“सौ
गुनाहगार भले ही छूट जाएँ पर एक बेकसूर को सजा न हो।”
"दशरथ पासवान हाज़िर हो।"
सौगंध की प्रक्रिया के बाद-
"आपका नाम"?
"दसरथ पासवान।
उम्र- ३२ बरस।"
"आप काम क्या करते हैं?"
"हुजुर पी. डब्लू. डी. के इंजिनियर साहब के दफ्तर में चपरासी
का।"
"इनको पहचानते हैं?" सामने वाले कटघरे में खड़े शख्स को दिखला
कर।
"हाँ हुजुर, इनको तो दफ्तर में सब जानता है। इ तो शुक्ला जी
हैं, ठेकेदार साहब। इनका फाइल हम ही तो साहब के पास पहुँचाते
हैं।"
"उस फाइल में क्या रहता था आप जानते थे?"
"नहीं हुजूर, हम कैसे जानेंगे।"
"बदले में क्या तुम्हें कुछ पैसा देते थे?"
"पईसा उईसा तो..."
"सही सही बोलो, झूठ बोलोगे तो तुम्हें कड़ी सजा होगी। कड़क कर
सरकारी वकील ने कहा।"
"हाँ हुजूर २०- २५ रुपिया चाय पानी के लिए दे देते थे।"
शुक्ला जी की ओर मुखातिब होते हुए – "क्या आप इसे भी पैसा देते
थे?"
"जी हाँ।"
"ठीक है आप जा सकते हैं।"
प्रथम दृष्ट्या जिन लोगों पर पैसे लेने का आरोप लगा, सबकी
जमानत याचिका ख़ारिज कर दी गई। सब के साथ दसरथ को भी कारागार
में डाल दिया गया।
सभी उच्च न्यायालय में अपील करने की तैयारी करने लगे। दसरथ के
पास न तो पैसा था न कोई भाग दौड़ करने वाला। पत्नी दो छोटे-
छोटे बच्चों को ले कर कभी-कभी आती तो सिपाही को अपनी आँचल की
गाँठ में बंधे दस रूपये देती तब वह मिलने देता। गाँव में रहने
वाले दसरथ के एक चचेरे भाई को मिन्नत कर के दसरथ की पत्नी फूलो
ने बुलवाया। उसने भाग दौड़ करके उच्च न्यायालय में जमानत के लिए
अपील किया। लेकिन दुर्भाग्य वहाँ भी जमानत याचिका खारिज़ हो गई।
बाकी लोग तो उच्चतम न्यायालय जाने की तैयारी करने लगे। लेकिन
इनलोगों के पास इतना पैसा कहाँ? दसरथ का चचेरा भाई भी तो गाँव
का साधारण सा किसान ही ठहरा। कहाँ से दिल्ली जा कर अपील करता।
न तो इतना पैसा था न ही इतना शउर...
"तो क्या दसरथ के साथ नाइंसाफ़ी हो जाएगी?"
"नहीं नहीं, ऐसा कैसे होगा। इस देश में नाइंसाफ़ी। बिलकुल
नहीं।"
बाकी लोगों को उच्चतम न्यायालय से ज़मानत मिल गई।
"और दसरथ?"
"अरे वह अपील करेगा तब तो..."
उसके पास इतनी सामर्थ्य कहाँ। वह कैसे अपील करेगा।
"वही तो।"
"तो क्या यह नाइंसाफ़ी नहीं है।"
"फिर वही बात। अरे भाई इस देश में देर है पर अंधेर नहीं है।
देर सबेर इंसाफ तो होगा ही।"
इसे तो “जस्टिस डिलेड मीन्स जस्टिस डिनाइड” कहेंगे।
"अब अंग्रेजी में क्या कहते हैं मुझे नहीं पता। पर अपने बड़े
बुजुर्ग तो हमेशा कहते रहे- यहाँ देर है पर अंधेर नहीं। अरे
भाई सब्र का फल मीठा होता है।
अब क्या होगा?"
