मैं यहाँ 
					उतर कर बस या टैक्सी से जोधपुर जाता हूँ।” दिल्ली पहुँचकर 
					सामान की परवाह न करके उसने पूरी ट्रेन छानमारी। एनाउंस भी करा 
					दिया था। लेकिन उसके कलेजे का टुकड़ा नहीं मिला। तीन दिन बाद 
					यज्ञेन्द्र भी मुँह लटकाये लौट आये- “एफआईआर दर्ज करा दी है।”
 राधिका अतीत से बाहर निकली। यज्ञेन्द्र के झूठ और मक्कारी से 
					उसका मन कसैला हो गया था। संवाद को आगे जारी रखते हुए उसने 
					कहा- “आपके बाबा की बात सच हो सकती है। सामाजिक मान सम्मान और 
					प्रतिष्ठा के लिये लोग अपनी ममता का खून कर देते हैं। अच्छा 
					बचपन की कोई निशानी तो तुम्हारे पास होगी?” उसने अपनी टीशर्ट 
					से एक चेन निकालते हुए कहा- “मैम! यह लॉकेट बचपन से मेरे गले 
					में था। पहले काले धागे में था। अब मैंने चेन में डाल लिया 
					है।” लॉकेट देखकर वह सन्न रह गयी। यह लॉकेट तो उसकी माँ ने 
					मोहित के गले में उसके नामकरण के अवसर पर पहनाया था। कहा था- 
					“यह उज्जैन के महाकाल मन्दिर से रक्षा कवच लाई हूँ।”
 
 बर्फ की सिल्ली की तरह मन पिघला जा रहा था- कैसा गोल-मटोल 
					गोरा-चिट्टा, मासूम सा मोहित उसकी गोद में था। उसकी अधखुली 
					नीली आँखें, स्वनिल मुस्कान से खिलते होंठ सब कुछ उसे ममत्व के 
					सागर में आकंठ डूबो रहे थे। नारीत्व की पूर्णता की दमक उनके 
					माथे पर थी। परन्तु यज्ञेन्द्र का चेहरा मुरझाया हुआ था। उसने 
					राधिका का स्वप्न तोड़ दिया- “हमारा बेटा थर्ड जेन्डर है। ऐसे 
					बच्चों को किन्नर अपना हक समझकर छीनकर ले जाते हैं।”
 
					
					वह डर से कितना सहम गयी थी। खैर छावनी एरिया में होने के कारण 
					किन्नरों की टोली नाचने गाने के लिये नहीं आ सकती थी। इसलिये 
					थोड़ा आश्वस्त थी। फिर भी पास-पड़ोस, नाते रिश्तेदारों और 
					इष्ट-मित्रों से यह राज सात परतों में छिपाकर रखने का प्रण कर 
					रखा था। मोहित क्वीन ही उसके जिगर का टुकड़ा है, इसमें उसे कोई 
					संदेह नहीं रह गया। व्यथित ममता उसे गले लगाना चाह रही थी, 
					लेकिन “अभी थोड़े धैर्य की आवश्यकता है”- सोचकर बिल्कुल 
					सामान्य बनने का दिखावा करते हुए पूछा- “आगे का सफर कैसा रहा?”
					निर्विकार भाव से उसने कहा -"भिखारी अपनी थाली खुद नहीं परोस 
					सकता" सो कोई शिकायत नहीं। बाबा लोकगायक और नर्तक थे। अपनी 
					मंडली के साथ देशविदेश में कार्यक्रम करते थे। राष्टपति कलाम 
					साहब से सम्मानित थे। मैंने उनसे ही लोकनृत्य सीखा। बाबा के 
					साथ ही एक बार बम्बई शो करने गया। वहीं श्यामक डाबर जी से 
					मुलाकात हुई, मेरी परफॉमेंस उन्हें अच्छी लगी। कुछ दिन उनकी 
					एकेडमी में वेस्टर्न डांस सीखने का मौका मिला। उनके साथ भी शो 
					किये। देशविदेश घूमा।”
 
