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					कनुप्रिया अभी दस दिन पहले इस 
					अपार्टमेन्ट में आई थी। अभी उसका परिचय किसी से नहीं था। बस 
					हरीश भाई ने फ्लैट का सारा काम करा दिया था। फ्लैट तैयार होते 
					ही रहने आ गयी थी। नयी जगह में अपने को व्यवस्थित करने में वह 
					इतनी व्यस्त हो गयी कि उसे होली का ध्यान ही नहीं रहा। वह तो 
					कामवाली आया रामवती ने याद दिलाया- 'मैडम होली खेलने को कोई 
					पुरानी सफेद साड़ी दो। आप तो सफेद पहनती हैं।'हैरान होकर उसने पूछा- 'होली कब है?'
 रामवती मन ही मन हँसी- 'कैसी मैडम हैं?’
 फिर बड़ी उमंग से कहा- 'परसों है। 'साथ ही अल्टीमेटम देती हुई 
					बोली- 'परसों छुट्टी लूँगी।'
 
 आज होली थी। दूधवाले और कामवाली को आना नहीं था। देर तक 
					बेफिक्र सोती रही। आँख खुली तो घड़ी साढ़े नौ बजा रही थी। मन 
					में अपराध बोध लिये वह जल्दी जल्दी तैयार हो गयी। फिर सोचा उसे 
					जाना कहाँ है? फिर इतनी हड़बड़ी और अपराधबोध क्यों? होली खेलना 
					नहीं है। टीवी अभी लगा नहीं है। अतः बालकनी के झूले पर आकर 
					तसल्ली से बैठ गयी। सोचा कौन पकवान बनाने हैं, जब भूख लगेगी 
					पुलाव बना लेगी। काम खतम। पकवान से उसे माँ की याद आ गई। होली 
					से हफ्तों पहले माँ चिप्पस पापड़ बनाने शुरू कर देती थीं, फिर 
					नमकीन, शकरपारे आदि। गुझियों की बारी सबसे आखिर में आती थी। 
					माँ और भाभी उस दिन सुबह से ही लगी होती थीं और उसकी सब भाई 
					बहनों के साथ गुझियाँ तलने की खुशबू से लार टपकने लगती थी। माँ 
					होलिका दहन की गुझियाँ निकालकर फिर सबको खाने के लिये देती 
					थीं। माँ की गुझियों का जवाब नहीं था। कान्ता भी यही कहती थी- 
					'यार! तेरे घर की गुझियाँ खाये बगैर होली होली नहीं लगती। मुँह 
					में डालते ही पिघल जाती हैं। मिठास अन्दर तक सरकती जाती है। 
					खैर अब यह सब बातें गये वक्त की हैं।
 
 वह बालकनी से देख रही थी। फिज़ा में होली का सुरूर था। तैयारी 
					बड़ी धूमधाम से हो रही थी। सामने बड़े से लॉन में एक तरफ 
					कुर्सियाँ लगी थीं, बीच में प्लास्टिक की टेबल पर तश्तरियों 
					में गुलाल रखा था। साथ ही कुछ डिब्बे रखे थे। कनु ने अंदाज़ा 
					लगाया, शायद इसमें बाजार वाली गुझियाँ होंगी। होली का खुमार 
					अपने पूरे शबाब पर था। बड़े, बूढ़े, जवान, बच्चे, स्त्री-पुरुष 
					सभी होली की मस्ती में चूर थे। हुल्लड़ और धमाल चारों तरफ मचा 
					था। गुलाल के बादल उड़ रहे थे। उधर डीजे का शोर था। उस पर कुछ 
					लोग थिरक रहे थे। 'रंग बरसे भीगे चुनरवाली' पर सब जवान 
					लड़कियाँ अपने आप को रेखा और लड़के अभिताभ बच्चन समझ कर बिंदास 
					नाच रहे थे। छोटे बच्चे आपस में एक दूसरे पर रंग डालकर फिर एक 
					दूसरे से छिपते फिर रहे थे। बीच बीच में गुझियों पर भी हाथ साफ 
					कर लेते थे। कुछ थोड़े बड़े बच्चों ने पाइप डालकर सूखे 
					स्वीमिंग पूल को पानी से भर दिया था और अब उसमें मस्ती मार रहे 
					थे।
 