"घबराव नहीं सबकी जमानत की प्रक्रिया पूरी होते ही मुक़दमे की
सुनवाई तेजी से शुरू हो जाएगी और जो निर्दोष है वह तो साफ बरी
हो जायेगा। बस इतना समय सब्र करना पड़ेगा।"
लेकिन तब तक बच्चों का क्या होगा। घर कैसे चलेगा? दशरथ चिंतित
हो उठा।
जब घर पर सब कुछ ख़त्म हो गया, दशरथ के छूटने की सारी उम्मीदें
ख़त्म हो गईं, भूखों मरने की नौबत आ गई तो हार कर फूलो ने दो
घरों में चौका बर्तन का काम पकड़ लिया। बाद में उसी मोहल्ले के
सरकारी स्कूल में झाड़ू पोंछा का काम मिल गया। इससे उनके रोजी
रोटी का भी इंतजाम हो गया और बच्चों को उसी स्कूल में पढ़ने का
भी।
खैर घर तो किसी तरह चलने लगा।
अब तो दो साल होने को आये, जब उन लोगों को यहाँ लाया गया था।
बाकी लोग तो धीरे धीरे एक डेढ़ साल में जमानत पा कर रिहा हो गए।
रह गया अकेला दशरथ। उसने वहाँ से निकलने वाले सबकी चिरौरी
विनती की। लोग हाँ हाँ करते पर वहाँ से निकलने के बाद कोई भी
मुड़ कर नहीं देखता। रह गया अकेला वह। वहाँ के सजायाफ्ता कैदी
समझाते –
"क्यों अपनी जिन्दगी बर्बाद कर रहा है। तू सजायाफ्ता तो है
नहीं। तू तो विचाराधीन है। किसी तरह जमानत करवा कर निकल जा।
तेरी नौकरी भी वापस आ जाएगी। वरना यहाँ सड़ जायेगा।"
"कहते तो आपलोग ठीक हैं। लेकिन मेरे लिए यह सब करेगा कौन। घर
पर सिर्फ अनपढ़ पत्नी और दो छोटे बच्चे हैं। वह तो बेचारी किसी
तरह दो घरों में चौका बर्तन कर के घर चला रही है। वकील को देने
के लिए पैसे कहाँ से लाएगी?"
"तो फिर तूने क्या सोंचा है। यहीं सड़ेगा?"
"नहीं, नहीं अब तो केस शुरू ही होने वाला है। फिर सुनवाई होने
में कितना दिन लगेगा। छह महीने, साल भर... मेरा तो कोई कसूर भी
नहीं है... बस मैं बरी हो जाऊँगा।"
सुन कर दीपेश और कमाल ठठा कर हँस पड़े।
"कितना भोला है रे तू।"
"भोला नहीं बेवकूफ है। इसीलिए तो यह हाल है।"
"क्यों क्या हुआ?"
"अरे यह केस बरसों चलेगा। बरसों क्या जिन्दगी भर चलेगा। बिना
मतलब के कोर्ट में बहसबाजी चलती रहेगी। एक ही बात को गन्ने की
तरह छीलते रहेंगे। ताकि इतने साल गुजर जाएँ कि असली गुनाहगार
की जिन्दगी निकल जाए और वकीलों की चाँदी होती रहे।"
"पर इतने दिनों तक केस कैसे चल सकता है?" दशरथ को बिश्वास नहीं
हुआ।
"अरे एक एक मामले के लिए तीन तीन, चार चार सौ गवाह बुलाएँगे।
सबकी गवाही फिर बहस फिर... इसीलिए कहता हूँ कम से कम बाहर निकल
जाएगा तो अपने परिवार के साथ तो रहेगा।"
"यह सब तुम लोगों को कैसे पता चला?"
"रोज शाम को देखते नहीं हम लोग जेलर साहब की सेवा करने पहुँचते
हैं। वहीं सब मालूम होता है।"
सुन कर दशरथ का दिल बैठने लगा। क्या यह सच है? क्या यहीं
जिन्दगी गुजर जाएगी?
"आपलोगों को किस बात की सजा मिली है?"