					
					राधिका ने जिज्ञासा बस पूछा- “फिर राजस्थान वापस क्यों आ गये।”“बाबा की तबियत खराब रहने लगी, उनके प्रति फर्ज खींच लाया। 
					जोधपुर में मेरी डांस एकेडमी है। देश विदेश में खूब शो करता 
					हूँ। खुश हूँ, संतुष्ट हूँ।” कुछ क्षणों के लिये राधिका मोहित 
					क्वीन को अपलक निहारती रही। धीरे धीरे मोहित का चेहरा एक शिशु 
					में परिवर्तित हो गया।
 नन्हें मोहित की बाल लीलाएँ उसके सामने जीवन्त हो उठी- “उसका 
					अँगूठा चूसना, घुटनों के बल चलना, डगमगाते पग, चलते चलते गिर 
					पड़ना, रोना, उसका दौड़कर गोद में उठाकर चूमना। धीरे धीरे बड़ा 
					होता मोहित-उसकी गोद में लेटना, मचलना, पीठ पर झूल जाना और वही 
					मोहित उसके सामने आज मोहितक्वीन बनकर बैठा था। मन में उठते 
					विचारों की गुल्थी कैसे सुलझाये? यही सोचने लगी, तभी 
					मोहितक्वीन ने टोका- “मैम आपकी चाय तो ठंडी हो गयी है। दूसरी 
					मँगाता हूँ-कहकर उसने किसी को आवाज़ लगाई।
 
 एक सच वह और जानना चाहती थी, इसलिये चाय के लिये मना नहीं 
					किया। लेकिन पूछने में संकोच लग रहा था, पर जानना जरूरी था- 
					“मोहितक्वीन ! अगर आपको बुरा न लगे तो सच सच बताना। आपके पिता 
					ने आपको स्टेशन पर बेसहारा छोड़ दिया, इस बात को सोचकर पिता के 
					प्रति घृणा नहीं हुई?”
 कुछ सोचते हुए बोला- “छोटा था, कुछ दिनों तक जिद्द करके रोता 
					रहा-"मम्मी पापा के पास जाना है।" फिर बाबा माई के पास रहना 
					मेरी मजबूरी बन गयी। समय के साथ मम्मी पापा की यादें धुंधली 
					पड़ गयी। बाबा माई मेरे माँबाप बन गये। बड़ा हुआ तो समझा में 
					आया कि परिवार ने हमें क्यों त्यागा है। अब नफरत या गुस्से का 
					कोई भाव नहीं है। सिर्फ सोचकर हँसी आती है समाज के दोगलेपन पर। 
					मेरे पिता भी उसी दोगले समाज का हिस्सा हैं। आप खुद सोचिये 
					समाज एक तरफ अर्ध नारीश्वर की पूजा करता है। गौडीय संप्रदाय तो 
					चैतन्य महाप्रभु में राधाकृष्णभाव को स्वीकार करता है। दूसरी 
					तरफ हाडमांस के साँस लेते पुरुष के शरीर में स्त्रीभाव को 
					शापित, तिरस्कृत और त्याज्य बना दिया है। हमें पैदा होते ही 
					छोड़ दिया जाता है गली कूचों में ताली बजाकर नाच गाकर भीख 
					माँगने और बधाइयाँ गाने के लिये तथा शरीफों की हवस मिटाने के 
					लिये। संविधान की कोई धारा हम तक नहीं पहुँचती है। मैं 
					भाग्यशाली था, जो मुझे देवदूत मिल गया, वर्ना किसी सिग्नल 
					चौराहे पर खड़ा आप लोगों की कारें थपथपा रहा होता।”
 