 कनुप्रिया ने वर्षों से होली खेली नहीं थी, इसका अभिप्राय यह 
					नहीं था कि उसने कभी होली खेली ही नहीं थी। अतीत की दीवार पर 
					चिपका होली का हर पोस्टर आज उसके सामने अपनी कहानी दोहराने के 
					लिये उतावला था। बहुत छोटी थी, तब मुहल्ले की होलिका कमेटी के 
					सदस्यों के साथ घर-घर होली का चंदा माँगने जाया करती थी। तब 
					उसे नहीं मालूम था कि इस चंदे का क्या होता है? बस चंदा माँगना 
					एक चलन था। वह भी पीछे लग लेती थी। फिर होली वाले दिन अपनी 
					छोटी सी पिचकारी लेकर इन्हीं छोटे बच्चों की तरह अपने हमउम्र 
					साथियों के साथ रंग खेला करती थी। इधर उधर भागती दौड़ती रहती 
					थी। किसी बड़े पर रंग डालने पर असीम खुशी का एहसास होता था। और 
					बड़ी हुई तो बाहर जाना बन्द, पर घर और स्कूल में होली खेलने को 
					कोई रोक नहीं पाया था। ख्यालों की दुनिया उसे दूर तक खींच लाई।
 
 कनुप्रिया यादों के साथ बहती जा रही थी। अतीत की दीवार पर 
					चिपके होली के अगले पोस्टर ने तो उसके जीवन की दिशा ही बदल दी। 
					रिसर्च का दूसरा साल चल रहा था। फेलोशिप भी मिल गयी थी। अचानक 
					पापा का ट्रांसफर जबलपुर हो गया। वह हॉस्टल में शिफ्ट हो गई। 
					रिसर्च करने वाली कई छात्राएँ हॉस्टल में रहती थी। अब उनके साथ 
					रोज-रोज आने-जाने, उठने-बैठने से मित्रता और प्रगाढ़ हो गयी। 
					किसी के घर से कोई मिलने आता, तो सबसे मिलता। खाने पीने की 
					चीजें आती, तो मिल बाँटकर खायी जाती। छोटा परिवार वृहत्तर 
					परिवार बनता जा रहा था। रिसर्च रूम सत्रह का माहौल भी बड़ा 
					अपनापन लिये था। सुबह से लेकर एक बजे तक कोई किसी को डिस्टर्ब 
					नहीं करता था। उसके बाद सब अपने केबिन से निकल कर रूम के 
					बीचो-बीच पड़ी मेज के चारों ओर लगी कुर्सियों पर आ बैठते थे। 
					कुछ गप्पें होती। एक दूसरे के सुख- दुःख बाँटे जाते। कुछ 
					साहित्य, दर्शन और इतिहास पर चर्चा होती। कभी विश्वविद्यालय की 
					विभागीय राजनीति पर बहस होती।
 
