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					 कई दिन ऐसे 
					बीतते हैं जैसे कि एक दिन में सैकड़ों जिंदगियाँ जी आए हैं, 
					लेकिन फिर भी कोई एक काम रह जाता है अधूरा और वह भी ऐसा जिसे 
					आप सबसे ज्यादा मन से करना चाह रहे थे। सुबह उठते ही जिसे सोचा 
					लेकिन वही नहीं हो पाता। 
 पिछले दो दिन से वह उर्मिला काकी से मिलने और उन्हें विद्यालय 
					के नववर्ष के उत्सव का निमंत्रण देने जाने की सोच रही थी लेकिन 
					उत्सव की जोर-शोर से चलती तैयारियों, छात्रों और शिक्षकों के 
					उत्साह में कदम मिलाते बस वही एक काम था जो रहे जा रहा था, 
					क्योंकि वह उसे स्वयं ही करना था। यह वह किसी और को सौंपना 
					नहीं चाहती थी। आज स्कूल से दृढ़ निश्चय करके निकली थी कि उनके 
					घर से होते हुए ही जाएगी। उर्मिला काकी से मिलने का और उनके 
					पैर छूकर उनसे आशीर्वाद लेने का एक भी अवसर वह जाने नहीं देना 
					चाहती थी। एक वही तो थीं जिन्होंने उसकी डगमगाती हुई नौका को 
					स्थिर किया था। अपितु ऐसा माहौल भी बना दिया था जिसमें रास्ते 
					आगे स्वयं ही खुलते चले गए। पिछले कुछ समय से बढ़ती उम्र और 
					गिरते स्वास्थ्य ने उनका घर से निकलना काफी कम कर दिया था। 
					पहले वह अक्सर स्कूल आ जाया करती थीं, लेकिन जब से उनका निकलना 
					कम हुआ वह खुद ही जाकर मिल आती थी उनसे। उनके पास बैठना उसके 
					जीवन का सबसे बड़ा सुख था।
 निकलने को ही 
					थी तो सांस्कृतिक विभाग के अध्यक्ष नववर्ष पर प्रस्तुत किए 
					जाने वाले कार्यक्रमों की रूपरेखा ले कर आ गए। उनका कार्यक्रम 
					स्वीकृत कर वह जल्दी से निकल गई। यों तो काकी का घर थोड़ा दूर 
					था लेकिन आम के बाग से हो कर जाने से रास्ता छोटा पड़ता था, 
					उसने वहीं से जाने का निश्चय किया। शांत कच्चे रास्ते पर चलते 
					उसका मन बरसों पहले के रास्ते पर जा पहुँचा, उस रास्ते पर जिस 
					से होकर वह इस गाँव में आई थी...
 वह मुख्य राजमार्ग से उतरती एक कच्ची सड़क थी जिस पर चलकर कोई 
					बीस किलोमीटर के बाद उस गाँव की हद शुरू होती थी और लगभग १५ 
					किलोमीटर फैले सुंदर, लहलहाते खेतों के बाद आता था यह गाँव, 
					साफ सुथरा, छोटी-छोटी गलियाँ, गलियों पर खुलते सुघड़ता से लिपे 
					चबूतरे जिन पर बान की खाट पड़ी होती थी। घर के बड़े-बुज़ुर्गों 
					का विश्राम व मनोरंजन स्थल जहाँ वह सिर्फ विश्राम ही नहीं 
					करते, घर की चौकसी में भी सजग रहते। हुक्का गुड़गुड़ाते 
					बुजुर्ग, दोपहर के भोजन के बाद आलस से सिंझे, ऊँघते बुजुर्ग, 
					अपनी बूढ़ी को आवाज लगाते बुज़ुर्ग.... “अरीssss ......... की 
					अम्मा लोटा भरवाए दीजो पानी का”। और हबड़-तबड़ आती एक बुजुर्ग 
					महिला पानी का लोटा बदल जाती। गाँव की इन सभी बुजुर्ग महिलाओं 
					की जिंदगी बीत जाने पर भी अपने पति का भय कम नहीं हुआ था। यही 
					बुजुर्ग शाम को चौपाल पर जा बैठते, दुनिया की खबरें सरपंच के 
					बिना बिजली के रेडियो पर सुनते।
 
