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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में प्रस्तुत है
भारत से वर्षा ठाकुर की कहानी- संशय


“कहाँ जाना है बेटा?”
पिछले दस मिनट से मैं इस सवाल का जवाब मन में बुन रही थी। एक ठीकठाक-सा जवाब तैयार भी कर लिया था। पता ही था सामने वाली बर्थ पर बैठी आंटीजी थोड़ी देर में ये सवाल पूछेंगी ही। उनके लिये ये स्वाभाविक कौतूहल का विषय था, रात के बारह बजे, एक छोटे से बैग के साथ उस सुनसान से स्टेशन से अकेली चढ़ी लड़की। दिल्ली बंबई जैसे शहर हों तो बात समझ में भी आती है, पर उस अलसाए से बंगाली कस्बे में ये बात हजम सी नहीं हो रही थी।

अधिकांश लोग सो चुके थे, पर आंटीजी को शायद नींद नहीं आ रही थी। शायद अपने सहयात्रियों की खोजखबर लिये बिना नींद आती भी नहीं। मैंने हमेशा की तरह ऊपर वाला बर्थ बुक करने की कोशिश की थी पर बीच वाला मिला था। एक किताब रख ली थी, ताकि हाथ में रहे तो लोग फालतू बातें करने से बचें। ये मेरा पुराना अनुभव था, अकेले रहो तो ऊपर की बर्थ और उपन्यास में सफर गुजार दो, वर्ना सहयात्री अपने सवालों की लिस्ट लेकर तैयार रहते। कभी कभी तो बात फोन नंबर तक पहुँच जाती और टालना ही मुश्किल हो जाता।

पर अभी तो तीर कमान से निकल चुका था। यक्षप्रश्न पूछ लिया गया था और अब जवाब का इंतजार था।
“जी मैं..मैं इंदौर जा रही हूँ।“
“अच्छा? हम भी वहीं जा रहे हैं! इंदौर में कहाँ पर?”
ओफ्फो! ये भी वहीं तक! अब मेरे झूठ बोलने की परीक्षा शुरू हो चुकी थी। एक के बाद एक कहानी गढ़ने की, उसे विश्वसनीय बनाने की। पर मैं भी कोई कम थोड़े थी, सब सोचके रखा था मैंने।
“जी मैं पहली बार जा रही हूँ तो मुझे जगह के नाम पता नहीं। मुझे लेने स्टेशन में कोई आ जाएँगे।“
“अच्छा, पहली बार? वहाँ आपके कोई रिलेटिव रहते हैं?”
“जी रिलेटिव नहीं, मेरी फ्रेंड है उसी के घर जा रही हूँ।“ ये थोड़ा सही बहाना था। लड़की सुनके ज्यादा सवाल नहीं पूछेंगे। रिलेटिव बोलने से तो पूरी खानदान की परतें खुलवाने की तैयारी हो जाती।
“तो आप इतनी दूर फ्रेंड से मिलने जा रहे हो।“ आंटी के लहजे में थोड़ा अविश्वास था। बात उन्हें हजम नहीं हो पा रही थी। पर सच्चाई बता देती तो जाने उनका क्या हाल होता।
“जी।“
“बेटा आप पढ़ती हो या जॉब करती हो?”
“जी जॉब करती हूँ।“
“तो छुट्टी लेके जाना पड़ता होगा न।“
मैं समझ गई थी कि उन्हें ये बात कभी हजम नहीं होगी कि मैं नौकरी से छुट्टी लेकर अपने घरवर न जाकर “फ्रेंड” के पास जा रही हूँ। पर उन्हें यकीन दिलाना जरूरी था, वर्ना वो मुझे चैन से सफर करने नहीं देतीं। मैंने मन ही मन सोचा, और उस कथित फ्रैंड की जिंदगी का एक महत्वपूर्ण फैसला किया।
“जी मेरी फ्रैंड की शादी है इसलिये जा रही हूँ। “
अब आंटीजी के चेहरे पर सुकून फैल गया। सहेली की शादी हो तो फिर तो जा ही सकते हैं इतनी दूर अकेले। अब वे चैन से सो सकती थीं।
पर मेरी नींद उड़ गई थी। एक झूठ छुपाने के लिये अब सौ झूठ बोलने थे। कल का पूरा दिन था, जाने आंटीजी और कितने सवाल पूछें। और सबसे बड़ी बात, जिसे सोच सोचकर मेरा दिल बैठा जा रहा था... अगर अगले कुछ दिनों में किसी कारण शादी का मुहूर्त ही न होता हो तो? तब तो आंटीजी तुरंत समझ जाएँगी कि ये सब झूठ है। हम छोटे शहरों वाले कितना भी बदल जाएँ, शादी बिना मुहूर्त के नहीं करते। तो अगर ऐसा कुछ हो तो मुझे कथित सहेली का धर्म परिवर्तन कराना पड़ेगा। ईसाई बना दूँगी, हाँ ये सही रहेगा।