 गरमा गरम बहस के बीच अनुज कुमार के मजाकिया लतीफे माहौल को सरस 
					बना देते। सबका ध्यान बहस से हटकर लतीफों पर चला जाता। लतीफे 
					गढ़ने में उन्हें महारत हासिल थी। वे अकसर साढ़े बारह एक बजे 
					के तकरीबन आते। उनके आते ही रिसर्च रूम का मौसम बदल जाता। 
					थोड़ी गपशप के बाद सब साथ-साथ चाय पीने मिल्कबार की तरफ चल 
					पड़ते। उनका सुदर्शन व्यक्तित्व, सौम्य व्यवहार, हाजिर जवाबी 
					के कारण वे सबके बीच बहुत लोकप्रिय थे। कनु को इतने समय में 
					इतना ही पता चला था कि वह रिसर्च के पुराने खिलाड़ी हैं। छह 
					साल से शोध में लगे हैं। पर शोध की बैतारिणी पार नहीं कर पाये 
					हैं। त्रिशंकु की तरह लटके पड़े हैं। माधवी से पता चला कि अनुज 
					की थीसिस तैयार रखी है। गाइड महोदय ने लटका रखा है। गाइड बदल 
					नहीं सकते, विभागाध्यक्ष वही हैं। गाइड की प्राथमिकता में उनकी 
					प्रिय छात्राएँ हैं। अपने रिटायरमेन्ट से पहले कुसुम और आशा को 
					पीएचडी की डिग्री वे दिलाकर ही जाना चाहते हैं। इसलिये उनका 
					काम भी वे अनुज को सौंप देते हैं। अनुज इन लड़कियों के काम से 
					ही सारनाथ साँची, खजुराहो आदि जाता रहता है। इस बात की सच्चाई 
					का थोड़ा अनुभव अनुज की एक बात से कनुप्रिया को हो गया था।
 
 एक दिन अनुज ने रज्जो दी से कहा था- 'आज मेरा बॉस कुसुम की 
					थीसिस के रेफरेंस चैकिंग के लिये ब्रिटिश काउंसिल लाइब्रेरी 
					गया है। कितना रहम दिल है मेरा गाइड! लाइब्रेरी के ऊपर मेफेयर 
					पिक्चर हॉल और क्वालिटी रेस्तरां है। बॉस तो लंच कुसुम जी के 
					साथ कर लेंगे। मैं यहाँ आशा जी के लिये मैटर खोज रहा हूँ। आप 
					कम से कम मुझे चाय ही पिला दीजिये।'
 
 उनके कहने के अंदाज पर सब हँस पड़े थे। माधवी अकसर कहती- 'अनुज 
					जीनियस हैं, जिस दिन उनकी थीसिस डॉक्टर दीक्षित के चंगुल से 
					मुक्त होगी। अनुज इण्डिया में नहीं रहेंगे। डाक्टर वॉशम उन्हें 
					आस्ट्रेलिया बुला लेगे।' कुल मिलाकर अनुज कनुप्रिया को वे एक 
					आकर्षक रहस्यमय व्यक्तित्व लगे। कभी कभी उनके बारे में सब कुछ 
					जानने की बड़ी उत्कट इच्छा जागती। फिर वह अपने मन को झिड़क 
					देती- 'तुम्हें अनुज से क्या लेना देना है। अपना ध्यान थीसिस 
					पर केन्द्रित करो।'
 
 समय अपनी गति से भाग रहा था। ज्यादा तो नहीं पर एक दो बार अनुज 
					से उसकी बातचीत सांख्य दर्शन और कर्पूरमंजरी के रचयिता राज 
					शेखर के संबंध में हुई थी। उसे कोई संदर्भ चाहिये था। एक दिन 
					अचानक अपने केबिन के सामने अनुज को देखकर वह सपकपा गयी। पेन 
					बन्द करते हुए कुर्सी से खड़ी हो गयी।
 अनुज ने कहा- 'सॉरी आपको डिस्टर्ब किया।'
 'नहीं आज सोमवार है। मनकामेश्वर मन्दिर जाने के लिये उठने ही 
					वाली थी।'
 ‘आप कल्पना की सगाई में नहीं गयी?'
 'मुझे आउट ऑफ स्टेशन जाने की अनुमति नहीं है।'
 सम्भवतः कनुप्रिया की थाह लेने के लिये मुस्कुराकर उसने पूछा 
					था- ' आप का जाना घरवालों को कैसे पता चलेगा? आप जा सकती थीं।'
 कनु ने बेहिचक कहा था- ' पर अपराधबोध तो होगा। मैं अपने साथ 
					इतना बड़ा अन्याय नहीं कर सकती हूँ।'
 'पर चाय तो पिला सकती हैं।'
 वह मोहाविष्ट सी उसके साथ चल पड़ी थी।
 
