यों तो उस पार्क को लवर्स पार्क
कहा जाता था पर उसमें टहलने वाले ज्यादातर लोगों की गिनती
वरिष्ठ नागरिकों में की जा सकती थी। युवाओं में अलस्सुबह उठने,
जूते के तस्मे बाँधने और दौड़ लगाने का न धीरज था, न जरूरत। वे
शाम के वक्त इस अभिजात इलाके के पंचसितारा जिम में पाए जाते
थे- ट्रेडमिल पर हाँफ-हाँफ कर पसीना बहाते हुए और बाद में
बेशकीमती तौलियों से रगड़-रगड़ कर चेहरे को चमकाते और खूबसूरत
लंबे गिलासों में गाजर-चुकन्दर का महँगा जूस पीते हुए। लवर्स
पार्क इनके दादा-दादियों से आबाद रहता था।
सुबह-सबेरे जब सूरज अपनी ललाई छोड़कर गुलाबी चमक ले रहा होता,
छरहरी-सी दिखती एक अधेड़ औरत अपनी बिल्डिंग के गेट से इस पार्क
में दाखिल होती, चार-पाँच चक्कर लगाती और बैठ जाती। अकेली।
बेंच पर। वह बेंच जैसे खास उसके लिए रिज़र्व थी। तीन ओर छोटे
पेड़ों का झुरमुट और सामने बच्चों का स्लाइड और झूला, जिसके
इर्द-गिर्द जापानी मिट्टी के रंगबिरंगे सैंड पिट खाँचे बने थे,
जहाँ बच्चे अगर स्लाइड से गिर भी जाएँ तो उनकी कुहनियाँ और
घुटने न छिलें। यह बेंच उसने अपने लिए क्यों चुनी थी, वह खुद
भी नहीं जानती थी। शायद इसलिए कि यह बेंच सैर करने आने वाले
बाशिंदों के रास्ते में नहीं पड़ती थी और वह इत्मीनान से सैर
पूरी करने के बाद घुटने मोड़कर प्राणायाम की मुद्रा पर आ सकती
थी और भ्रामरी प्राणायाम का ओssम् करते वक्त भी सैर करते लोगों
की बातचीत उसकी एकाग्रता में खलल नहीं डालती।
तीन महीनों से लगभग रोज़ ही वह इस वक्त तक बेंच पर अपना आसन जमा
चुकती थी। उस दिन आँखें मूँदे हुए लंबी साँस भीतर खींचते अचानक
जब उसने हाथ बदला तो पाया कि दाहिनी हथेली की मध्यमा उँगली लॉक
हो गई है। अक्सर ऐसा हो जाता था। उसने आँखें खोलीं और बाईं
उँगलियों से उस उँगली को थोड़ा नरमाई से घुमाया तो देखा उसके
सामने की रोशनी को एक सफेद आकार ने ढक लिया था। झक सफेद
कुरता-पायजामा पहने वह बूढ़ा किसी साबुन कम्पनी की सफेदी का
इश्तहार मालूम होता था। दोनों कनपटियों पर बस नाम भर को थोड़े
से सफेद बाल। आर॰ के॰ लक्ष्मण के कार्टून के काले बालों पर
सफेदी फिरा दी हो जैसे।
"सॉरी, लेकिन इट्स नॉट द राइट वे टु डू प्राणायाम।" बूढ़े ने
अंग्रेजी में कहा तो औरत की तंद्रा टूटी। उसने समझा कि बूढ़ा
उससे कुछ कहना चाहता है।
"इस ओर आ जाएँ प्लीज़!" औरत ने अपनी उँगलियों को बाएँ कान की ओर
ले जाकर इशारे से बताया कि सुनाई नहीं दे रहा, वे दाहिनी ओर
आकर बताएँ।
थोड़ा खिसक कर बेंच पर खाली जगह पर बूढ़ा दाहिनी ओर बैठते ही
बोला- "मैं रोज तुम्हें देखता हूँ, आज अपने को रोक नहीं पाया।
उँगलियों की मुद्रा ऐसी होनी चाहिए।" बूढ़े ने तर्जनी और अँगूठे
का कोण मिलाकर बताया।
"ओह अच्छा! शुक्रिया!" औरत ने तर्जनी और अँगूठे का कोण मिलाया-
"अब ठीक है?"
