फाग
का महीना चल रहा था। ठण्ड अभी दिल्ली में पाँव पसारे थी। सुबह
शाम मजे की सिहरन हो जाती थी। गरम कपड़े छूटे न थे। बसंत के
आगमन की सूचना झड़ते पत्तों से मिलने लगी थी। हरीश जोशी दफ़्तर
से निकल कर सीधे आई. टी. ओ. के मुख्य बस स्टॉप पर आता है। उसकी
कलाई घड़ी शाम के पौने छः बजा रही है। उसे हौज खा़स जाना है। आज
शाम से किशोरदा के घर पर कुमाऊँनी होली की बैठक है। वो कुछ
गुनगुना रहा है। उसके चेतन में किसी गीत के बोल सुर-ताल में चल
रहे हैं। सड़क पर सुरक्षित चलने में अवचेतन में बसा पुराना
अनुभव और अभ्यास ही उसका मार्गदर्शन कर रहे हैं।
रोज़गार की तलाश में कुमाऊँ के पर्वतीय अंचलों से कई परिवार
दिल्ली आ बसे। जनता कॉलोनियों से ले कर पॉश इलाक़ों तक में
इन्होंने अपने आशियाने बना लिये। ये परिवार कुमाऊँ की अन्य
लोक-परम्पराओं के साथ दशहरे में रामलीला के मंचन की तथा फागुन
में होली की बन्दिशें गाने की अत्यन्त समृद्ध परम्परा को साथ
ले कर आये। दशहरे और फागुन के दौरान कुमाऊँनी परिवारों में
आन्चलिक रस से भरपूर एक अजब सा उत्साह छा जाता। फागुन में
राधा-कृष्ण के प्रेम से सम्बन्धित विभिन्न राग-रागिनियों में
निबद्ध शृंगार रस की होली की बंदिशों को रात भर किसी न किसी के
घर पर महफ़िल सजा कर गाने की परम्परा थी।
कहा जाता है कि जो दिल्ली गया सो दिल्ली का हो गया। प्रवासी
कुमाऊँनी परिवारों को भी दिल्ली भा गयी। वे इसमें रच-बस गये।
अधिकांश का दशहरे-होली के दौरान अपने-अपने शहर, क़सबे, गाँव
जाना धीरे-धीरे कम हो गया। उन्होंने दिल्ली में ही पहाड़ बसा
लिया। होली के दौरान होली गायकी की महफ़िलें दिल्ली में ही सजने
लगीं। कुमाऊँ के युवा-बुज़ुर्ग होलियार कहीं न कहीं मिल बैठते
और होली गा कर अपनी हुड़क मिटाते।
इस समय हर साल की तरह हरीश पर कुमाऊँनी होली गायकी की बैठकी का
नशा बुरी तरह चढ़ा हुआ था। रोज़ कहीं न कहीं बैठक हो ही रही थी।
आज किशोरदा के घर पर है। अचानक गुनगुनाना छोड़ चैतन्य हो, हरीश
अब हौज ख़ास की ओर जाने वाली बस पकड़ने के लिये आने वाली बसों
पर पैनी निगाह रखने लगा।
अचानक उसे लगा कि जो बस अभी-अभी आगे जा कर रुकी है, उससे अन्य
लोगों के साथ गौरदा भी उतरे हैं। हाँ, गौरदा! यानी गौरी दत्त
तिवारी। कुमाऊँनी होली गायकी के अप्रतिम नायक!
गौरदा लगभग पचास की उम्र के सामान्य कद और गौर वर्ण के पिचके
गालों वाले अधेड़ व्यक्ति थे। तथापि, पास से देखने पर उनकी
आँखों से एक कच्ची उम्र का कल्पनाशील व्यक्ति झाँकता दिखाई
देता था। शरीर दुबला-पतला, बाल हल्के घुँघराले, पीछे की ओर
काढ़े हुए। ओठों के दोनों किनारे पतली लकीर बन कर गालों में
थोड़ा अन्दर चले गये थे। हरीश उनसे लगभग दस वर्ष छोटा रहा होगा।
स्वेटर, मफ़लर और चाल से हरीश को गौरदा को पहचानने में कोई
दिक्कत नहीं हुई। इन दिनों गौरदा होली की बैठकों में दिखाई
नहीं पड़ रहे थे। उनके बिना सारी बैठकें 'नमक बिना व्यंजन जैसे’
हाल पर चल रही थीं। दिल्ली जैसे बड़े शहर में उनकी अनुपस्थिति
के कारण का पता न चल पा रहा था। खोज जारी थी। अनुमान था शायद
अल्मोड़ा चले गये इस बार। अप्रत्याशित रूप से गौरदा से टकरा
जाने पर उत्पन्न उत्साह को नियन्त्रण में रख भीड़ को हटाते हुए
तेजी से चलकर हरीश ने गौरदा को लपक लिया और ज़ोर से ललकारा
‘गौरदा ऽ..ऽ...ऽ........! ओ गौर दा ऽ..ऽ..!’ गौरदा ने
अन्यमनस्क भाव से पीछे मुड़ कर देखा। अब हरीश उनके बराबर से चल
रहा था। बेबाकी से उसने उलाहना दी। ‘हद कर दी गौरदा, आपने। फाग
बीतने को आ रहा है। एक भी बैठक आपने अटेन्ड नहीं की। हम तो समझ
रहे थे कि आप शहर में ही नहीं हैं। ऐसी भी क्या नाराज़गी?