 कनु को आश्चर्य हुआ कि चाय पीते समय अनुज उससे उसके बारे में 
					पूछता गया और वह भावावेश में अपना पूरा इतिहास भूगोल बताती गयी 
					और खुद उससे कुछ नहीं पूछ पायी। अनुज का सानिध्य उसे अच्छा लग 
					रहा था, क्यों लगा? यह वह समझ नहीं पाई। बस अच्छा लगा। हवाओं 
					में एक अलग तरह की खूशबू का अहसास और सारा माहौल खिला-खिला 
					लगा। वह चाय के साथ बही जा रही थी। किसी लड़के का यह पहला 
					निमंत्रण था, जिसे उसने स्वीकारा था। उसे वह अनुभूति कुछ अलग 
					लगी। वह अनुज के अनुरोध पर चाय का दूसरा कप भी पी सकती थी, पर 
					घड़ी पर नजर जाते ही उठ खड़ी हुई- ' मन्दिर जाना है।'
 अनुज ने कहा- ' चलिये मैं भी भोले बाबा के दर्शन करता हुआ उधर 
					से कालेज निकल जाऊँगा।
 
 मन्दिर में भोले नाथ के दर्शन के बाद दोनों बिना बोले रिक्शे 
					की तलाश में गोमती के किनारे चलते-चलते काफी दूर निकल आए। एक 
					जगह ठहर कर नदी का बहाव देखने लगे। कनु अपने बारे में तो सब 
					कुछ बता चुकी थी। अब बारी अनुज की थी। अनुज ने एक कंकड़ी नदी 
					में फेंकी, छोटा सा आवर्त्त उठा, कुछ पल में फिर पानी में 
					विलीन हो गया। दूसरी बार उसने कंकड़ फेंका। थोड़ा बड़ा आवर्त्त 
					उठा, पर वह ख़ामोश रहा। हमेशा हँसने और हँसाने वाले अनुज का यह 
					गम्भीर अवतार उसके लिये आठवाँ आश्चर्य था। कनु को लगा जैसे 
					अनुज आज किसी मानसिक ऊहापोह से गुजर रहे हैं या फ्रस्ट्रेशन के 
					दर्द के सैलाब का बहाव रोक नहीं पा रहे हैं। दर्द को शेयर करना 
					चाहते हैं, पर कर नहीं पा रहे हैं या करना नहीं चाहते हैं। इसी 
					कारण उदास और चुप हैं। यही सोचकर कनु ने कुछ पूछा नहीं। सामने 
					देखने लगी। अस्तांचल में सूर्य जाने की हड़बड़ी में था। संध्या 
					का रंगीन आँचल लहरा रहा था। कनु मुग्धभाव से सूर्यास्त देखते 
					हुए बोली- 'मुझे सूर्यास्त देखना अच्छा लगता है, पर देखकर उदास 
					हो जाती हूँ।'
 
 अनुज ने नदी में फिर कंकड़ी फेंकते हुए कहा- 'इस सूर्य का उदय 
					कल निश्चित है। किन्तु जिनके भाग्य का सूरज डूबा हो, वह क्या 
					करे?'
 कनु इशारा समझकर बोली- 'सुना है प्रत्येक व्यक्ति का सूर्योदय 
					जीवन के एक विशेष कालखण्ड में होने के लिये समय की मंजूषा में 
					सुरक्षित रहता है। बस इन्तजार करना पड़ता है।'
 व्यंग्य से उसने कहा- 'छह साल से इन्तजार ही तो कर रहा हूँ।'
 'वह समय शीघ्र आएगा, थोड़ा धीरज और'- कहकर वह उठ खड़ी हुई।
 अन्धेरा घिर आया था। अनुज ने हॉस्टल तक छोड़ने की पेशकश की, 
					लेकिन कनु ने कहा- 'आपको उलटा पड़ेगा। मैं रिक्शा लेकर चली 
					जाती हूँ।'
 