"यस! गुड गर्ल!" बूढ़े ने उसकी पीठ थपथपाई, जैसे किसी बच्चे को
शाबाशी दे रहा हो। फिर उठने को हुआ कि तब तक फिर औरत की उँगली
ने ऐंठ कर दोबारा अपने को बंद कर लिया- "ओह! यह फिर लॉक हो
गई... डबल लॉक!"
"मेरी भी हो जाती थी।" उठते-उठते बूढ़ा फिर बैठ गया- "कम्प्यूटर
पर हर दस-बीस मिनट बाद उँगलियों को हिलाते-डुलाते रहना चाहिए।
यह मॉडर्न टेक्नोलॉजी की दी हुई बीमारियाँ हैं।" बूढ़ा हँसा-
"आर यू वर्किंग?"
"नहीं, ऐसे ही घर पर थोड़ा काम करती हूँ। लैपटॉप पर" औरत ने
दोबारा उँगली को आहिस्ता से खोला।
"टेक केयर... सॉरी, तुम्हें डिस्टर्ब किया। चलूँ, मैंने राउंड
नहीं लगाए अभी, आर यू ऑलराइट नाउ? सी यू..." बूढ़ा अपनी उम्र से
ज़्यादा तेज़ चाल में सैर वाले रास्ते पर निकल गया।
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अगले दिन फिर प्राणायाम
करते-करते औरत की आँख खुली तो बूढ़ा सामने था। ओफ, यह पता नहीं
कब से खड़ा है। औरत झेंपी, फिर सरक कर दाहिनी ओर जगह बनाई।
"और... पीठ ऐसे सीधी रखो।" बूढ़े ने जैसे ही उसके कंधों को अपने
हाथों के दबाव से पीछे किया पीठ पर दर्द की चिलक-सी उठी।
"आssह!" उसके मुँह से आवाज़ निकली। बूढ़ा जबरदस्ती उसके योग
शिक्षक की भूमिका में आ रहा है, वह खीझी।
"ओह सॉरी, सॉरी, स्पॉन्डिलॉसिस है या...? बूढ़ा हँसा, जैसे उसके
पीठदर्द का मखौल उड़ा रहा हो- "क्या क्या है तुम्हें इतनी सी
उम्र में?"
"कुछ खास नहीं, कभी-कभी दर्द उठ जाता है"। औरत ने काँपते
होंठों से कहा।
"जब दिमाग़ अतिरिक्त तनाव को झेल नहीं पाता तो उस जकड़न को नीचे
पीठ की तरफ सरका देता है... तब आपकी गर्दन और आपके कंधे अकड़
जाते हैं और दुखने लगते हैं। आप कंधे का इलाज करते चले जाते
हैं, जबकि इलाज कंधे की जकड़न का नहीं दिमाग़ में जमकर बैठे तनाव
का होना चाहिए।" बूढ़ा रुक-रुक कर बोला।
"हूँ।" औरत भौंचक-सी उसे देखने लगी। यह सब इसने कैसे जाना।
क्या मेरे चेहरे पर तनाव लिखा है?
औरत ने एक चौड़ी-सी मुस्कान चेहरे पर जबरन सजाकर कहा-"चेखव कहते
थे। ... चेखव... नाम सुना है?"
"हाँ-हाँ, द ग्रेट रशियन राइटर!... क्या कहते थे?"
"डॉक्टर थे न, डायरिया के लिए कहते थे- योर स्टमक वीप्स फॉर
यू... मन उदास और बेचैन होता है तो पेट सिम्पथी में रोने लगता
है।"
"ग्रेट! सच है!... पता है, अगर बहुत नेगेटिव फीलिंग्स एक-दूसरे
को ओवरटेक कर रही हों और आप उन्हें हैंडल न कर पाएँ तो
एग्ज़ीमा हो जाता है... आपका स्किन बता देता है कि रुको, इतना
काम-क्रोध ज़रूरी नहीं... और अंदर ही अंदर गुस्सा-नफरत दबाए चलो
तो पाइल्स, अल्सर, ब्रेनस्ट्रोक न जाने क्या-क्या हो जाता है।
सप्रेशन इज़ द रूट कॉज़ ऑफ़ ऑल सिकनेस। एंग्री पाइल्स। एग्रेसिव
अल्सर। तो इलाज की ज़रूरत तो इसको है …। इसको।" बूढ़े ने
चलते-चलते दिमाग़ को दो उँगलियों से ठकठकाया।
औरत ने बताने की एक फ़िज़ूल-सी कोशिश की कि वह तो ठीक है, और ऐसा
कुछ नहीं... पीठ और कंधों पर तो अक्सर दर्द उठ ही जाया करता
है।
"सॉरी, मैं बिना माँगे ज्ञान दे रहा हूँ!" बूढ़े ने कहा और झेंप
गया।
"ठीक है," औरत ने अपनी मुस्कान समेटकर हाथ उठा दिया- "बाय!"