ख़ैरियत तो है?’ पर गौरदा के चेहरे की मायूसी देख कर उसका
उत्साह थोड़ा ठण्डा पड़ गया था।
गौरदा ने कुछ क्षण हरीश के चहरे की ओर देखा, जैसे उसे पहचानने
की कोशिश कर रहे हों। फिर अभिवादन में धीरे से मुस्करा कर
बोले। उनकी आवाज़ में हताशा थी।
‘क्या कहूँ, बड़दा की तबियत ठीक नहीं है। कहो तो बिस्तर पर ही
लग गये हैं। डाक्टर कहते हैं कि लिवर खराब है, पीलिया के लक्षण
हैं, कुछ भी हो सकता है। अभी बायोप्सी की रिपोर्ट नहीं आयी है।
आजकल शनिवार को दफ़्तर से सीधे बड़दा के पास चला जाता हूँ और
इतवार को वहीं रहता हूँ। दोनों भाई सुख-दुःख कर लेते हैं।
नानदा पहले ही चला गया! पता नहीं क्या-क्या देखना है अभी। ऐसे
में कैसा फाग, कैसी होली की बैठक!’ इतना कह कर गौरदा ने गहरी
साँस भरी और दूसरी ओर ताकने लगे।
थोड़ी देर के लिये दोनों के बीच मौन ने स्थान ले लिया। फिर
गौरदा सकुचाते हुए हरीश की ओर देखकर बोले-‘हरीश, तू ही सोच,
क्या मेरा मन नहीं करता होगा बैठकों में गाने को। तू तो कल का
बना होलियार हुआ। मैं तो बचपन से होलियों को जी रहा हूँ। और
क्या कुछ नहीं खोया मैंने इस संसार में, इन्हीं होलियों को
जीने के लिए। सुन मेरे यार! अब सुनता है, तो सुन! मैं तो
बी.एस.सी. ही नहीं कर पाया, इस होली की दीवानगी में! इधर
इम्तहान का सीज़न शुरू उधर अल्मोड़ा में होली की बैठकों का। तीन
बार फेल हुआ। ग्रेज्युएट न हो पाया। टूट गया था मैं। वो तो
बड़दा की सूझबूझ थी, मुझे अल्मोड़ा से दिल्ली अपने पास ले आये और
स्टेनोग्राफी सिखाकर यहाँ नौकरी दिलवा दी। नहीं तो कौन पूछ रहा
था इण्टर पास को। तभी तो मैं बड़दा को इतना मानता हूँ। उनकी
बीमारी के आगे क्या हुई ये होली की बैठक-वैठक! अगर उनके लिये
जान भी दे दूँ तो भी उऋण नहीं हो पाऊँगा उनके उपकार से।’ गौरदा
का चेहरा वेदना से भरा हुआ था।
थोड़ी देर उनके बीच फिर वार्तालाप ठप रहा। दोनों सड़क के किनारे
फ़ुटपाथ पर खड़े थे। हरीश इस समय गौरदा और उनके बड़दा के आपस के
सम्बन्ध में नहीं जाना चाहता था। अभी उस पर होली की बैठक का
भूत सवार था। हरीश चाहता था गौरदा कम से कम आज तो होली की बैठक
में ज़रूर गाएँ। हरीश ने चुप्पी तोड़ी, ‘गौरदा सब ईश्वर का विधान
है। अपने भाग्य को इस तरह न कोसिये। ये देखिए कि ईश्वर ने आपको
उपहार में क्या दिया है। शायद आपको इस बात का अहसास न हो, पर
मैं आपको बताता हूँ।
सुनिये! आप इस जगत में केवल होली गाने के लिए पैदा हुए हैं।
ज़रा सोचिये! आज कुमाऊँ में है कोई आपके जैसा होली गाने वाला?
आप कुमाऊँ के रत्न हैं, रत्न! गौरदा, अपने भाग्य को कम न
आँकिये।’
हरीश बोलते-बोलते आवेश में आ चुका था। थोड़ी देर चुप रह कर उसने
फिर बात बढ़ाई। अभी उसका आवेश पूरी तरह शान्त नहीं हुआ था। भाषा
में अतिरंजना शामिल थी ही। ‘क्या बताऊँ गौरदा! बैठकों में आपकी
कमी कितनी खल रही है। हमें तो लगता है हारमोनियम-तबला भी रो
रहे हैं, आपके लिये इस फाग में।’
हरीश के आवेश भरे आलाप से गौरदा हिल गये थे। उनके भीतर के
कलाकर ने जैसे करवट ली। वे बोले, ‘हरीश यार! क्या कहूँ,
अन्दर-अन्दर तो मैं भी रो रहा हूँ। इधर बड़दा की बीमारी, उधर
होली न गा पाने की कसक! क्या बताऊँ बन्धु! कितनी पीड़ा है। मैं
तो जन्म से ही सुर का मारा हुआ।’
वार्तालाप ने दोनों के बीच अब एक भावात्मक सेतु बना दिया था।
हरीश को गौरदा की स्थिति से संवेदना हो आई। अब वो उनके मुँह से
होली सुनने की जुगत करने के साथ यह भी सोचने लगा कि आज गौरदा
किसी न किसी प्रकार होली गा लें ताकि उनके मन की भी भड़ास निकल
जाये। कुछ देर सोचने के बाद वो बोला।
‘ऐसा करते है गौरदा, सुनिए! आज हौज ख़ास में किशोरदा के घर पर
होली की बैठक है। पहले वहाँ चलते हैं। वहाँ से आपके बड़दा का घर
पास ही है। बस एकाध घंटा आप वहाँ अपनी पसंद की कुछ होलियाँ
सुना दीजिए, उसके बाद दस बजे से पहले किशोरदा का लड़का आपको
बड़दा के घर छोड़ देगा। आपके दोनों काम हो जायेंगे। फिर ऐसा कोई
बुरा भी तो नहीं हुआ है आपके घर जो फाग में होली न गा कर घर के
लिए असगुन करें?’
किशोरदा की पत्नी कुसुम गौरदा की मौसेरी बहन लगती थी। अच्छी
होली गाने के कारण गौरदा को बहन-बहनोई के घर अतिरिक्त स्नेह
मिलता था। किशोरदा भी पक्के रसिक मन के थे। होली मर्मज्ञ।
गौरदा भी अपनी बहन के घर बड़े मनोयोग से होली गाते थे। दिल्ली
के होलियारों को किशोरदा के घर की होली की बैठक के लिये विशेष
उत्साह रहता था।
हरीश की बातों से गौरदा की आँखों के आगे किशोरदा के घर की होली
की बैठक का पूरा दृश्य घूम गया-- एक बड़े सुसज्जित कमरे में
दीवारों पर लगे पीले बल्बों की रोशनी से जमीन पर बिछा
वॉल-टू-वॉल गाढे़ रंग का कालीन खिला हुआ है। कुछ दीवारों से
टिके और कुछ बीच में हारमोनियम-तबले के इर्द-गिर्द, फाग की
मस्ती में चूर गुलाल से रँगे-पुते मर्मज्ञ श्रोता, होलियार
बैठे हैं। अन्दर के दरवाजे से ट्रे में भर-भर कर आलू के गुटके
और चटनी पत्तों के दोनों में कमरे में लाये जा रहे है। किन्तु
हारमोनियम पर होली गाने वाले का चेहरा स्पष्ट नहीं है। गौरदा
को लगा हारमोनियम और तबले की जोड़ी उन्हें घुटे-घुटे स्वर से
पुकार रहे हैं। उनको लगा उनके कानों में कहीं से आवाज़ आई,
‘गौरदा! गौरदा!’