 बिजली उस गाँव में तब तक आई ही नहीं थी। ना खंभे थे ना सिर पर 
					लटकती तारें और ना टेलीविजन की चिल्ल-पौं। सुबह होती पक्षियों 
					के कलरव से, घी निकालने के लिए दही बिलोने की आवाजों से, 
					मंद-मंद गुनगुनाए जा रहे भजनों से और कुछ घंटों बाद गाँव के 
					बीचों बीच स्थित पाठशाला में रटाए जा रहे पहाड़ों की आवाज से। 
					दो-एकम-दो, दो-दूनी-चार, दो-तिए-छः, दो-चौक-आठ… बीच-बीच में 
					गाय रंभा जाती, कभी कौवा किसी मुंडेर पर बैठकर शोर मचाता और घर 
					के लोग इंतजार में लग जाते पाहुन के आने की। पाहुन वहाँ 
					चिट्ठी-तार से खबर देकर नहीं, बस यों ही आ जाते थे।
 
 वो सरपंच की बहू बनकर उस गाँव में गई थी। पढ़ी-लिखी संस्कृत 
					में एम.ए. और बी-एड। उसका जन्म कस्बे में हुआ था, वहीं 
					पली-बढ़ी। गाँव की जिंदगी, गाय-गोरू, चूल्हे की आदत न थी। उसके 
					घर में सब कमरों के पक्के फर्श थे। लाल सीमेंट वाले, जिसके बीच 
					में सफेद संगमरमर में बनी ज्यामितीय आकृतियाँ उसे बहुत पसंद 
					थीं। उसे कच्चे घर-आँगन को गोबर से लीपने का अनुभव नहीं हुआ 
					था। लाल फर्श पर पोंछा लगाती तो कैसा सर्र से फिसलता जाता था। 
					पिता का बनाया घर था, वहाँ सब उसकी मर्जी से होता था। परिवार 
					की सबसे छोटी और लाडली थी। पिता के गुजरने के बाद से माँ का और 
					घर का ख्याल वही रखती थी। बड़े भैया तो बस साल में एक बार 
					दशहरे-दिवाली पर और छोटे भैया महीने-पंद्रह दिन में एक बार आते 
					थे। उसके लिए रिश्ता छोटे भैया ने ढूँढा था, बड़े भैया ने उस 
					पर मोहर लगा दी थी। लड़का पढ़ा-लिखा, शहर में सरकारी बैंक में 
					नौकर था।
 भैया ने सोचा 
					था बस ब्याह की औपचारिकता पूरी होने तक ही उसे गाँव में रहना 
					पड़ेगा। बाद में तो पति के साथ ही रहेगी। भैया का भोलापन यह 
					रहा कि उन्होंने इस पर चर्चा न की और भैया का यह सोचना गलत 
					हुआ। उनका बहनोई माता जी की आज्ञा के बिना पानी भी न पीता था 
					और माँ का अरमान था कि बहू उनके साथ रहे, घर सजाए और घर 
					सँभाले। तो बहनोई साहब ने अपना तबादला ऐसी जगह करा लिया जहाँ 
					से वह हर सप्ताहांत गाँव चले आते बाकी के छह रोज वह आदर्श बहू 
					चूल्हे पर संयुक्त परिवार की रोटियाँ सेंकती। गाँव से बाहर 
					निकलने का अब न तो मार्ग बचा था और न अवसर। विवाह के बाद 
					रक्षा-बंधन पर घर गई तो खूब रोई थी। भैया भी बहुत दुखी थे, 
					लेकिन उनके पास इसका उपाय न था। माँ ने प्यार से समझाया था कि 
					जिंदगी जिस राह ले चले उस पर खुशी से चलते रहना चाहिए। ईश्वर 
					ने शायद हमसे कुछ बेहतर ही सोचा होगा। माँ कि इस बात पर वह 
					तिलमिला तो गई थी, लेकिन चुप रही थी। माँ को दुखी नहीं करना 
					चाहती थी।  दो दिन बाद 
					जब लौटी तो शहर की लड़की घूँघट के अंदर बंद हो गई। न कुछ कहते 
					बनता था न रहते बनता था। आँसुओं के सरोकार बदलते थे। कभी दुख 
					तो कभी बेचारगी में निकलते थे। संस्कृत में एम.ए, बी.एड की 