"सॉरी अगेन- कंधा दुखाने के लिए!"
"नहीं, कोई बात नहीं। नत्थिंग सीरियस।"
-
अगले दिन वह औरत जब पार्क के
अपने पाँच चक्कर पूरे कर बेंच पर पहुँची तो बूढ़ा पहले से बेंच
पर बैठा था। उसको देखकर उसने सरककर जगह बना दी। औरत ने कहा-
"नहीं आप बैठें, मैं दूसरी जगह बैठ जाती हूँ।"
"अरे, मैं तुम्हें प्राणायाम के सही पोस्चर सिखाने के लिए बैठा
हूँ, और तुम... नहीं सीखना चाहतीं तो कोई बात नहीं।"
"अच्छा तो आप इस तरफ बैठ जाएँ, मुझे बाएँ कान से सुनाई नहीं
देता, इसलिए..."
"अच्छा...? ओह!" बूढ़े ने सरक कर अपने बाईं ओर जगह बना दी।
उसके बैठते ही बूढ़े ने कहा- "उँगलियों में, कंधे में, अब कान
में भी कुछ प्रॉब्लम है? इतनी कम उम्र में... क्या उम्र है
तुम्हारी? आय नो, औरतों से उम्र नहीं पूछते, फिर भी..."
"पैंसठ!"
"कितनी...?" बूढ़ा चौंक कर बोला, जैसे उसने ठीक से सुना नहीं।
"सिक्स्टी फाइव!" औरत ने दोहराया और कान की ओर इशारा किया-
"क्या आपको भी...?" वाक्य पूरा करते-करते उसने बीच में ही रोक
लिया।
"नहीं-नहीं, आय ऐम परफेक्ट। मुझे दोनों कानों से सुनाई देता
है। तुम... आप... आप तो लगती ही नहीं..."
"नहीं, तुम ही कहिए, तुम ठीक है! आप मुझसे बड़े हैं।"
"हाँ, सिर्फ चार साल!... लेकिन आप पचास से ऊपर की नहीं लगतीं,
बिलीव मी!"
"उससे क्या फर्क पड़ता है!"
बूढ़े ने बात बदल दी- "अच्छा आप रहती कहाँ हैं?"
"यहीं सामने।" उसने अपनी बिल्डिंग की ओर इशारा किया।
"मैं इसमें, बगल वाली बिल्डिंग में, आप कौन से माले पर?"
"इक्कीसवें।"
"अरे स्ट्रेंज! मैं भी वहाँ इक्कीसवें पर... फ्लैट नं?"
"इक्कीस सौ दो!"
"डोंट टेल मी। मेरे बेटे का भी फ्लैट नंबर- इक्कीस सौ दो और
इंटरकॉम?"
"स्टार नाइन सेवन टू वन टू!" औरत ने मुस्कुराकर कहा- "अब ये मत
कहिएगा कि फोन नंबर भी वही है!"
"अनबिलीवेबल! बस एक डिजिट का फर्क है- थ्री वन टू!... याद रखना
कितना आसान है न!"
"आपका नाम जान सकता हूँ?"
"शिवा!" औरत ने ऐसे कहा जैसे नाम बताने को तैयार ही बैठी थी।
"शिवा मीडियम?" बूढ़ा हँसा।
"वो क्या है?"
"नहीं, स्मॉल-मीडियम-लार्ज वाला नहीं, शिवा मीडियम फॉन्ट। मेरी
पोती हिंदी सीरियल्स में स्क्रिप्टराइटर है। हिंदी में संवाद
लिखने के लिए यह फॉन्ट इस्तेमाल करती है।"
"अच्छा, हिंदी के बारे में मेरी इतनी जानकारी नहीं!" औरत फीकी
हँसी हँसकर बोली- "आपका नाम?"