 अनुज के बारे में वह कभी-कभी काफी सोचती फिर उसे लगता वह तो 
					सभी का दोस्त है। अतः वह अपने मन को कसकर रखती। बहकने नहीं 
					देती। फिर भी उसका हृदय अनुज के प्रति कुछ अधिक संवेदनशील होता 
					जा रहा था। उसके बारे में सब कुछ जानने की उत्कट इच्छा थी। 
					परन्तु इसी बीच वह अपने शोध कार्य के लिये दो महीने 'भाण्डारकर 
					ओरियन्टल इंस्टीट्यूट' पूना चली गयी। लौटी तो होली आ गयी। 
					जबलपुर में परिवार के साथ होली मना कर लौटी। तब तक हॉस्टल की 
					सब सहेलियाँ भी वापस लौट आईं थी। माधवी की मौसी महानगर में 
					रहती थी। उन्होंने माधवी को उसकी दोस्तों के साथ घर पर बुलाया 
					था। बड़े दिनों के बाद सब एक साथ मौजमस्ती के लिये बन सँवर कर 
					जा रहीं थीं।
 
 वह संध्या बड़ी गुलाबी थी। मौसी के यहाँ पहले से मौजूद अनुज को 
					देखकर कनु चौंक गयी। अनुज की उपस्थिति में माहौल हास परिहास से 
					सराबोर था। कोई पढ़ाई लिखाई की बात नहीं थी। मौसी के अनुरोध पर 
					मधुलिका ने होली का एक लोक गीत गया- 'आज विरज में होलो रे 
					रसिया, उड़त गुलाल, लाल भए बादर, केसर रंग में बोरी रे रसिया' 
					माहौल जम गया था, सभी लोग गाने में साथ दे रहे थे। कल्पना को 
					चुपचाप देखकर मधुलिका ने उसे छेड़ता हुए दूसरा गीत गाया- 'मोरे 
					सैंया रिसाय गये होली मा'। सब कल्पना के पीछे पड़ गये- 'क्यों 
					कल्पना यहीं बात है ना।' कल्पना शरम से लाल हुई जा रही थी। 
					रज्जो दी ने हरिवंश राय बच्चन की एक कविता सुना दी- 'जो बीत 
					गयी सो बात गयी। 'सबको कुछ न कुछ सुनाना था। मौसी के बहुत 
					अनुरोध पर कनु ने भी एक कविता सुना दी- 'तुम्हारे मौन का मैं 
					अर्थ क्या समझूँ कि तुम पाषाण से भी बढ़ गये दो चार पग आगे।'
 
 'वाह! वाह! तुम तो बड़ी छुपी रुस्तम निकली'- कहकर सब उसके पीछे 
					पड़ गयी। अनुज की मुग्ध दृष्टि का सामना होते ही उसने नजरें 
					नीची कर ली थी। खाने पीने और हँसी ठट्ठे के बीच किसी का ध्यान 
					उसकी ओर गया नहीं। गुझियों के साथ मौसी की मटर कचौरी और दही 
					गुझियों का जवाब नहीं था। चलते समय सबने एक दूसरे को गुलाल का 
					टीका लगाया। 'मौसी आपके घर आकर बहुत अच्छा लगा', 'दही गुझिया 
					बहुत अच्छी लगी', थैंक्यू मौसी', 'तुम सब फिर आना' आदि वाक्य 
					हवा में लहराने लगे। देर हो रही थी, अतः सब धड़धड़ नीचे उतर 
					गयी, कनु की साड़ी के फॉल का कोई बेशरम धागा उसकी सैंडल के हुक 
					में फँस गया। वह सीढ़ियों पर रुक कर उसे निकालने लगी। तभी 
					अचानक लाइट चली गयी। उसी समय किसी ने उसके कानों के पास 
					फुसफुसाकर कहा- 'होली मुबारक और ढेर सारा गुलाल उसकी गर्दन और 
					पीठ पर डालकर सर से नीचे उतर गया। तभी लाइट आ गयी। सीढ़ियों के 
					अन्तिम छोर पर अनुज खड़ा था। इस अप्रत्याशित घटना से वह 
					हक्का-बक्का रह गयी। पर उसकी यह शरारत उसे अच्छी भी लगी।
 