					कक्षाओं में कभी यह न सिखाया गया था कि आँसुओं से सामंजस्य 
					कैसे बिठाया जाए। वो तो कोई दलील मानते ही नहीं ना। गृह 
					विज्ञान की कक्षाओं में अचार, मुरब्बे बनाने सिखाए गए थे और 
					सासू माँ इस बात से बहू त खुश भी थीं की बहू को न जाने कितनी 
					चीजें पकानी आती हैं। पूरे गाँव भर में हुलस-हुलस कर सबको 
					बतातीं और घर आए को उसके बनाए हुए अचार, मुरब्बे, पकवान सब 
					खिलातीं बस यही कभी याद न रहा कि जिस बहू को पाकर फूली न समाई 
					रही है और उसके बनाए अचार, मुरब्बों की नुमाइश लगा रही है उसके 
					अरमान रसोई से अलग भी कुछ हो सकते हैं। इसमें उनका दोष भी नहीं 
					क्योकि उन्होंने स्वयं रसोई-आँगन से परे कुछ सोचा ही नहीं था।
					
 थकावट से चूर रात में अपने छोटे से उमस भरे कमरे में जब लेटती 
					थी तो हाथ का पंखा झलते हुए वह यही सोचती थी कि हमारी शिक्षा 
					व्यवस्था कितनी गलत है जिसका आरंभ बारहखड़ी से होकर और न जाने 
					कहाँ पहुँचता है चाहे किसी भी कक्षा तक पढ़ लो बीच में यह पाठ 
					तो कभी आता ही नहीं कि खुश कैसे रहना है। या तो दूसरों को 
					इंसान ही कैसे समझना है। वह अक्सर सोचती कि स्त्री और पुरुष 
					में यह विभाजन कब और कैसे हुआ। उसने संस्कृत पढ़ी थी, गार्गी 
					और मैत्रेयी के बारे में पढ़ा था। कितना बेहतर युग था जब 
					स्त्रियों को अपनी इच्छा से पढ़ने, अपना वर चुनने और अन्य 
					चीजों की स्वतंत्रता थी।
 
 उसके विवाह के बाद पहला नया साल था। सरपंच के घर खूब तैयारियाँ 
					चल रही थीं। जब से पंडित रामनारायण सरपंच बने थे, नए साल का 
					पहला भोज सभी गाँव वाले उन्हीं के यहाँ करते थे। कारण कि 
					उन्होंने यह कार्यभार दिसंबर माह में सँभाला था और जब गाँव 
					वाले उन्हें बधाई व शुभकामनाएँ देने आ रहे थे तो उन्होंने पहली 
					तारीख का न्योता सभी को दे दिया था। तभी से यह परंपरा हो गई थी 
					कि वह हर साल पहली तारीख को सभी गाँव वालों को अपने यहाँ भोज 
					पर आमंत्रित करते थे। वह अपना समय व्यतीत करने के लिए घर में 
					जो भी अतिरिक्त फल सब्जी होते सब का अचार या मुरब्बा बना देती 
					थी। आम का अचार और आँवले का मुरब्बा बहुत मात्रा में हो गया 
					था। सासु माँ को अपनी बहू के बनाए स्वाद से गाँव की अन्य 
					स्त्रियों को चिढ़ाने का मन हुआ तो नववर्ष के भोज पर उन्होंने 
					एक चौकड़े में अलग-अलग किस्म के अचार भरवा दिए। वर्षों से चली 
					आ रही दावत में इस बार अचार का नया रंग भरने से चारों ओर 
					सामान्य से अधिक चटकारे गूँज रहे थे।
 
 उर्मिला काकी अम्मा की बहुत करीब थी। अम्मा का हर काम उर्मिला 
					काकी की सलाह से ही होता था। अद्भुत बहनों जैसा संबंध था दोनों 
					में... संभवतः इसलिए कि जब अम्मा ब्याह कर गाँव में आई थी तो 
					उर्मिला काकी ने उनका स्वागत एक बड़ी बहन के जैसे ही किया था।
 
 उसकी नज़रों के सामने आज भी वह दिन घूम जाता है जब नववर्ष भोज 