"मैं आशीष कुमार। शॉर्ट फॉर्म- ए॰ के॰! सब ए॰ के॰ ही बुलाते
हैं। मेरा बेटा अनिरुद्ध कुमार। उसे भी उसके दफ्तर में ए॰ के॰
ही कहा जाता है। मेरे बंगाली दोस्त मज़ाक में कहते हैं- एई के?
मतलब कौन है यह? मेरे दो पोते एक पोती हैं। इक्कीसवें फ्लोर के
दो फ्लैट्स को एक कर बड़ा कर लिया है। फिर भी बच्चों को छोटा
लगता है। हरेक को अपने लिए अलग कमरा चाहिए। यहाँ तक कि कामवाली
को भी। क्या खूब मुंबई के नक्शे हैं...! अच्छा, आपके घर में
कौन-कौन हैं?"
यह बातूनी बूढ़ा उसके बारे में इतना क्यों जानना चाह रहा है?
इसके घर में इतने सदस्य कम हैं क्या?
"नहीं... बताना न चाहें तो कोई बात नहीं... मैंने तो ऐसे ही
पूछ लिया।"
"मेरी दो बेटियां हैं। बड़ी यू॰ एस॰ - न्यू जर्सी में है। छोटी
मेरे साथ है यहाँ। दोनों जॉब करती हैं।"
"और आपके पति?"
"हैं" वह कुछ अटकी, फिर बोली- "पर नहीं हैं।"
"मतलब?"
"वह मेरे साथ नहीं..."
"ओह!" बूढ़े ने अकबकाकर सिर हिलाया- हैरानी में और उससे ज्यादा
घबराहट में। यह औरत झूठ भी तो बोल सकती थी। लेकिन सच है, उसने
सोचा, ऐसे खुलासे अजनबियों के सामने यकायक हो उठते हैं।
"आप जो प्राणायाम करती हैं न उसमें एक एडीशन करता हूँ।" बूढ़े
ने ऐसे इत्मीनान से कहा जैसे औरत के अपनी ज़िंदगी के खुलासे को
उसने तवज्जो दी ही नहीं। "देखिये, ओssम् तो आप करती ही हैं,
उसके पहले का हरी ई ई ई खींचकर उसी अंदाज़ में करिए! इससे
वायब्रेशंस यहाँ ब्रह्मतालू पर होते हैं जहाँ छोटे बच्चों के
सिर पर टप-टप होती देखी होगी, वहाँ! ओssम् से तो कनपटियों के
पास- दिमाग़ के दाईं बाईं ओर की नसें रिलैक्स होती हैं, पर इन
दोनों से तो पूरा दिमाग़- आपका ब्रह्मांड … रिफ्रेश हो जाता है
बिल्कुल!"
"आप योग प्रशिक्षक हैं या यह आपका इन्वेंशन है?" शिवा उसके
बयान का अंदाज़ देखकर हल्की हो आई, जैसे किसी साथ चलते ने
रास्ते के उस पत्थर को, जिससे टकराकर वह गिरने ही वाली थी,
हटाकर रास्ते को साफ और सुरक्षित कर दिया हो।
"थैंक्यू सो मच। कल से इसे भी करूँगी।"
"ओके। चलूँ मैं अब?"
बूढ़े ने ऐसे पूछा जैसे उसके ‘नहीं’ कहने से वह कुछ और
प्राणायाम विधियाँ बताने के लिए रुक जाएगा।
शिवा ने हाथ जोड़ कर एक बार और थैंक्यू कहा। उसके ‘थैंक्यू’ में
‘आप चलें अब’ का सौजन्य संकेत भले ही शामिल था, पर उसने पाया
कि वह काफी देर तक उसे जाता हुआ देखती रही -- जब तक बूढ़े की
आकृति घुमावदार रास्ते का मोड़ लेकर आँख से ओझल नहीं हो गई।
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घर लौटकर आज शिवा ने व्हाइट सॉस में ब्रोकोली बनाई और बनाते
हुए सोचती रही कि शायद साल भर हो गया इसे बनाए। वही हुआ। छोटी
बिटिया काम से लौटी और जैसे ही खाना मेज़ पर देखा, बोली- "वाऊ!