गौरदा अपने ही बनाये दृश्य को बरदाश्त नहीं कर सके। उनकी
बेचैनी अत्यधिक बढ़ गयी और साँस गहरी चलने लगी। उन्हें अपने
अन्दर कुछ पिघलता सा महसूस होने लगा जिसे बाहर आने से रोकने
में वो अपनी पूरी सामर्थ्य लगाये हुए थे। उनकी एक पसंदीदा होली
के शब्द सुरों के साथ उनके मन-मस्तिष्क को आन्दोलित किये जा
रहे थे। सहसा कल्पना में वे अपने को किशोरदा की महफ़िल में गाता
हुआ देखने लगे।
‘सारी डार गयो मो पे रंग की गागर
मैं जो भूल से देखन लागी उधर,
बड़ा धोखा हुआ
बिन होरी खेले जाने ना दूंगी
जाते कहॉं हो छैला आओ इधर’
गौरदा अपनी ही कल्पना के विकास-क्रम में फँसते जा रहे थे।
अँगुलियाँ जाँघ पर ऐसे चल रही थीं जैसे हारमोनियम पर। मन में
लय-ताल चलने लगी थी। उन्हें लगा कि कहीं वो सड़क पर ही न गाने
लगें। उन्होंने अपने को सम्भालने की कोशिश की। तत्काल उनकी
आँखों से होली की महफ़िल का दृश्य हट गया और बिस्तर पर पड़े
कृषकाय बड़दा का चेहरा आ गया। उन्होंने हरीश की ओर एक दुख भरी
नज़र डाली और उसके प्रस्ताव पर नहीं की शैली में अपना सिर यूँ
हिलाया जैसे चलती ताल में ‘सम’ आने पर संगीतकार अपना सिर
हिलाते हैं।
वे भर्राये गले से बोले- ‘नहीं हरीश नहीं। मुझे तेरा प्रस्ताव
मंजू़र नहीं।’ ऐसा कहते-कहते उन्हें लगा कि जैसे उनके पेट के
अन्दर से कोई गोल सा पदार्थ पूरे दबाव के साथ ऊपर उनके गले की
तरफ़ उठ रहा हो। उन्हें लगा कि वे अपनी रुलाई शायद ही रोक
पायेंगे। उन्होंने दोनों जबड़ों को परस्पर ज़ोर से भींच कर किसी
तरह गले की ओर उठती लहर को पेट की ओर वापस ढकेला। ‘ए लम्प रोज़
इन हिज़ थ्रोट।’ बड़दा ने उन्हें अंग्रेज़ी पढ़ाई थी। गौरदा को
बड़दा से मिलने की इच्छा यकायक बलवती हो गयी। उन्हें ध्यान आया,
बड़दा उन्हें कितने मनोयोग से पढ़ाते थे।
पर हरीश तो जैसे आज हार मानने को तैयार ही न था। उसने थोड़ा समय
गौरदा को सहज होने के लिये दिया फिर एक मनोवैज्ञानिक की तरह
बोला- ‘गौरदा! मैं आपका असमंजस और पीड़ा दोनों को अच्छी तरह
समझता हूँ। पर मुझे लगता है आप इस मामले में थोड़ा ज्य़ादा ही
सेन्सिटिव हो गये हैं। ज़रा समग्रता से सोच कर देखिये- अगर थोड़ी
देर आप किशोरदा के घर पर होली गाने के बाद बड़दा के घर जाते
हैं, तो इसमें क्या हानि-लाभ हैं। मुझे तो लगता है कि इसमें
कोई हानि नहीं। बल्कि लाभ ही लाभ हैं। बड़दा के घर आप जा ही रहे
हैं। रास्ते में सगुन भी हो जायेगा। और समाज के प्रति भी तो
आपका कुछ दायित्व है? ईश्वर की दी हुई प्रतिभा का लाभ समाज को
भी मिलना ही चाहिए।’ हरीश ने देखा उसकी बातों का गौरदा पर
अनुकूल प्रभाव पड़ा है। उसने अवसर देख कर बलपूर्वक गौरदा से
पूछा, ‘बताइये? गौरदा बताइये? क्या मैं कुछ ग़लत कह रहा हूँ?’
गौरदा अब अपने को हरीश के आगे बेबस सा महसूस कर रहे थे। हरीश
की बातों को काटने के लिये उनको कोई जबाब सूझ नहीं रहा था।
उनके अन्दर ज़बर्दस्त उहापोह चल रहा था। उनको हरीश की ‘सामाजिक
दायित्व’ वाली दलील में दम नज़र आने लगा। वे सोचने लगे अगर
ईश्वर ने उन्हें कुछ विशिष्ट दिया है तो उन्हें इसे समाज में
बाँटना ही चाहिये। और फिर वो बड़दा को छोड़ भी कहाँ रहे हैं।
किशोरदा के घर थोड़ी देर होली गा कर लोगों का मनोरंजन कर वे
बड़दा के पास देर रात तक चले जायेंगे। ‘सामाजिक दायित्व’ और
‘व्यक्तिगत दायित्व’ उन्हें यकायक परस्पर ‘पूरक’ और ‘सम्पूरक’
लगने लगे थे।
गौरदा के चेहरे के भावों में हुए परिवर्तन को पढ़ कर हरीश समझ
गया कि गौरदा ढीले पड़ गये हैं। उत्साहित हो कर उसने इसे अपनी
विजय मान लिया और बोला, ‘गौरदा प्लीज़! अब फ़ालतू सोच कर समय न
ख़राब करिये। प्लान के मुताबिक़ हम किशोरदा के घर तुरन्त निकल
चलते हैं।’
वैसे गौरदा सांसारिक विषयों में थे पक्के संयमी। किसी रूपसी का
खुला निमंत्रण भी उनको बड़दा के पास जाने से नहीं रोक सकता था।
पर कहाँ राधा-कृष्ण के मस्त-मस्त प्रेम की रंगीन फुहार से
भीगती-भिगाती, सुर, लय, ताल और कविता भरी होली की बैठक, जिसकी
अमिट ख़ुमार मृत्युपर्यन्त चले, और कहाँ रूपसी के प्रेम के
ज्वार का क्षणिक नशा!