और फिर ऊपर की बर्थ पर लेटे लेटे मेरे मन में विचार आया, क्यों न कल मैं इन्हें सच बता दूँ। बता दूँ कि अपने मंगेतर के दीक्षांत समारोह के लिये जा रही हूँ, आइआइएम इंदौर में। पर क्या वो ये बात हजम कर पाएँगी? शादी से पहले अकेले जाके मंगेतर से मिलना, फिर वो कितना भी जानामाना कॉलेज क्यों न हो, आंटीजी की सुई तो वहीं अटकनी थी। उन्हें क्या समझाती कि कौन्वोकेशन सैरेमनी वो भी आइआइएम की, अपनेआप में किसी शादीब्याह से कम नहीं होती। पर सच तो ये था कि मैं अपनी निजी जिंदगी किसी ट्रेन में बैठे सहयात्री के साथ शेयर ही नहीं करना चाहती थी। आखिर क्यों बताऊँ उन्हें अपने मंगेतर से जुड़ी बातें।

तो कल मुझे उनसे बचके रहना था। उन्हें सवाल पूछने का मौका ही नहीं देना था। काश मुझे अपर बर्थ मिल गई होती।
ट्रेन थोड़ी लेट चल रही थी। इंदौर का सही समय कल रात दो बजे था, पर इससे पहले वाली ट्रेन सुबह पाँच बजे पहुँची थी। इससे भी खास कोई उम्मीद नहीं थी। बेचारा राघव, मुझे लेने आने के चक्कर में ठीक से सो भी नहीं पाएगा। और फिर मुझे होटल के उसी रूम में छोड़ देगा जहाँ मेरे होने वाली सास व ननद रुकी हुई होंगी। दो पल चैन से बात भी नहीं हो पाएगी। पर शादी से पहले तो प्राइवेसी जैसी कोई चीज होती भी नहीं हमारे देश में। खैर।

अगले दिन मैं सुबह से उपन्यास खोलके बैठ गई। अब वही मुझे झूठ के सिलसिले से बचा सकता था। आंटीजी के साथ उनकी बहू भी थी, शायद मेरी हमउम्र। और साथ में था दुनियाभर का गृहस्थी का सामान, बोरों में, पेटियों में। नाश्ते के वक्त उन्होंने मुझे बताया कि वे कलकत्ता में रहते थे पर अब अपने घर इंदौर शिफ्ट हो रहे थे रहने के लिये। इसीलिये इतना ग्रहस्थी का सामान यहाँ से वहाँ करना पड़ रहा था। स्टेशन में उनके बेटे आने वाले थे लेने के लिये।
अब वे थोड़ा मेरी तरफ से निश्चिंत लग रही थीं, इसलिये मेरे बजाय अपने बारे में बताए जा रही थीं। बेटों, बेटियों, बहुओं के बारे में। मैं भी अब थोड़ा निश्चिंत हो गई थी कि अब और सवालजवाब नहीं होंगे।

दोनों सास-बहू आपस में भी खूब बतियाती थीं। देखके लगता था कि आपस में खूब छनती होगी इनकी। पर ट्रेन का सफर अच्छे-अच्छों की पोल खोलने के लिये काफी था। भला कोई चौबीस घंटे नाटक थोड़ी कर सकता है। तो होता ये कि जब सास टॉयलेट जाती तो बहू उनकी चुगली शुरू कर देती और जब बहू टॉयलेट जाती तो सास उसकी! मेरे सामने जैसे कोई रंगमंच चल रहा था। अब मुझे मनोरंजन के लिये उपन्यास की जरूरत नहीं थी। मैं मन ही मन कामना कर रही थी कि शादी के बाद मेरा भी वही हाल न हो जाय। पता नहीं महिलाएँ ही महिलाओं की दुश्मन क्यों हो जाती हैं। एक ही घर में रहते हुए ऐसा मनमुटाव? घर ही तो एक ऐसी जगह है जहाँ दुनियाभर का संघर्ष करके लोग सुकून पाने लौटते हैं। घर में भी खटरपटर होगी तो इंसान कहाँ जाएगा?