आज क्या है मॉम, किसी का बर्थ डे है?" फिर सिर खुजाते हुए याद
करने लगी– "मुझे तो याद नहीं आ रहा।"
"नहीं रे। ऐसे ही मन हुआ बनाने का!" शिवा ने झेंपते हुए कहा।
बेटी ने फुर्सत से उँगलियाँ चाटने की आवाज़ को भी नहीं रोका,
एटीकेट्स के चलते खाने की मेज़ पर जिसकी मनाही थी। खिली हुई
मुस्कान के साथ बोली- "तो मन से कहो, कभी-कभी ऐसा हो जाया
करे।"
शिवा मंद-मंद मुस्कराती रही। बेटी कितना खयाल रखती है उसका।
ऑफ़िस के टेंशन कभी उससे शेअर नहीं करती। अपनी दोस्तों से जब
फोन पर बात करती है तभी उसके जॉब के तनाव उस तक पहुँचते हैं।
जब-तब छुट्टी के दिन किसी अच्छी फ़िल्म की दो टिकटें ले आती है
और अपनी दोस्तों के साथ न जाकर अपनी माँ के साथ एक वीकएंड
बिताती है। और वह है कि बरसों इस इंतज़ार में रही कि बेटी का
किसी से अफेयर हो जाए तो कम से कम इसकी शादी तो वह भर आँख देख
ले। एक लड़का उसे पसंद आया भी, पर जब तक शिवा उसे पसंद कर अपने
घर का हिस्सा बनाने को तैयार हुई वह लड़का बेटी की ही एक दोस्त
पर रीझ बैठा और बेटी को पैरों के एग्ज़ीमा का महीनों इलाज
करवाना पड़ा। शिवा ने बेटी की शादी के सुनहरे सपनों से तौबा कर
ली और खाली वक्त में दोनों माँ-बेटी स्क्रैबल खेल कर या सुडोकू
के खाने भर कर संतुष्ट होती रहीं। तब से जिंदगी एक व्यवस्थित
पटरी पर चल रही थी।
सुबह बेटी के टिफिन में गाजर के पराँठे के साथ लहसुन का अचार
रखना शिवा नहीं भूली और बेटी ने रात की ब्रोकोली के एवज में
गले में बाँहें डालकर विदा ली- "आज भी कल की तरह कुछ डैशिंग
बना लेना मॉम! मूड न हो तो मैं चायनीज़ लेती आऊँगी। जस्ट गिव मी
अ टिंकल!" शिवा की मुस्कान आँखों की कोरों तक खिंच गई।
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बेटी को भेजकर उसने पार्क का रुख
किया। अपनी उसी बेंच पर सैर के चक्कर पूरे करने के बाद वह बैठी
थी। पाँच-दस मिनट वह राह तकती रही, फिर दूर से बूढ़ा आता हुआ
दिखा। झक सफेद कुरता-पाजामा पास आकर ठिठक गया। उसने मुस्कुराकर
देखा तो वह बेंच की एक ओर बैठ गया, लेकिन बैठते ही उठ कर दूसरी
ओर जाते बोला- "ओह, मैं भूल गया था कि आपको इस कान से सुनाई
नहीं देता... मेरी वाइफ़ भी एक कान से थोड़ा कम सुनती... "
शिवा सकते में आ गई- क्या? उसे झटका लगा- जैसे कोई उसके दिमाग़
की सारी शिराओं को अस्तव्यस्त कर रहा था- "क्या आप... ?"
बूढ़ा अटका- "अरे नहीं-नहीं, आप गलत सोच रही हैं, मैंने उस पर
कभी हाथ नहीं... मैं तो..."
शिवा ने सूखी आवाज़ में अटपटाकर पूछा- "तो फिर आपको कैसे मालूम
कि हाथ उठाने से कान का पर्दा फट जाता है?"
बूढ़े ने गला खँखारा- "मेरी वाइफ़ एक एन॰ जी॰ ओ॰ में मदद करने
जाती थी। बताती थी कि डोमेस्टिक वायलेंस की शिकार अस्सी
प्रतिशत औरतों के कान के पर्दे फटे होते हैं। लेकिन उसे
हियरिंग की प्रॉब्लम थी। उसने हियरिंग एड लगा रखा था।"
शिवा ने सशंकित निगाहों से बूढ़े को आर-पार देखा। वह जैसे
आश्वस्त नहीं थी- "यहाँ? किस एनजीओ में?"
"नहीं नहीं, हम मुंबई में नहीं रहते"
शिवा की आवाज़ में थकन थी- "नए आए हैं इस इलाके में?"