हरीश की आत्मीय और सशक्त दलीलों के आगे गौरदा परास्त हो चुके
थे। जिस फागुन की दस्तक की अनसुनी वे इन दिनों लगातार
सफलतापूर्वक करते आ रहे थे, वही फाग उनके मन का दरवाज़ा तोड़
हँसता-खेलता, अपनी पूरी छटा के साथ धड़धड़ाता अन्दर घुस कर उनकी
पोर-पोर में समा चुका था। बड़दा की बीमारी का तनाव शिथिल हो कर
सामान्य स्तर पर आ गया था। उनके मन में अब फाग की रंग-बिरंगी
फुहार भरी होलियों के शब्द और सुर आकार लेने लगे थे।
तभी हवा का एक ख़ु़शबू भरा झौंका आया, और गौरदा ने उस वर्ष की
फागुनी बयार को पहली बार अपने अन्तर्मन तक महसूस किया। नव-बसंत
की बयार ने उनके क्लेश की परत को जैसे उड़ा दिया। वे फागुनी
मस्ती के हाथों बिक गये। उनका मन पुलक उठा और आँखों में बसंत
उमड़ आया। 'आयो नवल बसंत, सखी, ऋतुराज कहाए।’ हरीश समझ गया कि
गौरदा की आँखों में गुलाल पूरी तरह झुंक चुका है और अब वे वहाँ
नहीं हैं। तभी उसकी नज़र हौज ख़ास जाने वाली बस पर पड़ी जो उनकी
ओर स्टॉप पर आ रही थी। उसने लगभग चिल्लाते हुए गौरदा को
झिंझोड़ा, ‘गौरदा देखिये! वो हौज ख़ास वाली बस आ रही है।
दौड़िये! जल्दी!’ गौरदा को पीछे-पीछे आने का संकेत कर हरीश
रुकती हुई बस की ओर दौड़ा। हरीश के झिंझोड़ने से गौरदा तन्द्रा
से बाहर आ गये। वे अब अपने को बेहिचक महसूस कर रहे थे। रही-सही
बहस को हरीश द्वारा बस की और दोड़ने के संकेत ने अर्थहीन कर
दिया था। उन्होंने भी अब आव देखा न ताव और बेतहाशा हरीश के
पीछे बस की ओर भागे।
हौज़ ख़ास की ओर दौड़ती बस में दोनों के बीच संवाद न हुआ। हरीश
कनखियों से बीच-बीच में गौरदा की ओर देख कर गद्गद् हो रहा था।
जैसे वो कोई इन्सान न होकर हरीश द्वारा जीती गयी ट्रॉफी हों।
वो अपनी इस महान उपलब्धि पर मन ही मन इठला रहा था और सोच रहा
था कि किशोरदा उसके इस अप्रत्याशित उपकार को क्या कभी भुला
पायेंगे? उसने देखा अब गौरदा आत्म विश्वास से भरपूर दिख रहे
थे। उसको विश्वास हो चला था कि आज की शाम गौरदा होली की बैठक
में रस की बरसात ही कर देंगे। उसने मन ही मन अपने और आज के
होलियार श्रोताओं के भाग्य को सराहा।
किशोरदा के घर जाने में गौरदा का मन प्रफुल्लित सा हो रहा था।
किशोरदा न केवल साहित्य के मर्मज्ञ थे बल्कि एक पक्के रसिक
होलियार भी थे। अपने ऊँचे ओहदे और पैसे का सदुपयोग वे अपने घर
पर साहित्यिक गोष्ठियाँ करवाने और संगीत की महफिलें सजाने में
करते। फाग में उनके घर की होली की बैठक का एक अलग ही रंग होता,
एक अलग ही छटा होती थी। उनके घर के ऊपर का पूरा हॉल और लगा हुआ
बरामदा दिल्ली के रसिक पर्वतीय होलियारों से भरा रहता। कुमाऊँ
के बड़े-बड़े अफ़सरान भी किशोरदा के घर की होली में शिरकत करने से
नहीं चूकते थे।
आखि़र हौज़ ख़ास के स्टॉप पर बस रुकी और वे दोनों उतर कर
किशोरदा के घर की ओर लपके। किशोरदा का घर मुख्य सड़क से थोड़ी ही
दूर पर था। घर के दुतल्ले की सीढियाँ चढ़ते गौरदा के कान में
बैठक से आती गाने की आवाज़ पड़ी। बैठक अभी शुरूआती दौर में थी।
कोई नौसिखिया अपना गला माँज रहा था।
"मुरली नागिन सों
कहा विधि फाग रचाऊँ
मोहन मन लीन्हो री।"
गौरदा अचानक ठिठक कर सीढ़ी के मोड़ पर रूक गये। हरीश भी रुका
रहा। नौसिखिये की होली की बन्दिश ने गौरदा को कुमाऊँ के
सुप्रसिद्ध कलाकार मोहन उप्रेती की याद दिला दी। उन्होंने ये
होली उन्हीं के श्रीमुख से दिल्ली में ‘भारतीय कला केन्द्र’
में ठेठ कुमाऊँनी अन्दाज़ में सुनी थी। वो उसी दिन से मोहन
उप्रेती की प्रतिभा के क़ायल हो गये थे। नौसिखिया डूब कर गाये
जा रहा था।
'ब्रज बावरो मोसे बावरी कहत है
अब हम जानी-
बावरो भयो नन्दलाल
मोहन मन लीन्हो री'
गौरदा के अब तक रोंगटे खड़े हो चुके थे। कुमाऊँ की उपत्यकाओं से
कोई गंधर्व उतर कर उनकी रूह पर क़ाबिज़ हो चुका था। उनके चहरे पर
एक अलौकिक आभा छा गयी और आँखों में एक चमक सी आ गयी थी। ओठों
के झुके हुए किनारे स्मित हास का आभास देने लगे थे। गौरदा ने
बची हुई सीढ़ियाँ लपक कर नापीं और बरामदे में पहुँच गये।
गौरदा ने होली की बैठक में ऐसे प्रवेश किया, जैसे वह स्थान