					के अगले दिन उर्मिला काकी दोपहर बाद आई थीं। सदा की तरह अम्मा 
					ने उसे आवाज लगाकर चाय बनाने को कहा था और फिर बुलाकर आवाज 
					देते हुए कहा- "बहू जो पिछले हफ्ते करौलियाँ और आलू के पापड़ 
					बनाए थे जरा वह भी तल के ले आना। उर्मिला काकी को चखाओ कैसी 
					बनी हैं।" उर्मिला काकी शायद बहुत दिन से उसका दिनोंदिन बुझता 
					चेहरा देखती जा रही थीं, अनुभवी आँखें बिना कुछ कहे-सुने ही 
					समझ गई थीं, अम्मा से कह उठी थीं “सावित्री तुम्हारी बहू के 
					हाथ में बहुत हुनर है। जो चीज बनाती है उस में स्वाद भर देती 
					है, कल का ही देखो कितना चटकारे ले रहे थे लोग, मानो अचार ना 
					हो, अमृत हो, भोज में नई जान डाल दी। अरे मुझे तो हँसी आ रही 
					थी उस घासी हलवाई का चेहरा देख कर, सारी सब्जियों पर भारी पड़ 
					गया बहू का अचार”। सुनकर वह मन ही मन खुश हुई थी। उसके आगे 
					क्या होने वाला है उसकी वह सपने में भी कल्पना नहीं कर सकती 
					थी।
 चाय लेकर वह 
					वापस आई तो अम्मा ने उसे पास ही बैठने को कहा। वह पीढ़ा लाकर 
					वहीं चारपाई के पैंताने की ओर बैठ गई। अम्मा का स्वर उभरा था, 
					“बहू, तुम्हारे हाथ के स्वाद की सबने बड़ी तारीफ की कल, हमारा 
					मस्तक भी गर्व से ऊँचा हो गया। उर्मिला जीजी का आग्रह है कि इस 
					बार उनके यहाँ भी तुम ही अचार डलवा दो"।काकी ने साथ में जोड़ा था- बताओ बहू? हाँ कहो तो कल सामान मंगा 
					कर रख लूँ, अपने घर के काम निबटा के हमारे घर निकल आना अपनी 
					अम्माजी के साथ।
 ‘जैसा अम्माजी कहें’ के अलावा कहने को उसके पास कुछ था नहीं।
 अगले दिन 
					सुबह ही अम्माजी ने याद करा दिया, बहू काम थोड़ा सवेर निबटा 
					लेना, उर्मिला काकी राह देखेंगी और जब जाने के ऐन समय पर 
					अम्माजी के रिश्ते के भाई आ गए तो वह बड़ी परेशान हुईं। वह 
					जानती थीं कि काकी राह देख रही होंगी, तो उन्होंने छोटी ननद 
					गुड्डी को साथ जाने का निर्देश दे दिया। वह पहली बार था कि बहू 
					किसी बुजुर्ग या पति के साथ के बिना घर से निकली थी। गुड्डी 
					रास्ते भर बोलती रही थी, काकी के घर पहुँचकर भी बोली थी, “भाभी 
					आपको कितना कुछ बनाना आता है आप हमें भी सिखा दो ना”। और वह 
					मुस्कुरा भर दी थी, लेकिन काकी उसकी बात सुनकर बोली, “हाँ 
					गुड्डी तुम सीखो अपनी भाभी से, हम भी सीखेंगे, सब मिलकर 
					सीखेंगे”। फिर गुड्डी को बहाने से बाहर भेजकर बोलीं - “बहू, 
					यही बात कल तुम्हारी सास से भी कहना चाहती थी, लेकिन सोचा पहले 
					तुम्हारी राय जानना उचित होगा। मैं जानती हूँ तुम बहुत सुघड़ 
					हो, बहू त पढ़ी लिखी हो, गाँव के भाग्य से यहाँ पहुँची हो। 
					तुम्हारी शिक्षा सिर्फ अचार-मुरब्बे के मर्तबानों में भर कर 
					रहने को नहीं है, इसलिए चाहती हूँ तुम यहाँ की लड़कियों को 
					माँज दो। क्या तुम अपने हुनर को गाँव की औरतों और लड़कियों में 
					बाँटना चाहोगी?”  “यह कैसे 
