‘अनु, अब उठ जाओ, आठ बज गए हैं।’
माँ की आवाज कानों में पड़ी तो अनुप्रिया तुरंत उठ बैठी। उसे
याद आया आज तो उसकी ड्यूटी रामलीला मैदान में लगी है और उसे दस
बजे हर हाल में पहुँचना होगा, क्योंकि आज धनतेरस है। खरीददारी
के लिए लोगों की भीड़ इस दिन से लेकर दीपावली तक जमकर रहेगी।
ऐसे में हम पुलिसवालों को अपनी तरफ से बिना किसी दिन छुट्टी
किए अलग अलग जगह बारह बारह घंटे ड्यूटी के लिए तैयार रहना
होगा। क्या पुरुष और क्या महिला कांस्टेबल, सभी की खाट खड़ी
रहेगी। जैसे त्योहार के दिन हमारे लिए बने ही न हों। हर समय
खड़े रहो आम जनता की चौकसी में। लोग, लोग और लोग, हर जगह लोग।
उस समय जनसंख्या वृद्धि करने वालों कोसने का मन करता है।
यह सब उधेड़बुन में लगी अनु उठकर फ्रेश हुई और अपनी ताजी-धुली
प्रेस की हुई कांस्टेबल की वर्दी को अजीब सी नजरों से घूरते
हुए पहनने लगी। शायद सोच रही थी कि पहनूँ तो मुसीबत और न पहनूँ
तो मुसीबत। कितना मना किया था उसके पिता ने, जब उसका
कांस्टेबल भर्ती परीक्षा में चयन हुआ था। कहा
था – ‘अब क्या बैंक मैनेजर की बेटी ठूलिया की नौकरी करेगी, और
नौकरियां नहीं हैं।’
मगर अनु का सपना शुरू से ही पुलिस विभाग में जाने का था। उसे
लगा एक तो सरकारी नौकरी हाथ लगी है, उसे ही पिताजी कम आँककर
मना कर रहे हैं। अब कहाँ पड़ी हैं सरकारी नौकरियाँ। लोग तो
चपरासी की नौकरी तक के लिए मंत्री की सिफारिश करवाते हैं। यह
तो उसने खुद की मेहनत से यह सब हासिल किया है। कितनी खुश थी
वह। एक साल की ट्रेनिंग से निकलकर जब वह पक्की हुई तो उन्नीस
साल की उम्र का जोश देखते ही बनता था। सोचती थी फिल्मों की
तरह अपराधियों को पकड़ेगी और जब रास्ते से निकलेगी तो
मोहल्ले वालों पर रौब जमेगा। मगर जल्द ही सच उसके सामने आ
गया। सामान्य सी दिखने वाली इस नौकरी ने उसे उलट स्थिति का
अहसास कराया। आस पास और मोहल्ले वाले लोग उसे ‘ठूलिया’ कहने
से ना चूकते। खासकर मोहल्ले के आवारा युवा। उनके इगो हर्ट
होना इसकी वजह रहती। इसके बाद उसकी पूरे शहर में हर त्योहार
या घटना दुर्घटना में लगती ड्यूटी का दौर शुरू हो गया। ऐसे में
त्योहार तो मानो दिल में नश्तर चुभाते लगते।
सोचते सोचते कब साढ़े नौ बज गए उसे पता ही नहीं चला। खाने की
इच्छा ना होते हुए भी फटाफट कुछ खाया और कुछ टिफिन में डालकर
तैयार हुई। बाहर आकर ऑटो लिया और सीधी रामलीला मैदान पहुँच गई,
जहाँ उसकी ड्यूटी लगी थी। मैदान तो बस नाम का मैदान था, चारों
ओर दुकानों की रेलमपेल के बीच बड़ा गोल सर्किल, जहाँ दुकानें
हर तरह की, एक ही जगह इकठ्ठी। यह शहर का मुख्य बाजार है। इसी
के चौराहे पर आज उसकी ड्यूटी लगी है। उसका काम है लोगों पर
निगाह रखना। आती जाती महिलाओं की सुरक्षा का ख्याल रखना।
आज बाजार में बहुत चहल पहल है। लोग धनतेरस की खरीदारी का मौका
मानो चूकना ही नहीं चाह रहे। ऐसे लग रहा है कि आज तो सामान की
खरीदारी मुफ्त में हो रही है। सजी धजी दुकानें और हर दुकान पर
खास सजावट। किसी ने फूलों की तो किसी ने छोटे बल्बों की।
चारों ओर अगरबत्ती और फूलों की खुशबू ने मिठाई की महक के साथ