उनका सहज साम्राज्य हो। कई पर्दों वाले बढ़िया हारमोनियम और
तबले की जोड़ी देख कर उनका मन प्रमुदित हो उठा। ‘मानहु मीन मरत
जल पायो’। गौरदा के लिये अब होली गाने के अतिरिक्त इस संसार मे
कुछ भी अपेक्षित नहीं था। पत्नी, बच्चे, भूख, प्यास,
ईश्वर...और हाँ! बड़दा भी! सारा ऊबड़-खाबड़ समतल हो गया था।
दृष्टि अर्जुन की तरह साफ़ थी। लक्ष्य था- होली गायकी के रस में
डूबना-डुबाना।
गौरदा को देखते ही बैठक में उपस्थित समस्त रसिक जनों के दिल
बाग़-बाग़ हो गये। सबने आवाज़ देकर उनका स्वागत किया। किशोरदा
उम्मीद के विपरीत गौरदा को अपने घर में प्रकट देख उल्लास से भर
गये। उनको विश्वास हुआ कि उनका आज का आयोजन सफल होना ही है।
आगे बढ़कर उन्होंने गौरदा को सीने में भींच लिया। किसी ने आगे
बढ़कर गौरदा के माथे पर गुलाल का एक बड़ा टीका खींच कर बालों में
गुलाल भर दिया। अब गौरदा एक दम पक्के होलियार लग रहे थे।
नौसिखिया गाने वाले ने गौरदा का हाथ पकड़कर उन्हें बड़े आदर से
हारमोनियम वाली पीठिका पर बिठा दिया। गौरदा ने बैठक में
उपस्थिति होलियारों पर एक नज़र डाली। चिर-परिचित सुधी
रसिक-मण्डली को उपस्थित देख उनका उत्साह दूना हो गया। गौरदा
थोड़ी ही देर में हारमोनियम पर हाथ रख सन्नद्ध हो गये। तबला
वादक ने अपना स्थान ग्रहण कर लिया। बैठक में पूर्ण शान्ति छा
गयी।
गौरदा अब अपने मन में गाने के लिये होली की किसी सटीक बन्दिश
का चुनाव कर रहे थे। विविध राग-रागिनियों में निबद्ध अनेक
होलियाँ उनके मधुर कण्ठ का रस पीने के लिए उनके मन-मस्तिष्क
में कौंध-कौंध कर अपने चुने जाने का आग्रह सा करने लगीं। वैसे
गौरदा को सभी होलियों से समान अनुराग था। वे जिस होली को गाने
के लिए उठाते उसका सच्चे सुरों से पूरा शृंगार करके ही छोड़ते।
उनमें विलक्षण सांगीतिक सौंदर्य-बोध था।
इस बीच उनकी अँगुलियों का जादुई स्पर्श पा कर हारमोनियम जीवन्त
हो उठा था। गौरदा की होली की बन्दिश चुनने की दुविधा यदि कोई
थी, तो जैसे हारमोनियम के स्वरों से अनायास उभरी धुन ने उसको
स्वयं ही हल कर दिया। गौरदा के कण्ठ से विलम्बित लय में होली
की बन्दिश के बोल फूटे-
"बहुत दिनन के रूठे, कन्हैया
एजी रूठे कन्हैया
होरी में मनाये लाऊँगी"
तबला वादक ने पूरे आवेश और सतर्कता के साथ टुकड़ा बजाते हुए
‘लाऊँगी’ के ‘गी’ पर ताल का ‘सम’ दिखाया। श्रोताओं के मुँह से
सराहना की ‘आह’ और ‘वाह’ निकलने लगी। सभी श्रोताओं ने सजग हो
कर अपने-अपने स्थान पर अपनी-अपनी मुद्रा बदली और अधिक सतर्कता
और आनन्द के साथ गौरदा की होली गायकी का लुत्फ़ लेने लगे।
गौरदा की होली गायकी में ऐसी अद्भुत दमदारी और तबीयतदारी थी,
कि पूरी की पूरी महफ़िल बोल, सुर, ताल और लय में बंध-बिंध जाती
थी। उनकी गायकी में रस, भक्ति, अध्यात्म, संगीत की सूझबूझ और
कुमाऊँनी अंचल के लटकों-झटकों का ऐसा अनेाखा संगम था कि
श्रोताओं के मन आह्लाद से भर उठते।
अन्दर के कमरों में महिलाएँ बातचीत बन्द कर देतीं और आलू,
चटनी, चाय की तैयारी करते-करते कान गौरदा की गायकी को दिये
रहतीं। पूरे श्रोतागण मस्ती से सराबोर हो जाते। बन्दिश के
मुखड़े को कितनी देर गाना है, अन्तरा को कब उठाना है, किसी
पंक्ति को कितनी बार दुहराना है, कब तक तार सप्तक के स्वर ‘रे’
और ‘ग’ पर टिक कर अप्रत्याशित रूप से स्वर ‘म’ को छूते हुए
मध्य सप्तक में आ कर पद को पूर्ण करना है- ये सब गौरदा बख़ूबी
जानते थे। श्रोताओं के मन को जानने और उसे तृप्त करने में जैसे
उन्हें सिद्धि प्राप्त थी। अब गौरदा अन्तरा गा रहे थे।
‘श्री वृंदावन की कुंज गलिन से
गोदी में उठाये लाऊँगी
बहुत दिनन के रूठे कन्हैया
होरी में मनाये लाऊँगी’
गौरदा ने पहली होली लगभग आधे घण्टे तक गायी। इसे समाप्त
करते-करते उनके मन में अगली होली पैठ बना चुकी थी। उन्होंने
अगली होली का मुखड़ा तुरन्त उठाया-
'नवल चुनरिया फारी
बिरज जसोदा लाल को अपने
तोड़्यो हार हजारी
मोती बिखर गये कुंज गलिन में
चुन रही सखियाँ सारी।
मोरी नवल चुनरिया फारी’
श्रोतागण मस्ती में झूम रहे थे। जिन्होंने भाँग आदि का नशा