 यह सुनकर राधिका का हृदय काँप उठा। बेचैन होकर पूछा- “क्या आप 
					भी अरावन को अपना आराध्य मानकर कूवगाम विवाह रचाने गये हो?” 
					नहीं मैम! मैं व्यर्थ की परम्परों की भूल भुलैया में नहीं भटका 
					हूँ। हमने “अंधेरे से उजाले की ओर” एक फाउंडेशन बनाया है, 
					जिसमें कुछ मेरी जैसी सोच वाले किन्नर और प्रगतिशील विचार वाले 
					सामान्यजन सम्मिलित हैं। हम किन्नरों की शिक्षा और सम्मानित 
					जीवनयापन के लिये संघर्ष कर रहें हैं। अपने समाज को जगा रहा 
					हूँ।”
 राधिका ने खुशी जाहिर करते हुए कहा- “सुना है अब सरकार भी इस 
					तरफ ध्यान दे रही है।”
 “जी मैम! अंधेरे में कुछ किरणें चमकी हैं। लेकिन वह काफी नहीं 
					हैं। स्वर्ग तो अपने मरने पर मिलेगा। मैं अपनी आमदनी का पचास 
					प्रतिशत अपने फाउंडेशन को देता हूँ। बाकी लोग भी सहयोग करते 
					हैं। अभी पचास किन्नर बच्चे पढ़ रहे हैं। मैम मैं दोहरी लड़ाई 
					लड़ रहा हूँ अपने समाज और आपके सम्मानित समाज दोनों से।”
 इससे गर्वित होकर राधिका उसे गले लगाकर शाबासी देने के बहाने 
					बोली - “मुझे भी अपने फाउंडेशन से जोड़ लो।” मोहितक्वीन ने 
					कहा-- “मैम ! हम तो चाहते हैं, ज्यादा से ज्यादा पढ़े लिखे लोग 
					हमारे फाउंडेशन से जुड़े। हमारे समाज का मखौल न उड़ा कर उनकी 
					समस्या को समझें। मैं आपको अपना कार्ड दे दूँगा। उसमें आपको सब 
					लिंक मिल जायेंगे।”
 “ठीक है”- कहकर वह चली आई।
 
 यज्ञेन्द्र जाग चुके थे। उसे देखते ही पूछा- “कहाँ चली गयीं 
					थी?” राधिका की दबी पीड़ा और आक्रोश सुनामी की तरह फट पड़ा- 
					“यज्ञेन्द्र! आप झूठे हो। उस दिन दिसम्बर की ठंडी रात में 
					मोहित को स्टेशन के बाहर मरने के लिये आप छोड़ आये थे। इतने 
					क्रूर और नृशंस आप कैसे हो गये?” यज्ञेन्द्र ने अपनी रौबीली 
					आवाज़ में डपट कर कहा- “तमीज से बात करो। आस पास और भी लोग 
					हैं, चुप रहना ही बेहतर होगा।”
 “पच्चीस सालों से चुप ही तो हूँ, गीले बुरादे की तरह सुलग रही 
					हूँ। अन्दर ही अन्दर शक के दीमक ने मुझे खोखला कर दिया था। आप 
					मेहता रोड दिखावे के लिये उतरे थे, आप तीन दिन दिल्ली में 
					इंफेन्ट्रीहोस्टल में रहे थे। मैस बिल मेंने देख लिया था। पर 
					मेरी व्यथा-पीड़ा को आप क्यों समझते?”
 खिसियाकर जनरल यज्ञेन्द्र बोले- “तुम औरतें अपनी सोच पर ताला 
					जड़कर ममता के टेसुए बहाना जानती हो। कभी सोचा है कि अगर वह 
					हमारे साथ होता, तो मैं एक हिजड़े का बाप कहलाता। औरतों की तरह 
					हाथ मटकाता नाचता फिरता हमारी नाक कटवाता। हम लोगों के व्यंग्य 
					बाणों से कितना जलील होते? इसका अंदाज़ा है तुम्हें? और नेहा 
					का रिश्ता? एक हिजड़े की बहन का हाथ कौन इज्जतदार पकड़ता? उसे 
					लड़का बनाकर कब तक लोगों की आँखों में धूल झोंकती? इसलिये उसका 
					जाना ही सही था। मैंने तो जन्म के समय ही उसको उसके समुदाय को 
					सौंपने के लिये तुम्हें समझाया था, लेकिन तुम अड़ गयीं।”
 आज राधिका कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थी। बरसों का जमा गुबार 
					मचल पड़ा- “इसमें उस मासूम का क्या दोष था? आपने ईश्वरीय रचना 
					का अपमान किया। फिर मेरी कोख पर अधिकार मेरा था, आपने उसे 
					छीना, वह भी छल से।”
 
 “फिर मैं क्या करता?”
 एक लम्बा निश्वास लेकर राधिका ने कहा- “हम अपने बेटे को पढ़ने 
					लिखने का एक मौका दे सकते थे। अगर उसकी प्रवृत्ति नाचने गाने 
					में होती, तो हम उसे नृत्य की विधिवत शिक्षा दे सकते थे। वह भी 
					भविष्य में उदयशंकर, गोपीकृष्ण बनकर सम्मानित जीवन जी सकता 
					था।”
 हार कर यज्ञेन्द्र ने कहा- “तुम्हें कैसे समझाऊँ, उसके बर्थ 
					सर्टिफिकेट पर लगे थर्ड जेन्डर के ठप्पे से हर स्कूल में मेरी 
					खिल्ली उड़ती, ढिंढोरा पिट जाता- "मेजर यज्ञेन्द्र बहादुर का 
					बेटा हिजड़ा है, यह मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता था।”
 