					होगा काकी?” वह अवाक सी उन्हें देखती रही थी, “अम्माजी तो कहती 
					हैं कि बहूएँ घर के भीतर ही अच्छी लगती हैं। आज आपके लिहाज से 
					गुड्डी के संग भेज दिया, और बाबूजी से और इनसे कौन बात करेगा?”“तुम बस अपनी राय बताओ क्या तुम अपनी शिक्षा चूल्हे-चौके को 
					अर्पित करना चाहती हो या उसका बेहतर प्रयोग करना चाहती हो।” 
					उसकी आँखों से अश्रुधार बह निकली थी, वह नहीं समझ पाई क्या 
					उत्तर दे, बस झुककर पैर छू लिए थे, और उस दिन से आज तक वे 
					श्रीचरण उसके लिए वंदनीय थे।
 
 घर में काकी का रुतबा और रुआब ऐसा था कि खड़ंजे अपने आप बिछते 
					गए और राहें सुगम होती गई। अम्मा ने बहू की सुरक्षा काकी के 
					हवाले कर दी थी, वह इसी शर्त पर तैयार हुई कि जो भी काम किया 
					जाएगा काकी की निगरानी में होगा। घर-घर में औरतों के बीच होने 
					वाली इन सभी गतिविधियों पर बाबूजी को भी कोई आपत्ति न थी। होली 
					दिवाली आदि पर तो महिलाएँ मोहल्ले पड़ोस में इकट्ठी होकर 
					गुजिया, मठरी, नमकीन सेव यह सभी बनाती ही थीं, गर्मियों के 
					दिनों में भी किसी के अहाते में लगे नीम की ठंडी छाँव में हाथ 
					से जवे बटती थीं, इन्हीं में से एक मानकर पहले-पहल दोपहर को 
					सबके भोजन करने के बाद घर में अचार-मुरब्बों की कक्षाएँ आरंभ 
					हुईं और फिर ज्यादा लड़कियाँ आने पर घेर में पाक कला की 
					कक्षाएँ चली थीं। वहाँ जब उसने पाक-विधि लिखवाने के लिए 
					लड़कियों से और महिलाओं से कॉपियाँ लाने के लिए कहा, तो वह आपस 
					में खुसुर-पुसुर करने लगीं। जब उसने कारण जानना चाहा तो पता 
					लगा कि उनमें से अधिकांश निरक्षर हैं। कुछ थोड़ा बहुत पढ़ लेती 
					हैं और कुछ हिसाब लगा लेती हैं। बहुत दुख हुआ उसे यह जानकर कि 
					गाँव की किसी भी लड़की ने पाँचवीं से आगे पढ़ाई ही नहीं की। 
					लड़कियों का स्कूल था तो अलग से लेकिन लड़कियाँ न आने के कारण 
					वह बंद ही रहता था।
 जब इस बारे 
					में उसने सुरेश से बात की, तो वह हँस पड़ा बोला, "यह शुभ काम 
					भी तुम ही शुरू कर लो। अभी तक अचार वाली मास्टरनी हो अब पूरी 
					मास्टरनी हो जाओगी।" विचार बुरा नहीं था लेकिन आगे बढ़ने के 
					लिए अब उससे काकी के साथ बाबूजी के समर्थन और सहयोग की भी 
					आवश्यकता थी। बहुत डरते डरते पहले काकी और फिर अम्मा जी के 
					सामने उसने अपनी बात रखी, फिर काकी और अम्मा जी ने मिलकर 
					बाबूजी से बात की। बाबूजी को मनाना उतना आसान न था क्योंकि 
					गाँव के सरपंच को सभी की भावनाओं की कद्र करनी थी। गाँव के 
					बहुत से लोग लड़कियों की शिक्षा को स्वच्छंदता और ऐब के साथ 
					जोड़कर देखते थे। उनका मानना था कि लड़की पढ़ी तो हाथ से गई।
					 वह दिन उसे 
					आज भी याद है जब बाबूजी ने उससे कहा था, “देखो बहू, मैं 
					तुम्हारी हर बात का समर्थन सिर्फ इसलिए नहीं कर सकता कि तुम 
					मेरे घर की हो, यह मामला पूरे गाँव की बहू-बेटियों से जुड़ा 
					हुआ है इसलिए इसके लिए मुझे गाँव वालों और पंचों की राय जाननी 