"खून की। और दोनों जोर से हँसने लगे। चौदह साल की। अभी तो दो
ही साल गुजरे हैं। बारह साल बाकी हैं। वैसे हाई कोर्ट में अपील
की है हमने।"
सुन कर दशरथ डर गया। इनलोगों की बातों का क्या भरोसा। स्वयं तो
अपराधी हैं। इनसे दूर ही रहना चाहिए।
पहले कभी कभी कचहरी में हाजिरी लगवाने ले जाते थे, अब तो उसके
लिए भी नहीं ले जाते। बाहर की दुनिया की उसे कोई खबर भी नहीं
मिलती।
फूलो ने शहर से बाहर के स्कूल में अपनी ड्यूटी लगवा ली ताकि
मकान का किराया बचे। वहीं स्कूल में एक कमरा मिल गया। जिसमें
वह अपने दोनों बच्चों के साथ रहती। बच्चे स्कूल में पढ़ते और वह
स्कूल में झाड़ू पोंछा करती। इसीलिए अब दशरथ से मिलना भी साल छह
महीने में हो पाता। गरीबोँ में दुःख सहने की शक्ति बहुत होती
है। शायद इसके सिवा उनके पास और कोई चारा ही नहीं होता।
कभी किसी साहब से पूछता –
"साहब मेरा वाला मुकदमा शुरू हुआ?" तो साहब हँस कर जबाब देते-
"अभी कहाँ अभी तो बहुत देर है।" दशरथ को वहाँ भी घर जैसा ही
लगने लगा। सुबह से उठ कर तैयार हो कर पूजा पाठ करता। कई लोगों
को कुछ पूजा करते हुए देखता तो पूछता –
"मुझे भी बताइये मुझे क्या पूजा करना चाहिए।" कोई कहता हनुमान
चालीसा पढ़ कोई कहता दुर्गा चालीसा। और वह बेचारा सबके कहे
अनुसार करने लगता, इस आस में की कोई पूजा पाठ उसे यहाँ से
निकाल दे। बेचारा यह भी नहीं समझ पाता कि अगर उन लोगों को सारे
उपाय मालूम हैं तो स्वयं यहाँ क्यों पड़े हैं?
खैर जो भी हो वह पूजा पाठ भी करता और सबकी सेवा के लिए भी
तत्पर रहता। पता नहीं पिछले किस पाप के कारण यहाँ आना पड़ा, उस
पाप को ख़त्म करके पुन्न का बैलेंस इतना बढ़ाया जाए कि इस सजा से
मुक्ति मिले। एक आम आदमी का सहारा तो सिर्फ भगवान का नाम ही
होता है।
सर्दी के बाद गर्मी, गर्मी के बाद बरसात और फिर सर्दी, फिर
गर्मी, फिर बरसात आते रहे। लेकिन बसंत ऋतु आना शायद भूल गई।
शुरू शुरू में फूलो और दोनों बेटे दिनेश, महेश की बहुत याद आती
थी। अब तो उनकी यादें भी धूमिल पड़ने लगी हैं। पाँच साल बीत गए।
कुछ लोगों को बातें करते सुना –"चार्ज फ्रेमिंग" हो रहा है।
फिर मन में आस जगी। वह जोड़ने लगा – इस महीने सबका चार्ज
फ्रेमिंग हो गया तो अगले महीने से गवाही शुरू हो जाएगी। फिर
फैसला। ज्यादा से ज्यादा एक साल लगेंगे... और क्या.. चलो इतने
दिन तो एक साल और सही। अभी भी अगर छूट जाऊँ तो इतने सालों को
जिन्दगी का बुरा सपना समझ कर भूल जाऊँगा। और फिर नए सिरे से
जिन्दगी शुरू करूँगा। मेहनत मजदूरी कुछ भी करूँगा। अभी भी
ज्यादा देर नहीं हुई है। उम्मीद की एक किरण से उसके चेहरे पर
चमक आ गई।
अब तो उसे हाजिरी के लिए अदालत भी नहीं ले जाते। जो अदालत जाते
उनसे पूछता –
"मेरे केस में क्या हो रहा है?"
"पता नहीं।"
फिर छह महीने गुजर गए।
"मुझे कोई कुछ बतलाता भी नहीं है। कहीं मेरे पीछे कोई फैसला न
हो जाए। क्या करूँ, किससे पूछूँ?"