 कुछ सोचकर राधिका ने कहा- “बुरा न मानना नपुंसक मेरा बेटा नहीं 
					था, नपुंसक आप थे, जो समाज का सामना करने की हिम्मत नहीं जुटा 
					सके। धिक्कार है आपकी बोनज़ाई सोच पर।” मेजर जनरल यज्ञेन्द्र 
					बहादूर का पौरुष चोट खाये साँप की तरह फुंकार उठा- “यू स्टूपिड 
					वुमेन ! अब एक शब्द भी आगे बोला तो अनर्थ हो जायेगा।” पर 
					राधिका रुकी नहीं- “जो अनर्थ आप कर चुके हैं, उससे बड़ा अनर्थ 
					अब क्या करोगे? अब ज्यादा से ज्यादा आपकी नपुंसक सोच मेरे ऊपर 
					हाथ उठाएगी या मुझे घर से बाहर निकाल देगी, जो करना चाहते हो, 
					कर लो स्वतंत्र....।” इससे पहले की राधिका अपनी बात पूरी करती 
					रघुपति ने आकर कहा- “मैडम जी, कोई आपसे मिलने आया।”
 
 बाहर मुस्कराता हुआ मोहित खड़ा था- “मैम! आपको अपना कार्ड देने 
					आया था। मोबाइल नम्बर, ईमेल और वेव साइट सब कुछ इसमें है।” उसे 
					लेते हुए राधिका ने कहा- “एक मिनट रुको।” वह अन्दर गयी, कुछ 
					देर बाद लौटकर एक पैकेट उसे पकड़ाते हुए बोली- “तुम्हारी 
					अमानत, तुम्हारा बचपन, सपनों वाली साड़ी अब हकीकत में छूकर 
					महसूस करना।” मोहित क्वीन ने झुकर उसके पैर छुए। व्यथित ममता 
					विवश हो गयी। उसने उसके दोनों हाथ चूमकर कहा- “बेटा अपने पिता 
					को माफ कर देना।”
 
 उसने भी राधिका के दोनों हाथों को सिर पर लगा कर कहा- “माँ! 
					मैं अपने पिता का नाम भूला नहीं था। देखते ही पहचान गया था।” 
					चीत्कार करने को आतुर पीड़ा ने उसे गले से चिपटा लिया- “बेटा! 
					वापस लौट आ।” पैर से जमीन खोदते हुए उसने कहा- “माँ! अब वापस 
					लौटना असम्भव है। अभी बाहर खड़ा था, पापा के शब्द कान में 
					पड़े। पिता से अस्वीकृत, त्याज्य, समाज से तिरस्कृत हम शापित 
					लोगों के लिये आपकी सम्मानित सभ्य दुनिया में कोई जगह नहीं 
					है।”
 अधीर ममता ने कहा- “क्या माँ की स्वीकृति का कोई मोल नही है?” 
					अवरुद्ध गले से बोला- “माँ! आपकी स्वीकृति मेरे लिये अनमोल है, 
					परन्तु मेरे लौटने से आपका जीवन तिनका तिनका बिखर जायेगा। ना 
					आपको खुशी मिलेगी और ना मेरा हासिल मुझे मिलेगा।”
 
					
					 हताश राधिका बोली-”क्या मैं जीवन भर तुम्हारे लिये कलपती 
					रहूँगी?” उसका कन्धा थपथपाता बोला- “नहीं माँ! फोन पर बात 
					करेंगे, वीडियों कॉल करेंगे। बस दुआ कीजियेगा कि समाज का 
					नजरिया शापित किन्नरों के प्रति बदले। हमे सिर्फ गा बजाकर भीख 
					माँगकर घृणित नारकीय जीवन जीने को विवश न होना पड़े। इंसान की 
					तरह पढ़ लिखकर सम्मानित जीवन जीने का संवैधानिक, पारिवारिक और 
					सामाजिक स्वीकृति मिले, जिससे हमारा किन्नर समाज अंधेरे से 
					उजाले की तरफ बढ़े।” यह कहकर वह चला गया। वह ठगी सी उसका जाना देखती रही।
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