मिलकर उत्सवी माहौल की उमंग और बढ़ा दी। बच्चों और महिलाओं
के चेहरे पर चमक दिखाई दी। पुरुष पीछे कहाँ थे सभी। पर, किसकी
जेब पर उनकी पत्नियाँ कितना डाका डालेंगी, यह अनुमान उनके
चेहरे से जरा मुश्किल है।
अनु के ख्याल हावी होने लगे, वह भी तो स्त्री है, स्त्री
सुलभ चंचलता, चमक, लज्जा सभी गुण हैं उसमें, लेकिन आज यहाँ इन
सबको भूलकर चेहरे पर कठोरता का आवरण चिपकाए बिना किसी खास खुशी
का भाव प्रकट किए उसे बस यहाँ खड़े रहना है। अपनी ताजी प्रेस
की हुई फिट खाकी वर्दी में उन सुंदर परिधानों में धँसी हँसती
लड़कियों से कैसे तुलना कर सकती थी, बेहतर था कि वो उन्हें
देखे ही नहीं। तकरीबन पाँच किलोमीटर लंबी सड़क पर उसके साथ छह
लोग ड्यूटी पर थे। दो वे लड़कियाँ और शेष पुरुष।
पुरुषों में तीन शादीशुदा और एक बैचलर था।
पर उसकी पहचान उनसे ज्यादा न थी। न ही वो लड़कों से चहककर बात
करने वालों में से थी। ऐसे में बतरस की संभावना भी नहीं थी।
उसने सोचा ‘अगर इस शोरगुल को भगवान म्यूट भी कर दे तो उसके मन
का शोर कितना है, यह पता चल जाए।’ अनु दिखने में रंग गोरा
आँखें बड़ी और कद काठी सामान्य वाली लड़की थी। घूमते फिरते
लोगों की निगाहें खुद पर पड़ते देखती तो अपनी सुंदरता का अहसास
उसे अवश्य होता। शाम ढल गई। वह और उसकी खाकी वर्दी धूल से
बुरी तरह भर चुके थे। उसे लगा दिवाली के बाकी बचे दो दिन भी
पहाड़ की तरह भारी रहेंगे।
ड्यूटी खत्म होते ही वह बच्चों की तरह घर की ओर दौड़ पड़ी।
घर पहुँचकर मुँह हाथ धोकर खाने पर टूट पड़ी वह, उस समय बाजार
के वे पकवान भी फीके लग रहे थे, जो उसे ड्यूटी के समय ललचा रहे
थे। तभी उसकी नन्हीं भानजी प्रिया, जो अपनी माँ और नानी के
साथ बड़े बाजार गई थी, आई और उसे देखते ही उसकी गोद में आ
बैठी। उसे मालूम था कि आज उसकी मौसी की ड्यूटी शहर के सबसे
बड़े बाजार में लगी थी। उसने जाते समय अपनी फरमाइश कर दी थी कि
अनु मौसी को आते हुए उसके लिए छोटी छोटी कसीदे वाली जूतियाँ
लेकर आनी हैं। पर अनु नहीं खरीद पाई थी। वह उसे कैसे समझाती कि
हर दुकान पर भारी भीड़ थी। बीच में घुसकर जूतियाँ खरीदना उसे
ठीक नहीं लगा। वह तो वर्दी में थी, ऐसे में कुछ खरीदना यानी
लोगों को अपनी ओर प्रश्नचिह्न भरी नजरों से घूरना सहन करना
पड़ता, जो उसे सुहाता नहीं। परिणाम यह हुआ कि उसकी प्यारी
प्रिया उससे रूठकर चली गई।
दिनभर की रेलमपेल के बाद प्रिया के रूठने से शाम तक बची उमंग
भी जाती रही। अगले दिन रूप चतुर्दशी के दिन भी वही दस्तूर
जारी रहा। उसकी दोनों बहिनों और माँ को जाते समय उसने कहते
सुना कि आज हमें बैठकर उबटन लगाना है और फिर ब्यूटी पार्लर
जाना है। मगर उसे कुछ नहीं कहा गया। क्योंकि वे जानते थे कि
वह तो घर में उपलब्ध ही नहीं होगी, कहना फिजूल है।
फिर वही धुली वर्दी पहनकर वह चल पड़ी। आज उसकी ड्यूटी सोबती
गेट पर थी। जो कि शहर का हृदय स्थल है। फिर से वही छह सिपाही।
पर यहाँ का एक मैचिंग सेंटर चूडि़यों के लिए प्रसिद्ध है। जो
कि अनु को बड़ा आकर्षित करता है। उसी के पास उन सबका जमावड़ा
लगा। महिलाएँ और युवतियाँ अपनी पसंद की चूडि़याँ खरीदती मनभावन