किया था वो अपने गलों से सराहना में अजीबोग़रीब आवाज़ें निकाल
रहे थे। कोई ‘वाह गौरदा!’ कहता। कोई ‘जियो गौरदा!’ कहता। कोई
‘क्या बात है!’ कहता।
होली गाते-गाते गौरदा को लगभग बीस मिनट हुए होंगे। तभी सामने
लगी दीवार-घड़ी ने उन्हें अचानक ध्यान दिलाया कि उन्हें बड़दा के
घर जाना है। वे व्यग्र हो उठे और उन्होंने जल्दी से होली को
द्रुत लय में लाकर समाप्त कर दिया। वे क्षमा माँग कर उठने का
उपक्रम करने ही वाले थे कि किशोरदा के लड़के ने अवसर देखकर उनके
कान में कुछ कहा। संदेश यह था कि बड़दा के घर जाकर उनका हाल ले
लिया गया है। उनका स्वास्थ्य सामान्य है और उनका यह विचार है
कि गौरदा किशोरदा के घर होली गाएँ और रात वहीं सो कर दूसरे दिन
सुबह उनके पास आएँ।
संदेश की सत्यता की पुष्टि के लिये गौरदा ने किशोरदा की ओर
प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा। किशोरदा ने आश्वस्त भाव से इस
प्रकार सिर हिलाया जैसे कह रहे हों ‘संदेह मत करो बन्धु! बस अब
गाये जाओ।’
बड़दा का संदेश सुन कर गौरदा के मन से रहा-सहा खटका जाता रहा।
वे अब पूर्णतः निःशंक हो कर नई ऊर्जा से भर उठे थे। उन्होंने
मन ही मन बड़दा का स्मरण करके उनकी प्रिय होली उठाई।
‘श्रवण सुनत कटि जात पाप
जहाँ राम-सिया खेलें होरी’
किसी के विशेष आग्रह पर खाई मिठाई में कुछ मिला था कि होली
गायकी का नशा-गौरदा अब पूरी तरह होलियाँ गाने में डूब चुके थे।
कोई उन्हें छेड़ना न चाहता था। काव्य, संगीत और आँचलिक परम्परा
के इस अनोखे प्रदर्शन से सभी विमुग्ध थे। कभी-कभी अन्दर के
दरवाजे के परदे का हिलना गवाही दे रहा था कि अन्दर महिलाएँ भी
पूरे कौतूहल के साथ इस अभूतपूर्व प्रदर्शन की साक्षी बन रही
थीं।
रात कैसे गुजर गई पता न चला। बैठक में अन्य जितने कलाकार थे,
उन्होंने न गाना ही बेहतर समझा। पूरी रात गौरदा गाते रहे और
सुबह चार बजे उन्होंने सामने दीवार-घड़ी की ओर देखा और सभा
समाप्ति का संकेत देते हुए भैरवी उठाई-
‘होरी खेरैं कन्हैया झुकि झूम-झूम
वो तो लेते कमल मुख चूम-चूम।’
और फिर पारम्परिक मुबारकबाद से समापन किया-
‘मुबारक हो मंजिल फूलों भरी
बरादरी में रंग भरो है
राधेश्याम खेलें होरी’
होली की बैठक अपनी पूर्णता प्राप्त कर समाप्त हुई। तृप्त
श्रोतागण गौरदा की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए विदा हुए। हरीश,
गौरदा और कुछ अन्य लोगों को सुबह तक किशोरदा के घर पर ही रूकना
था। मेहमानों के जाते ही गौरदा की बहन कुसुम ने बैठक में
प्रवेश कर कहा, ‘गजब ही कर दिया गौरदा आज तो तुमने! कैसे गा
लेते हो, तुम इतना अच्छा? पिछले जनम में तुम जरूर कोई गन्धर्व
रहे होगे।’
गौरदा अब तक बुरी तरह थक चुके थे। समाधि से जागने के बाद की
जैसी थकान उन पर हावी थी। बैठक में कालीन के ऊपर अब तक चादरें
बिछा दी गयी थीं। गौरदा ने स्नेह भाव से बहन का अभिनन्दन
स्वीकार किया और बैठक के एक कोने में दीवार की ओर मुँह कर करवट
ले कर सो गये। धराशायी होते ही गौरदा को निद्रा ने घेर लिया।
सुबह सात बजे राजधानी के क्षितिज पर उभरते सूरज की गुनगुनी
किरणें खिड़की की जाली से छन-छन कर गौरदा को जैसे दुलार कर जगा
रही थीं। गौरदा ने करवट बदलने का प्रयास किया। दुःखते शरीर ने
प्रतिरोध किया। नींद उचट कर कच्ची हो गयी। गौरदा कच्ची नींद
में स्वप्न देखने लगे-
गौरदा के पुश्तैनी चार तल्ले के मकान में होली की बैठक जमी है।
दस-ग्यारह साल का नन्हा गौरी कमरे के बीचो-बीच कालीन पर बैठे
पूरे आँचलिक लटके-झटके के साथ बुज़़ु़र्ग होलियारों की तरह होली
गा रहा है। बड़दा तबला बजा रहा है। श्रोतागण बड़े ध्यान और
कौतूहल के साथ गौरी की हैरतअंगेज़ गायकी का मज़ा ले रहे हैं।
तभी बरामदे वाले दरवाजे़ से गौरदा के दिवंगत पिता झक्क सफेद
कुर्ता-धोती में शाल लपेटे कमरे में प्रवेश करते हैं। उनके
पीछे-पीछे व्हील चेयर में सफेद कपड़े पहने कृषकाय बड़दा भी हैं।
नन्हा गौरी गाना छोड़ कर उठता है और दोनों के पैर छू कर पूछता
है, ‘बौज्यू तुम? तुम तो परके साल मर गये थे ना? और बड़दा! तुम
इतने बूढ़े और कमज़ोर क्यूँ लग रहे हो?’