रोज शाम को अदालत में हाजिरी दे कर लौटने वालों के इंतजार में
बैठा रहता
"भैया मेरे केस में क्या हो रहा है? किसी से कुछ मालूम होता
है? बाकी जितने लोगों पर मुकदमा चल रहा है, किसी से मुलाकात
होती है क्या"?
ऐसे कितने सवाल उसके दिमाग में चलते रहते। इन्हें सुन कर कोई न
में सर हिलाता, कोई अनसुना कर के आगे बढ़ जाता।
एक दिन हिम्मत कर के जेलर साहब से पूछा-
"साहब मेरा केस का क्या हुआ"?
"कौन सा केस है तुम्हारा? ओ हाँ वह केस। मैंने तो सुना है उसमे
चार्ज फ्रेमिंग हो गया है। अब आगे की प्रोसिडिंग होगी।"
"साहब ऊ क्या होता है, मतलब चारज ---।"
"चार्ज फ्रेमिंग में सभी अभियुक्तों को पेपर दिया जाता है
जिसमें लिखा होता है कि उस पर क्या क्या आरोप लगे हैं। तुम्हे
भी मिला होगा।"
"नहीं साहब हमको तो कोई कागज नहीं मिला है।"
"नहीं मिला है? अच्छा जाने दो कागज लेने के लिए तो पैसे लग
जायेंगे। पैसे क्यों खर्च करोगे। एक काम करता हूँ, तुमपर जो भी
आरोप लगे हैं उन्हें नोट कर के मंगवा दूँगा।"
"ए ललित (पास में खड़े सिपाही से), कल तुम कोर्ट जाओगे तो इसका
चार्ज वाला हिस्सा नोट करके ले आना।"
"ठीक है सर।"
अगले दिन सारे दिन दसरथ का दिल धड़कता रहा, जैसे बच्चों का
रिजल्ट से पहले धड़कता है। पता नहीं क्या क्या आरोप लगाये हैं
उन लोगों ने। मुझे तो सिर्फ २० -२५ रुपया कभी कभी शुक्ल जी दे
देते थे। यही शुक्ला जी सब की जड़ हैं। बनते कितने अच्छे थे।
हमेशा प्यार से बातें करते थे। लेकिन पता नहीं क्या क्या घपला
किया है उन्हों ने। मुझे तो बर्बाद ही कर दिया। अपने आप से ऐसे
ही सवाल जबाब करते दिन गुजरता। रात में भी नींद खुल जाती तो
यही सारे सवाल जवाब चलते रहते। कभी कुछ सकारात्मक होता तो मन
शांत हो जाता, और नकारात्मक हो तो मन बेचैन हो जाता।
शाम को सारे कैदियों को अदालत से ले कर ललित वापस आ गया।
"ललित भाई मेरा काम हुआ"?
"कौन काम? अरे, अपने सर पर चपत लगाता हुआ- एकदम दिमाग से उतर
गया। सारे दिन इतनी भाग दौड़ रही कि याद ही नहीं रहा। कल जरुर
ला दूँगा।"
"ठीक है" दसरथ ने मायूस हो कर कहा।
"लेकिन कल तो छुट्टी है। उसके बाद शनिवार, रविवार। अब सोमवार
को कोर्ट खुलेगा तभी कुछ होगा।"
"कल किसलिए छुट्टी है"?
"कल रामनवमी है न।"
"क्या कल रामनवमी है?
रामनवमी में सुबह सुबह दोनों पति पत्नी नहा धो कर दोनों बच्चों
को तैयार कर हनुमान जी के मंदिर में जा कर लड्डू का प्रसाद
चढ़ाते। अब तो शायद फूलो ने पूजा – पाठ करना छोड़ दिया है। वह भी
अपनी जगह पर ठीक है। इस बार होली के बाद मिलने आई थी तो उसकी
सूनी माँग देख कर दसरथ को धक्का लगा। पूछने पर कहने लगी- "पति
जेल में है जान कर लोग दूरी बना लेते हैं। बच्चे भी रोज- रोज
पूछते हैं बाबा कहाँ? अब समझदार होने लगे हैं। तंग आ कर सब को
कह दिया कि एक्सीडेंट में जान चली गई, और शहर से बाहर आ कर
रहने लगी।"
दोनों काफी देर तक रोते रहे और फिर फूलो वापस चली गई।
सोमवार, मंगलवार, दसरथ रोज याद दिलाता और ललित भूल जाता। आखिर
एक दिन उसे याद रहा और उसने आते ही उसे एक कागज पकड़ाते हुए
कहा- "ले तेरा कागज।"
"बस इतना सा ही"?