 जल्दी जल्दी उसने गुलाल को झाड़ा फिर साड़ी से अच्छी तरह पीठ 
					को लपेट कर नीचे आई। उसका तन मन गुलालमय था। कई दिनों तक गुलाल 
					का नशा मन पर छाया रहा। चेत आने पर भावनाओं के दंगल में उलझ 
					गयी। अनुज की इस शरारत का क्या कोई अभिप्राय वह समझे? या उसने 
					सिर्फ और सिर्फ होली की शरारत की है। अथवा अपने मौन की रंगीन 
					अभिव्यक्ति कर दी है। फिर तो यह बड़ी प्यारी शरारत है। पर मन 
					बड़ा डाँवाडोल था। किसी नतीजे पर नहीं पहुँची थी। दिल किया 
					माधवी से इस घटना का जिक्र करे, वह माधवी का चचेरा भाई था। पर 
					संकोचवश पूछ नहीं पायी। धीरे धीरे सारे किन्तु परन्तु को दर 
					किनार करके वह गुलाल के नशे में डूबती गयी। पढ़ते पढते वह 
					स्वप्न बुनने लगी- 'खूब तेज बारिश के बाद मौसम थम-सा गया है। 
					वह अनुज की बाँह थामे चली चली जा रही है। सड़क किनारे छतरी के 
					नीचे चाय बेचने वाले से चाय लेकर वह दोनों चाय पी रहे हैं। 
					अचानक हल्की सी धूप झलकती है और आकाश में इन्द्रधनुष निकल आता 
					है। वह बच्चों की तरह उत्साहित होकर कहती है- 'अनुज जरा उधर 
					देखिये! कितना सुन्दर इन्द्रधनुष निकला है।'
					अनुज इन्द्रधनुष को देखकर शरारती नजरों से उसकी आँखों 
					में आँखें डालकर पूछता है 'क्या कोई इन्द्रधनुष तुम्हारे मन 
					में भी उगा है?' वह बैठी-बैठी शरमा 
					जाती।
 
 कभी बिस्तर पर लेटे लेटे सोचती- 'वह अनुज के साथ समुंदर किनारे 
					घूम रही है। दोनों ने मिलकर ढेर सारी सीपियाँ, कोरल और छोटे 
					छोटे शंख इकट्ठे किये हैं। वह रेत से घरौंदा बना रही है। 
					सीपियों से उसे सजा रही है। अनुज पेट के बल लेटकर कोहनियों पर 
					सिर टिकाये बड़ी तल्लीनता से सब देख रहा है। तभी हरहराती लहरें 
					आती हैं और उनको भीगो कर लौट जाती हैं, साथ में उसका घरौंदा भी 
					बहा ले जाती हैं। वह दोनों अपने आप को सुखाने के लिये थोड़ा 
					ऊपर सरक कर रेत की सूखी चादर पर लेट जाते हैं। वह अनुज की तरफ 
					देख कर कहती है- 'अनुज कुछ अपने बारे में बताओ, अपने सपनों के 
					बारे में बताओ। 'अनुज कहता- 'अपने बारे में क्या बताऊँ? यह ऊपर 
					आसमान में बादल का टुकड़ा देख रही हो, उसे खुद पता नहीं है कि 
					हवा उसे कहाँ ले जायेगी। वह कहीं ठहर कर बरस पायेगा या यों हि 
					आवारा फिरेगा।' कनु फिर सपनों की चहारदीवारी लाँघकर यथार्थ की 
					धरती पर कदम रखती। फिर सिर झटक कर कहती- पहले थीसिस बाद में और 
					कुछ।
 