लग रही थीं। अनु बड़े मनोयोग से उन्हें देख रही थी कि अचानक
देखा कि साथ में खड़े साथी कांस्टेबलों में जो कुँवारा था,
उसे एकटक देख रहा था। जब अनु की नजर उससे टकराई तो वह
मुस्कुराया। अनु को उसका देखना बुरा तो लगा, लेकिन तहजीब के
चलते उसने हौले से मुस्कुराकर जवाब दिया। भीड़ भरे बाजार में
दिन कब बीता पता ही नहीं चला। शाम तक धूल के गुबार ने सोबती
गेट को ढक दिया था। अब तो दिए वाली कुम्हारन भी रेट कम करने
लगी थी। दो के छह, दो के छह। जबकि कल तक वह दो रुपए के तीन के
हिसाब से बेच रही थी। उसका मन किया कि दीपक खरीद ले, पर...
रूई, बूर, खील बताशे, लक्ष्मी पूजन सामग्री, इत्र और रंगोली
सजावट जैसे पता नहीं कितने सामान थे वहाँ, ऐसे लग रहा था जैसे
सालभर इन सामानों सहित इन्हें बेचने वाले शीत निष्क्रियता में
रहे हों। आज ही बाहर आकर जोर जोर से माल बेचकर अपनी उपस्थिति
बता रहे हैं।
अँधेरा होते ही ड्यूटी खत्म। वह घर की ओर रवाना हुई। रास्ते
में छोटी छोटी लड़कियों को अपने घर के बाहर गोरधन का चौरस और
स्वस्तिक बनाते देख उसे अपने बचपन की याद हो आई, जब वह शाम के
समय अपनी बड़ी दीदी के साथ बैठकर उसे बनाने में मदद करती थी।
घर की दहलीज पर उसे बनाने से पहले बड़ी दीदी उस जगह को पहले
पानी से धोती फिर गोबर से लीपकर सूखने को छोड़ देती। उसके बाद
लाल और सफेद मिट्टी का चौकोर डिब्बा सा बनाकर उसके बीच में
स्वस्तिक और बाहर की ओर सफेद मिट्टी के किनारे किनारे सुंदर
बेलें बनाते हुए गीत गाती। दोनों छोटी बहनें उनके पीछे पीछे
चलती रहतीं कि कब दीदी हमें भी ऐसा करने को कहे। उस समय दीदी
का हर आदेश दौड़कर पूरा करतीं।
लो घर आ गया, पता ही नहीं चला, अनु बुदबुदाई।
माँ ने एक नजर अनु पर डाली फिर अपने काम में लग गई। कल तो
दीवाली थी ना, और माँ को बहुत काम था। इसलिए अनु ने माँ से चाय
का भी नहीं कहा। खुद ही हाथ मुँह धोकर चाय बनाई और टीवी के आगे
बैठ गई। ये टीवी वाले भी इतना त्योहार-त्योहार चिल्लाते
क्यों चिल्लाते हैं, सोच रही थी। उन्हें देखकर बाजार में
सड़क किनारे बैठे रेहड़ी वालों की चिल्ल-पौं याद आ गई। रात ढल
चुकी थी।
‘ये पाँच दीपक बाहर रख आ अनु।’ अचानक माँ की आवाज सुनाई दी।
सोफे पर ही टीवी देखते देखते कब आँख लग गई पता ही नहीं चला।
बाहर सभी के घर रोशनी और चहल पहल देखकर उसे कुछ अच्छा लगा।
वापस आकर खाना खा अनु सो गई। उसे पता था कल दीवाली थी। दूसरों
की तरह उसके दिमाग में न तो कोई योजना थी, ना ही उमंग, बस
ड्यूटी।
सुबह मशीन की तरह पहुँच गई महात्मा गाँधी मार्ग। जहाँ उसे
चौकस रहना था। आज दीवाली के कारण सड़कें साफ थीं और इस बाजार
में वाहनों की आवाजाही बंद थी तो दिन में भी कानों को आराम
महसूस हुआ। लोग पैदल चल रहे थे, भीड़ बहुत थी। कई सटकर निकले
तो कुछ उनमें से दूरी रखते हुए तेजी से आ जा रहे थे। बूर
प्रसाद वालों की चिल्ल पौं बढ़ गई। आज का शांत वातावरण उसे
अच्छा महसूस हुआ। खड़े खड़े याद कर रही थी, उन दिनों की जब वह
एकदम अलमस्त और निश्चिंत होकर घूमा करती थी। आज जिम्मेदारी
से खड़े होने पर उसे वही दिन याद हो आए...