"तो तुझे अपने चार्ज से ही मतलब है न। बाकी सब पर क्या आरोप
लगे हैं तुझे उससे क्या। पूरी कॉपी चाहिए तो दे पाँच सौ रूपये।
ऐसे ही थोड़े दे देंगे वो पूरी कॉपी।"
"नहीं नहीं ठीक है। मुझे तो इतने से ही मतलब है।"
कागज में भारतीय दंड संहिता धारा-----, एवं धारा------। बस
इतना ही लिखा था। पूछ-ताछ करने पर पता चला कि उस पर घूस लेने
और घपलेबाजों का साथ देने का आरोप था। धारा, सेक्शन वगैरह तो
वह नहीं समझता पर जब भी फुर्सत में होता पुर्जे को खोल कर
ध्यान से देखता और मन ही मन दोनों आरोपों का जवाब तैयार करता।
जैसे कोई स्कूल का बच्चा परीक्षा से पहले प्रश्न के उत्तर को
रट कर तैयार करता है ताकि कुछ छूट न जाए। उसी तरह वह भी अपने
जवाब को कंठस्थ करता रहता ताकि जज साहब के सामने कुछ भूल न
जाए।
छह साल गुजर गए। पता नहीं चारज फरेमिंग का काम ख़तम हुआ या
नहीं। किससे पूछें इसके बाद क्या होगा। हमको तो लगता है अब
गवाहों की सुनवाई होगी बस फिर फैसला। जैसा फिलम में होता है।
शाम को कमाल और दीपेश बातें कर रहे थे। सोचा उनलोगों को काफी
जानकारी है कोट- कचहरी का, उनसे पूछते हैं। लेकिन दोनों खूनी
हैं, उनसे दूर ही रहना चाहिए। किन्तु और कोई तो बताएगा नहीं।
क्या करूँ। अच्छा सिर्फ पूछ लेने से क्या होगा। और उनके पास जा
कर खड़ा हो गया।
"क्यों रे दसरथ तेरा क्या हुआ"?
"कुछ नहीं भैया, कहते हैं चारज फरेमिंग हुआ है। उसके बाद क्या
होता है, सुनवाई।"
"अरे नहीं रे, अभी तो सभी अभियुक्तों को नोटिस दिया जायेगा,
फिर दोनों ओर की गवाही होगी फिर बहस, फिर बयान तब फैसला।"
इतना सब सुन कर दसरथ का सर घूम गया।
सभी कहते हैं दीपेश और कमाल ने दिन दहाड़े बीच चौराहे पर एक
ब्यक्ति की हत्या की है। फिर भी कमाल कह रहा था कि उच्च
न्यायालय से दोनों जल्दी ही छूट जायेंगे। क्योंकि उनके खिलाफ
कोई सबूत कोई गवाह नहीं मिला।
वाह रे हमारा न्याय तंत्र। जिसे हत्या करते सारी दुनिया ने
देखा, वह सबूत और गवाह के उपलब्ध न होने के कारण बाइज्जत बरी
हो जायगा। और जिसके अपराध का कोई सबूत नहीं है उसे शक के बिना
पर सजा कटनी पड़ रही है।
एक एक अभियुक्त के नोटिस के जवाब देने में ही साल गुजर गए। एक
दिन में मुश्किल से दो या तीन अभियुक्तों का जवाब सुना जाता।
फिर किसी त्योहार की छुट्टी, या रविवार हो जाता। कभी जज साहब
की तबियत ख़राब हो जाती, कभी वकील साहब छुट्टी पर होते।
साढ़े सात साल गुजर गए। इन वर्षों में वह हर वक्त या तो कोर्ट
कचहरी की प्रक्रियाओं को समझने की कोशिश करता या फिर अपने ऊपर
लगे आरोपों का जवाब तैयार करने की। उस पुर्जे को सम्हाल कर एक
पॉलिथीन के पाकेट में लपेट कर रखता। फिर भी बार बार निकाल कर
देखने के कारण वह अब फटने लगा था।
ललित का तबादला हो गया। उसके जगह पर मनोज है। इससे दोस्ती
लगानी होगी तभी बाहर का समाचार मिलेगा वरना मुझे तो बतलाने
वाला कोई है भी नहीं।
"लीजिए मनोज भाई",
खैनी बना कर दसरथ ने कांस्टेबल को पेश किया।
"का बात है रे दसरथ बड़ी खुशामद कर रहा है। कोई काम है का?"