 समय के साथ साथ सब की थीसिस पूरी होती गयी और परिन्दे उड़ते 
					गये। कल्पना की शादी हो गयी। माधवी ने बरेली में ज्वाइन कर 
					लिया। कनु वसन्ता कालेज बनारस आ गयी। रज्जो दी दिल्ली आ गयी। 
					मधुलिका सिंगापुर जा बसी अपने पति के साथ, रह गया अनुज। खतों 
					के माध्यम से उसका सम्पर्क अनुज के साथ था। लेकिन उसके खत बहुत 
					छोटे होते थे, जो वह पढ़ना चाहती थी, वैसा उनमें कुछ नहीं 
					मिलता। फिर वह सचमुच आस्ट्रेलिया चला गया। बीच में कुछ महीने 
					तो कोई खत ही नहीं आया। हाँ अनुज ने थीसिस जमा करने के बाद 
					जरूर एक खत बड़ा भावुक लिखा था- 'आज थीसिस जमा करने के बाद 
					सबसे पहला पत्र तुमको लिखा है। जानता हूँ मेरी थीसिस पूरी होने 
					की सबसे ज्यादा खुशी तुमको होगी।'
 
 बस कनु ने इसी वाक्य का छोर पकड़ कर एक अनकहे रिश्ते में अपने 
					को बाँध लिया। सोचने लगी कि अब तो वह बता सकता है कि कब 
					बरसेगा? पर अनुज की खामोशी से कनु अपने जीवन की दिशा निश्चित 
					नहीं कर पा रही थी। शादी न करने के ऐलान से नाराज घरवालों से 
					वह अलग थलग हो गयी थी। बस उसी होली के रंग में रंगी रही। उसके 
					बाद उसने कभी भूले से भी गुलाल का स्पर्श नहीं किया। हर किसी 
					से यही कहा- रंगों से उसे एलर्जी है। भयानक दाने निकल आते हैं। 
					लोगों को तो उसने बहला दिया लेकिन खुद अकेले में सोचती थी। 
					जरूर उसे कोई गलतफहमी हुई है। अगर अनुज के अन्दर कोई कोमल 
					रागात्मक भावना उसके लिये होती, तो वह लेक्चररशिप मिलते ही उसे 
					प्रपोज करता। लेकिन वह तो अपने शोध पत्रों और प्रकाशित होने 
					वाली पुस्तकों और अपने अन्तरराष्ट्रीय सेमिनारों की चर्चा करता 
					रहा।
 
 कनु कभी अपनी मूर्खता पर हँसती- 'अरे! उसने तो बुरा न मानों 
					होली वाले अंदाज में छोटी सी शरारत की और उसने शरारत को अपने 
					इक तरफा प्यार की स्वीकृति समझ लिया। अनुज ने उसमें मित्र भाव 
					देखा होगा और उसने क्या क्या सपने देख डालेऔर उसके इन्तजार में 
					वर्षो से अपने को रंगों से दूर रखा। बड़ी बेरंग जिन्दगी जीती 
					रही। फिर उसके अन्दर से कोई आवाज़ आती- ' नहीं! अनुज अभी अपनी 
					काबिलयत को उन लोगों के सामने प्रमाणित कर रहा है, जो उसपर 
					व्यंग्य कसकर उसका मजाक उड़ाते थे। समय मिलने पर वह जरूर आएगा। 
					मन को समझाने के सौ तरीके उसने खुद तलाश लिये थे। वह बिना शर्त 
					राधा की तरह उसका इन्तजार कर रही थी।
  
					उसने बालकनी से नीचे झाँका- 
					उम्रदराज महिलाओं को भी लड़कियाँ खींच-खींच कर डांस के लिये ले 
					जा रही थी। सब बिंदास होकर नाच रही थीं। सभी कितने खुश थे और 
					वह हमेशा की तरह उदास। तभी दरवाजे की घंटी बजी। उसने डरते-डरते 
					थोड़ा सा दरवाजा खोला कहीं कोई रंग न डाल दे। तभी शरारत में 
					डूबी वही चिर-परिचित आवाज आयी, जिसको सुनने के लिये उसके कान 
					तरस रहे थे- 'होली मुबारक' जब तक वह कुछ कहती अनुज ने उसे 
					बाँहों में भरकर गुलाल से लाल कर दिया। |