दोनों बुजुर्ग कोई जवाब न दे कर उसकी ओर स्नेह के साथ आशीर्वाद
की मुद्रा में हाथ उठाते हैं।
पहेली जैसा स्वप्न अभी चल ही रहा था कि नन्हे गौरी को दूर से
किसी स्त्री के करुण विलाप का स्वर सुनाई देता है। गौरी पूछना
चाहता है कि स्त्री के रोने की आवाज़ कहाँ से आ रही है? तभी
गौरी को लगता है कि कोई स्त्री करुण क्रन्दन करते-करते उसके
बिल्कुल समीप आ गई है। वो उसे पहचानने की कोशिश करता है। ठीक
इसी समय गौरदा की नींद खुल जाती है।
गौरदा आँख खोल कर देखते हैं कि उनकी बहन कुसुम जोर-जोर से
विलाप करती हुई उन्हें जगा रही है।
‘गौरदा....ऽ...ऽ..ऽ! गजब हो गया! बड़दा नहीं रहे। रात मौत हुई।
अभी-अभी खबर आयी है।’
गौरदा को वस्तुस्थिति को अपने स्नायु तन्त्र में जज़्ब करने
में थोड़ी देर लगी। थोड़ी देर तक वो कुछ न बोले और सोचते रहे।
फिर उन्हें बड़दा का खेल समझते देर न लगी। रात उन्हें होली गाते
रहने का संदेश भिजवाना और सुबह मौत की सूचना मिलना। उन्होंने
अनुमान लगाया कि जब उन्हें बड़दा का रात संदेश मिला था लगभग उसी
समय बड़दा की मौत हुई होगी। गौरदा अपार दुख में डूब गये। मन में
गहरी हूक उठी। ‘ओ बड़दा! तूने ऐसा क्यों किया? आखि़री समय मुझे
दूर कर दिया।’ गौरदा की आँखों से अनायास अविरल आँसू झरने लगे।
उन्होंने आँसुओं को रोकने का ज़रा भी प्रयास नहीं किया। कुसुम
जोर-जोर से विलाप किये जा रही थी। किशोरदा मौन खड़े थे। बस एक
ही बात गौरदा को तसल्ली की लग रही थी कि उन्हें यह महसूस हो
रहा था कि इस पूरे प्रकरण में बड़दा का सहमति भरा हाथ है, और
उन्हें अपराधबोध से ग्रस्त होने की कोई आवश्यकता नहीं। गौरदा
अब उठ कर बैठ चुके थे। पूरी घटना उनके मन में जज़्ब हो चुकी
थी। कुछ पूछना समझना बाक़ी न था। उन्होंने बैठक में नज़र दौड़ाई।
रात सोने वाले जा चुके थे। केवल हरीश बचा था। उसने गौरदा से एक
बार नज़र मिलाई, फिर नज़र झुका कर धीरे से सीढ़ी से बाहर उतर गया।
गौरदा थोड़ी देर सोचते रहे फिर उठ कर सीधे बाथरूम की ओर लपके।
बाथरूम के शीशे में उन्हें अपना चेहरा और बाल गुलाल से रंगे
नज़र आये। उधर बड़दा की मौत, इधर गुलाल की छटा! ‘आह! कैसी दारूण
विडम्बना है!’ गौरदा ने सोचा और घुटी-घुटी आवाज़ में ‘बड़दा ऽ ऽ!
बड़दा ऽ ऽ!’ कह कर सीने पर हाथ रख कर फफक पड़े।
× × × × × × × ×
लगभग ३०-३१ वर्ष पश्चात् गौरदा कुमाऊँ की पहाड़ियों में बसे
अल्मोड़ा शहर के अपने चार तल्ले के पुश्तैनी मकान के सबसे ऊपर
के मुख्य सड़क से लगे कमरे में बीमारी और वृद्धावस्था से अशक्त
पड़े हैं। पिछले दो-तीन महीनों से शरीर की ऊर्जा जैसे शनैः-शनैः
समाप्त होती जा रही है। फाग का महीना चल रहा है। आधी खुली
खिड़की से बासंती हवा कमरे में प्रवेश कर गौरदा के नथुनों में
भर जाती है। ठण्ड के बावजूद गौरदा इस चिरपरिचित बयार को मन ही
मन सलाम करते हैं। बरसों का नाता जो ठहरा। गौरदा की आवाज़
अशक्तता के कारण बैठ चुकी है। इस बार वे मन ही मन होलियाँ गा
रहे हैं। मन बार-बार हुलस जाता है।
हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी अल्मोड़े में होली की बैठकों का भूत
लोगों के सिर पर सवार है। हर रात कहीं न कहीं होली की बैठक
होती ही है। पुराने होलियार इन दिनों गौरदा से लगभग रोज़ ही
मिलने आते हैं। ये होलियार इन दिनों हो रही बैठकों की उनसे
चर्चा करते है।
गौरदा का इकलौता लड़का सुहास इन दिनों उनकी सेवा में दिनरात लगा
रहता है। गौरदा के लाख समझाने पर भी वो इस वर्ष होली की बैठकों
में कहीं गाने नहीं गया। जबकि वह भी होली गायकी का एक समर्पित
कलाकार था। उसका कहना था, ‘बाबू! डॉक्टर ने कहा है कि आपको
अधिक देर के लिये अकेला न छोड़ा जाय। अब होली की बैठक में गया
तो फिर आप जानते ही हैं-वहाँ समय-सीमा का कोई मतलब नहीं रह
जाता। रात को किसी बैठक में जाओ तो सुबह ही दिखाई देती है इससे
अच्छा है कि जाओ ही मत। अपने प्रति पुत्र के त्याग और प्रेम को
देख कर गौरदा का दिल भर-भर आता था। पर वो पुत्र की दलीलों के
आगे चुप रह जाते।
दूसरे दिन छरड़ि थी, यानी रंग खेलने का दिन। आज गौरदा यद्यपि
कुछ अधिक अशक्त महसूस कर रहे थे पर अन्दर से उनका मन काफी
उल्लसित था। आज उनके बगल वाले मकान में होली की बैठक होनी है।
होलियार शाम से ही होली की बैठक में जाने से पहले उनके पास