"नई नई मनोज भाई ऐसे ही।"
खैनी लेते हुए, "हूँ----"
"मनोज भाई एक बात पूछनी है।"
"क्या?"
"भाई हमरा केस में क्या हो रहा है"?
"तुम्हारा वो इंजीनियर साहब वाला केस है न। तुमको अपना केस
नंबर मालूम है?"
"नहीं हमको तो नहीं मालूम है।"
"तब कैसे पता चलेगा। ऐसे सुने हैं कि इस केस में गवाही चल रही
है। तुम्हारा कोई वकील नहीं है?"
"नहीं तो।"
"वकील क्यों नहीं कर लेते समय समय पर तुम्हारे केस की खबर भी
देता रहेगा और जब जरुरत होगी तुम्हे कोर्ट में हाज़िर भी
करवाएगा।"
"वकील को देने के लिए पैसे होते तो पहले ही जमानत न करवा
लेता।"
"तब फिर मैं तुम्हारी क्या मदद करूँ, बोल। खैर जब तुमसे पूछने
की बारी आएगी कोर्ट तुम्हें हाज़िर करने के लिए बोलेगा। फिर तुम
कोर्ट में जा कर अपना पक्ष रखना।"
"हाँ वह ठीक है। मुझ पर घूस लेने का आरोप है। घूस कमाया रहता
तो वकील को देने को पैसा नहीं होता?। आठ साल से यहाँ पड़ा
रहता?।"
वह इंतजार करता रहता कि कब उसे कोर्ट से बुलावा आएगा।
दीपेश और कमाल को साक्ष्य के आभाव में उच्च न्यायालय से बरी कर
दिया गया।
नौ साल बीत गए। फैसला आना शुरू हो गया। किसी को सजा हुई और कोई
छूट गया।
धीरे धीरे इस घपला कांड से जुड़े सभी अभियुक्तों का फैसला आ
गया। पंद्रह वर्ष लग गए सभी फैसले आने में। कुछ को सजा हुई कुछ
बाइज्जत बरी हुए। लेकिन दसरथ का नाम न सजा पाने वालों में था न
छूटने वालों में।
दसरथ की समझ में नहीं आ रहा था अब क्या करे। सजा भी मिली होती
तो सही। लेकिन यहाँ तो मेरा अस्तित्व ही नकार दिया गया। बच्चों
और समाज के लिए तो पहले ही मर चुका था। और अब कानून तो उसके
होने से भी इंकार कर रहा है। अब क्या करूँ, कहाँ जाऊँ। दीवारों
पर सर पटक पटक कर रोने लगा। अब बिलकुल बुत की तरह चुपचाप रहने
लगा। अड़तालीस वर्षों में अस्सी का लगने लगा। अब तो फूलो भी साल
में एक दो बार ही आती है। उसने अब वहाँ से निकलने की आस ही छोड़
दी। बीस साल बीत गए। एक दिन अचानक फूलो आई। एक पाकेट में कुछ
मिठाइयाँ ले कर।
"लीजिए मिठाई खाइए। दिनेश की नौकरी लग गई है फैक्टरी में..."