खैर, वक्त कटता जा रहा था। ट्रेन दो घंटे लेट चल रही थी और आंटीजी ने फोन पर बेटे को बता भी दिया था। पर कई बार ये ट्रेन रास्ते में कवर भी कर लेती थी। राघव ये बात जानता था। आंटीजी को भी मैंने बता दिया था ताकि वो बेटे को फोन पर बता दें।

दोपहर खाने के बाद सब लोग लेट गये और सीधा शाम छः बजे चायवाले की आवाज के साथ उठे। वक्त ही तो काटना था, काहे की जल्दी। इंसान को हर कुछ महीनों के बाद एक ट्रेन यात्रा जरूर करनी चाहिये, क्योंकि जब आपके पास करने को कुछ नहीं रहता तो आप बीते वक्त को याद करते हैं, आत्ममंथन करते हैं, अपनी जिंदगी से इतर दूसरी जिंदगियों के साथ वक्त व जगह बिताते हैं, कुछ नया अनुभव करते हैं। भागदौड़ भरी जिंदगी में ऐसा और संभव कहाँ? फ्लाइट में तो लोग बगल में झाँकते तक नहीं, नये अनुभव क्या जुटाएँगे।
आंटीजी के चेहरे पर फिर से शिकन आ गई थी। शायद लेटेलेटे फिर दिमाग चल गया। थोड़ी इधरउधर की बातें करने के बाद वे मुद्दे पर आ गईं।
“बेटा मैं आज शाम से ये बात सोच रही थी। अभी तो नवरात्रे चल रहे हैं। आजकल तो शादी का मुहूरत होता नहीं।“
पता नहीं इनका इतना दिमाग क्यों चलता था, अरे दुनिया में बिना मुहूरत के शादियाँ नहीं होतीं कया? इनकी नाक क्यों लंबी होती जा रही थी?

खैर, अब परम झूठ बोलने की बारी थी। मैं सोच रही थी, इस घटना के बाद जब मैं ट्रेन से उतरूँगी तो जिंदगीभर सच कहूँगी और सच के सिवा कुछ नहीं कहूँगी!
“जी अभी शादी नहीं है, वो तो अगले महीने है। मैं तो उसको शादी की शॉपिंग में मदद करने जा रही हूँ। अगले महीने छुट्टी नहीं मिलेगी इसलिये अभी जा रही हूँ।“
मुझे पता था ये झूठ बिल्कुल भी हजम होने लायक नहीं था। आंटीजी दो पल मुझे एकटक देखती रहीं, मानो सोच रही हों ये बात मैंने उन्हें कल रात क्यों नहीं बताई। कैसे बताती, मुझे खुद भी तो पता नहीं था!
“वही मैं सोचूँ, आजकल तो कोई मुहूरत नहीं है। शादीब्याह कोई बिना मुहूरत थोड़ी करता है। “
“जी आंटी।“
बात खत्म हो गई थी, पर बात खत्म नहीं हुई थी।

धीरेधीरे ट्रेन ने रफ्तार पकड़ ली। राघव ने फोन पर बताया था कि ट्रेन ज्यादा लेट नहीं होगी। वो दो बजे तक स्टेशन पहुँचने वाला था। आंटीजी अपनी बहू के साथ बात कर रही थी। शायद बेटा दो घंटा लेट मानकर चल रहा था। फिर भी मुझे लगा कि वो कम से कम स्टेशन में पता तो करेगा, ऐसे ही निश्चिंत होकर सो तो नहीं जाएगा। दोनों लेडीज इतने सारे भारीभरकम ग्रहस्थी के सामान के साथ। अगर ट्रेन पहले पहुँच गई तो सामान उतरेगा कैसे। रात को कुली भी कहाँ आसानी से मिलते। दस मिनट का स्टॉपेज था, सामान सहित किसी भी हाल में बाहर निकलना ही था।

और मेरा अंदेशा सही निकला। ट्रेन ढ़ाई बजे स्टेशन पर खड़ी हो गई। आंटीजी और बहू दोनों झाँकझाँककर बेटे को ढूँढ रहे थे। फोन भी नहीं उठा रहा था। शायद घर पर सोया हुआ था। दोनों के चेहरे पर एक अजीब सी बेबसी थी।

राघव अंदर आ चुका था। पर मेरा ध्यान आंटीजी की तरफ ही था। मैंने राघव को बताया, और हमने मिलकर उनका सामान उतरवा दिया और प्लेटफॉर्म में बैठने की जगह के पास जमा दिया। एकाध कुली थे पर वो दूसरे यात्रियों को पकड़ चुके थे। आंटीजी कभी मुझे देखतीं कभी राघव को। उनकी अनुभवी नजर सब भाँप चुकी थी, पर अब उनमें संशय नहीं था। वो अपनापन जो घर पर सोते बेटे के लिये सहेजकर रखा था, शायद वही छलक आया था।

१ फरवरी २०१८

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