					आवश्यक है। क्या तुम पंचों के सामने अपने विचार रख कर शिक्षा 
					के महत्व को उन्हें समझा सकोगी?"  दोनों हाथ 
					बाँधे नाक तक घूँघट की आड़ से उसने अपनी सहमति दर्ज की। दो दिन 
					बाद पंचायत लगी थी जिसमें बाबूजी ने लड़कियों को शिक्षित करने 
					का पक्ष सामने रखा। फिर जब उसकी बारी आई यह बताने की, कि 
					लड़कियों को शिक्षित क्यों होना चाहिए, तब उसने यही कहा था आज 
					की लड़की कल की माँ है, यदि वह स्वयं शिक्षित नहीं होगी तो वह 
					शिक्षा का महत्व नहीं जानेंगी इसीलिए यह आवश्यक है कि सभी 
					लड़कियाँ अपने स्कूल की पढ़ाई पूरी करें। तब काकी और अम्मा जी उसके समर्थन में आई थी और वहाँ से फूटी थी 
					नई किरण।
 अब अचार मुरब्बे के साथ उसने अक्षर ज्ञान देना भी आरंभ कर दिया 
					था।
 बाबूजी ने 
					उसके द्वारा जिला मजिस्ट्रेट को लिखे पत्र पर खुशी से 
					हस्ताक्षर किए थे और फिर जाकर मिल भी आए थे। नब्बे के उन 
					आरंभिक वर्षों में साक्षरता मिशन जोर पर था इसलिए अनुमति व 
					अनुदान मिलने में अधिक समय न लगा था। यों भी कई बार होता है कि 
					सरकार की ओर से सुविधा होती है लेकिन उसे अंजाम देने वाला कोई 
					नहीं होता। उसकी पहल रंग लाई, बालिका विद्यालय पुनः खोला गया 
					और दायित्व उसे ही सौंप दिया गया। वह मन-प्राण से जुट गई थी और 
					उसके दो दशकों के परिश्रम और समर्पण का परिणाम था यह विद्यालय 
					जो प्राइमरी से बढ़कर आज उच्चतर माध्यमिक स्तर तक पहुँच गया 
					था। पिछले वर्ष जिले में सर्वश्रेष्ठ विद्यालय के रूप में 
					सम्मानित किया गया था। वह मन ही मन 
					यह सोच मुस्कुराई कि विद्यालय की नींव कैसे नए वर्ष के भोज में 
					खिलाए अचार से पड़ी थी। वह नव वर्ष न सिर्फ उसके जीवन में 
					अपितु गाँव की सभी महिलाओं व लड़कियों के जीवन में नव-प्रभात 
					बनकर आया था। ‘आओ बहू! मैं कई रोज़ से सोच रही थी तुम आती ही 
					होंगी’… उर्मिला काकी के स्वर से वह अतीत से लौट आई। अंदाजा ही 
					नहीं पड़ा वह कब काकी के अहाते तक पहुँच गई थी। काकी बाहर ही 
					चारपाई डालकर धूप में बैठी थीं। उसने पाँव छूकर आशीर्वाद लिया 
					और उत्सव का निमंत्रण पत्र काकी को देते हुए कहा कि नए साल के 
					उत्सव में हर वर्ष की भाँति आप ही मेरी मुख्य अतिथि होंगी। 
					काकी भी हँसते हुए बोलीं ‘मैं फिर पूछूंगी कि कब तक यह 
					अंग्रेजों वाला नया साल 
					 मनाती रहोगी तुम?’ 
 “काकी यह नया साल भले अंग्रेजों का हो, हमारे गाँव के लिए भी 
					तो यही नया साल एक नई भोर लेकर आया था। उसकी वर्षगाँठ के रूप 
					में जलसा तो बनता ही है।’
 काकी मुस्कुराती हुई बोलीं ‘बहू इस गाँव की नई भोर तो तुम्हारे 
					इस गाँव में आने के दिन ही हो गई थी, जरा बादल छँटते समय लग 
					गया, पर सही है, हर काम का अपना समय होता है, तुम्हारे नए साल 
					के जलसे में आउँगी जरूर, जब तक’।
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