सुन कर दसरथ की आँखों में न ख़ुशी के आँसू छलके न दुःख से आँखे
भीगीं। बस मिठाई ले कर खा लिया। उसके केस के बारे में तो फूलो
ने पूछना ही छोड़ दिया था। लेकिन दसरथ ने उसे सब कुछ बताया इस
इंतजार में कि बच्चे बड़े हो गए हैं, शायद वकील, कचहरी, भाग दौड़
कर उसे निकल लें। लेकिन मुँह से कहने की हिम्मत नहीं हुई। और
फिर फूलो चली गई।
उसके बाद से दसरथ के मन में एक आस लगी रहती कि उसके बच्चे उसे
यहाँ से छुड़ा कर ले जायेंगे। अब तो दोनों जवान हो गए हैं,
नौकरी करने लगे हैं।
माँ से सब कुछ सुन कर दोनों भाइयों के मुँह खुले के खुले रह
गए। अब दोनों भाइयों ने भाग दौड़ शुरू की। और जब सच्चाई सामने
आई तो दोनों भाई आश्चर्यचकित रह गए। दसरथ पासवान के नाम के आगे
अंकित था- “भगोड़ा”।
कानून का यह भद्दा मजाक देख कर दोनों दंग रह गए।
अब उन्हें यह साबित करना था कि वही दसरथ पासवान है। यह इतना
आसान नहीं था। पुलिस महकमा भी इस तथ्य को बाहर आने देना नहीं
चाहता था। लेकिन अब दोनों बच्चे जवान थे। अन्याय के खिलाफ लड़ने
की ताकत थी उनमें। किसी तरह भाग दौड़ कर, कुछ रसूख वालों की मदद
से अपने पिता की फिंगर प्रिंट की प्रति निकलवाने में दोनों भाई
सफल रहे जो उनके हिरासत में लेने के बाद पुलिस विभाग द्वारा ली
गई थी। और इस प्रमाण के साथ वो अदालत गए तो यह साबित हो गया कि
वही दसरथ पासवान है, और वह निर्दोष भी है। सिर्फ एक कमरे से
दुसरे कमरे तक फाइल पहुँचाने वाला चपरासी भला घपला कैसे कर
सकता है। और रही घूसखोरी की बात तो चाय पानी के लिए पच्चीस
रुपया लेने की सजा पच्चीस वर्षोँ की कैद तो नहीं हो सकती।
सारे तथ्यों को देखने समझने के बाद अदालत दसरथ पासवान को
निर्दोष घोषित करते हुए बाइज्जत बरी करती है। और उसके साथ जो
अन्याय हुआ उसके लिए शर्मिंदा है। आगे कभी किसी निर्दोष के साथ
ऐसा कुछ न हो इसके लिए प्रशासन को शख्त हिदायत देती है।
और इस तरह दसरथ बाहर निकल आया और अपनी पत्नी बच्चों के साथ घर
आ गया।
जिन्दगी की शाम में बाहर आ कर दसरथ को समझ में नहीं आ रहा था
कि हँसे या रोए। अपनी नियति पर उसका जी कर रहा था कि बुक्का
फाड़ कर रोए। लेकिन उसका गला, उसकी आँखें उसका साथ नहीं दे रहे
थे। उसके दो जवान बेटे उसे पकड़ कर, सहारा दे कर चल रहे थे।
बाबा- बाबा कह कर प्यार जता रहे थे। लेकिन उसकी संवेदनाएँ मर
चुकी थीं। जी चाह रहा था कि दोनों बेटों को खींच कर गले लगा ले
पर चुपचाप आँखे फाड़ कर उन्हें देखता रहा।
इन
सब के लिए किसे दोष दे। सरकार को, न्यायपालिका को, ब्यवस्था को
या तक़दीर को। भगवान राम का भी बनवास चौदह वर्षों में समाप्त हो
गया था। लेकिन उसका पच्चीस वर्षो तक चला। न्यायपालिका ने अपनी
भूल मान ली पर वह क्या उसकी जिन्दगी के वह पच्चीस वर्ष लौटा
सकेगी? इस गलती के लिए तो किसीको क्षमा भी माँगने का अधिकार
नहीं है। दसरथ की सूनी आँखें चीख चीख कर अपने पच्चीस वर्षो का
हिसाब माँग रही थीं।
समाचारपत्रों, टी.वी. रेडियो में समाचार थे- आखिर न्याय की जीत
हुई। दसरथ पासवान को रिहा किया गया। इसीलिए कहते हैं, देर है
पर अंधेर नहीं। |