‘मेरा नाम नवीन है’, सुनकर चौंकी।
देखा सामने उसका साथी, जो कुँवारा था, खड़ा था। अनु ने धीरे से
हैलो कहा। औपचारिक बातचीत में नवीन ने बताया कि वह दूसरे
राज्य से यहाँ आकर रह रहा है।
‘ओह! यानी आपका यहाँ कोई नहीं। त्योहार के दिन भी आप यहाँ
रहेंगे।’
‘आप तो जानती हैं नौकरी की विवशता।’
अनु को नवीन से सहानुभूति हो आई। वह तो अब तक अपनी ही उधेड़बुन
में खोई थी। उसे लगता था, वह अकेली है अपनी नौकरीनुमा बोझ को
झेलने के लिए, लेकिन यहाँ तो...
तभी उसने देखा कि नवीन ने अपने पीछे से हाथ आगे किया। उसके हाथ
में एक सुंदर पैकेट था। उसने अनुप्रिया को वह पैकेट थमा दिया।
उसने झिझकते हुए वह पैकेट थाम लिया। फिर उत्सुकता से अनु ने
बॉक्स का किनारा खोलकर देखा, उसमें वही सुंदर काँच की चूड़ियाँ
थीं, जिन्हें वह कल ललचाई नजरों से देख रही थी और नवीन ने उसे
देख लिया था।
अनु को लगा जैसे कितने दिनों बाद उसे भी किसी ने महसूस कराया
कि वह भी उत्साह और उमंग की हकदार है। कुछ कहना चाह रही थी,
कि तभी सामने से अपने ऑफिसर को आते देख दोनों किनारे हट गए।
ऑफिसर ने पास आकर कहा – ‘आज आप छह लोगों की ड्यूटी यहीं खत्म
होती है, अपने अपने घर जा सकते हैं, यहाँ दूसरे सिपाहियों को
तैनात किया गया है।’
सुनकर जैसे अनु की तो बाछें खिल आईं। एक बारगी उसने नवीन की ओर
देखा, उसके चेहरे पर निर्लिप्त भाव थे। छुट्टी पाकर भी वह
क्या करेगा, सोच रहा होगा। अनु चूड़ियाँ पर्स में डालकर
टैक्सी की बाट जोहने लगी।
टैक्सी पर चढ़ने से पहले अनु ने नवीन को शाम को लक्ष्मी पूजन
के लिए अपने घर आने का न्यौता दे दिया। छोटे बच्चे
की
तरह फटाफट अपने घर की ओर दौड़ पड़ी। घर पहुँचकर देखा कि माँ और
पिताजी शाम की पूजा की तैयारी में व्यस्त थे। भानजी मोहल्ले
के बच्चों के साथ रंग-बिरंगी फुलझड़ियाँ छोड़ रही है और दीदी
रंगोली बना रही है। उसे देखकर सभी खुश हुए। वह भी तुरंत नहाकर
नए कपड़े पहनकर बाहर आई।
दीदी से कहा – ‘मैं भी मेहँदी लगाऊँगी।’
दीदी ने उसे मुस्कुराकर देखा। मानो समझ गई हो, कि आज की शाम
वह भी उमंग भरी दीवाली मनाने वाली है। |