हाज़िरी देकर हाल-चाल पूछ कर उनका आशीर्वाद लेकर जा रहे थे।
गौरदा को इसी बात की टीस थी, कि उनका लड़का इस बार फाग में अपना
गला एक बार भी नहीं गरमा पाया है। गौरदा का लड़का उन्हीं की तरह
होली गायकी का दीवाना था। उसमें प्रतिभा भी थी। गौरदा चाहते थे
कि उनका लड़का उन्हीं की तरह होली गायकी में जो अनिवर्चनीय
अलौकिक आनन्द है, सुख है, उसका जीवन भर लाभ ले। पर इस बार उनका
लड़का उनकी बीमारी की वजह से फाग की मस्ती में डूब नहीं पाया
था।
गौरदा से मिलने के लिए आने-जाने वालों का सिलसिला थम चुका था।
शाम के सात बजे थे। गौरदा झपकी ले रहे थे। तभी कमरे के दरवाजे़
का पल्ला खुलने की आवाज़ ने उन्हें जगा दिया। उनका लड़का सुहास
था।
‘बाबू! कैसे हो? ठीक लग रहा है?’ सुहास ने पूछा।
‘बिल्कुल ठीक! आनन्द हो रहा है! बल्कि आज तो कुछ ज्यादा ही
अच्छा लग रहा है। मिलने-जुलने वाले भी आये थे। पड़ोस में होली
की बैठक है ना।’
‘वही मैं भी कह रहा था बाबू! अगर तुम्हें ठीक लगता है तो मैं
एकाध घंटे के लिये होली में बैठ आता हूँ। कहीं दूर तो जाना
नहीं है। बिष्टजी बड़ा निहोरा कर रहे थे। नीचे आँगन में मिले
थे।’
गौरदा को तो मानो, मन माँगी मुराद मिल गयी। वो तो ऐसा चाहते ही
थे। झट से मुस्करा कर बोले-‘भाऊ! यही तो मैं भी चाह रहा था।
बिष्टजी मेरे पास भी आये थे। उनका कहना था कि उनके घर पर बैठक
में आज की रात तू मेरी जगह भरेगा। जा! जा! अब देर न कर।’
थोड़ी देर सुहास पिता के बगल में बैठ कर बात करता रहा, फिर उठकर
पड़ोस में चला गया। लड़के के होली की बैठक में जाने के बाद गौरदा
ने असीम शान्ति का अनुभव किया। संतोष की आभा उनके म्लान मुख पर
तिर गयी।
कच्ची नींद में गौरदा स्वप्न देखते हैं- बचपन के बड़दा अकेले,
हारमोनियम की धौंकनी को पैर से धकेल कर स्वर देते हुए तबला
मिला रहे हैं। बड़दा की कठिनाई को आसान करने के निमित्त नन्हा
गौरी बरामदे से चिल्ला कर कहता है, ‘बड़दा! रूको! मैं आता हूँ
सुर देने।’ नन्हा गौरी हारमोनियम के स्वर ‘सा’ पर अंगुली रखकर
धौंकनी चलाता है। पर ये क्या? हारमोनियम से कोई ध्वनि नहीं
निकलती। नन्हा गौरी बेचैन हो उठता है। गौरदा बेचैनी में नींद
से जागते हैं।
पड़ोस के मकान के निचले तल्ले से होली गाने की हल्की-हल्की पर
स्पष्ट आवाज़ आ रही है। गौरदा इस कंठ को अच्छी तरह पहचानते हैं।
उनका लड़का सुहास गा रहा है। बिल्कुल वैसा ही जैसा वे स्वयं
गाते थे। बन्दिश सूफियाना थी, और करूण राग में निबद्ध थी।
‘कर ले शृंगार चतुर अलबेली
साजन के घर जाना होगा।
माटी ओढ़न माटी बिछावन
माटी का सिरहाना होगा’
पुत्र के कंठ से सुमधुर स्वर में होली सुनते-सुनते गौरदा की
आँखें आनन्द मग्न हो कर बन्द हो जाती हैं।
तभी पत्नी की आवाज से उनकी तन्द्रा टूटती है।
‘लो दवा खा लो। सुहास तो होली की बैठक में चला गया। जाते-जाते
कह गया कि दस बजे बाबू को दवा दे देना।’
दवा हाथ में लेते हुए गौरदा ने स्नेह से अपनी पत्नी की ओर
देखा। बीते बरसों का सुख-दुःख का साथ एक मिश्रित भाव बन कर
उनके दिल और दिमाग़ पर छा गया। एकदम भोली निर्मल स्त्री, जिसकी
निश्छलता के आगे सभी नाते-रिश्तेदार निःशस्त्र होकर समर्पण कर
देते थे। गौरदा का मन पत्नी के प्रति स्नेह से लबालब भर आया।
मन में भावना का एक ज्वार उठा। एकाएक वो अपने को अधिक अशक्त
महसूस करने लगे। उन्हें झूम सी आ गयी। तन्द्रा में वे देखते
हैं- इतिहास की किताब लेकर गौरी रज़ाई में दुबका बैठा है। बड़दा
‘हिस्ट्री रिपीट्स इटसेल्फ़’, के माने समझा रहे हैं। गौरी ध्यान
से सुन रहा है। गौरदा की तन्द्रा टूटती है। दार्शनिक अंदाज में
पत्नी से पूछते हैं-
‘तूने इतिहास पढ़ा है? इतिहास?’
‘मैनें? क्यूँ मजाक करते हो इस उमर में? तेरह साल की थी, छठवीं
क्लास में पढ़ती थी, जब तुम ब्याह लाये थे। आगे फिर पढ़ाया
तुमने?’
‘जानती
है? इतिहास अपने को दोहराता है।’
‘तो मैं क्या करूँ? दोहराता रहे। खूबऽऽऽब दोहराता रहे। मुझे
इससे क्या फरक पड़ने वाला। कोई ऐसी बात बताओ जो मुझसे मतलब रखती
हो।’
गौरदा का गला भर आता है।
‘पगली है तू! नहीं समझेगी। मैंने कभी कोई ऐसी बात तेरे से की,
जो तुझसे मतलब न रखती हो? ख़ैर! भगवान तुझे ख़ुश रखे।’
पत्नी उन्हें ओढ़ा कर चली गई। गौरदा के यही आखिरी शब्द थे। |