"नहीं, पहले भी आ चुके हैं कई बार। बेटा यहाँ रहता है। हम तो
आसनसोल रहते हैं... रहते थे। माय वाइफ पास्ड अवे, छह महीने
पहले।" बूढ़ा बोलते-बोलते रुका और उसने आँखें झुका लीं। झुकाने
से ज़्यादा फेर लीं कि आँखों की नमी कोई देख न ले।
"ओह सॉरी! सॉरी!"
"... तो बेटा जिद करके अपने साथ ले आया- पापा अकेले कैसे
रहेंगे। यहाँ पोते-पोतियाँ, नौकर-चाकर, ड्राइवर-माली सब हैं।
चहल-पहल है। पर..."
"आपकी वाइफ बीमार थीं?"
"बस दस दिन... कभी बताया ही नहीं उसने कि तकलीफ है उसे कहीं।
डॉक्टर के पास जाने को तैयार ही नहीं थी। अपनी डॉक्टर खुद थी
वो। खुद ही आयुर्वेदिक-होमियोपैथिक खाती रहती थी। चूरन चाटती
रहती थी। जिस दिन उल्टी में खून के थक्के निकले उस दिन बताया।
लास्ट स्टेज में बीमारी डिटेक्ट हुई। उसने कभी शिकायत ही नहीं
की। पता ही नहीं चला कि कैंसर पूरे पेट से होता हुआ लंग्स तक
पहुँच गया है। उसके माँ-बाबा दोनों कैंसर से गुज़र गए थे। जब
कैंसर डिटेक्ट हो गया तो कहती थी- आशी, मुझे ज्यादा याद मत
करना, नहीं तो वहाँ भी चैन से रह नहीं पाऊँगी। बिंदा मुझे आशी
कहती थी।"
"आशी!" बूढ़े ने बिंदा की आवाज़ को याद करते अपने को पुकारा।
पुकार के साथ ही चेहरे पर गहराते बादलों की धूसर छाया पसर गई-
"हमेशा कहती थी कि मैं धीरे-धीरे मरना नहीं चाहती, बस
चलती-फिरती उठ जाऊँ आपके कंधों पर... वही हुआ। मेरे साथ वॉक
करते-करते अचानक लड़खड़ा गई। मैंने बाँहों का सहारा दिया तो मेरी
ओर ताकते एक हिचकी ली और बस। सब कहते हैं ऐसी मौत संतों को आती
है... पर जाने वाला चला जाता है, पीछे छूट जाने वालों के लिए
ऐसी विदाई को झेलना आसान होता है क्या?" कहते हुए बूढ़े के
चेहरे पर स्मृतियों में डूब जाने की जो रेखाएँ उभरीं संवाद
वहाँ से आगे नहीं जा सकता था। चुप्पी में ही बगैर हाथ हिलाए
विदा की मुद्रा में बूढ़ा उठा और चल दिया।
-
शिवा घर पहुँची तो साढ़े दस बज
चुके थे। बातों-बातों में वह भूल ही गई थी कि शनिवार की सुबह
बड़ी बिटिया न्यू जर्सी से फोन मिलाती है। शुक्रवार रात को वह
फुर्सत से बात करती है क्योंकि शनिवार उसे काम पर जाना नहीं
होता। जब फोन की लंबी-सी घंटी बजी तो उसे वार याद आ गया। फोन
उसने लपक कर उठाया। उधर से खीझी हुई आवाज़ थी- "क्या माँ, फोन
क्यों नहीं उठा रही हो?" शिवा ने अटकते हुए कहा- "आज ज़रा पार्क
में देर हो गई।" उधर से सुरीले सुर में डाँट-डपट थी- "कितनी
बार कहा है माँ, मोबाइल लेकर जाया करो।" मॉम से माँ बनी शिवा
ने इतराकर कहा- "अपना वज़न उठा लूँ वही बहुत है।"
"शरीर का तो नहीं पर दिमाग में ज़रूर वज़न ज़रूरत से ज़्यादा है,
उसका ख्याल रखो।" उसके बाद आदतन उसने सारी दवाइयों के लिए
पूछा- "कैल्शियम ले रही हो रेगुलर, या भूल जाती हो?" यह बेटी
अब उसकी माँ के रोल में आ गई है। जैसे स्कूल से लौटे हुए बच्चे
का कान पकड़ कर माँ पूरे दिन का ब्यौरा पूछती है कुछ-कुछ उसी
अंदाज़ में यह उसकी खुराक, दवाइयों, मालिश और व्यायाम के बारे
में दरियाफ्त करती है। खासियत यह कि फोन पर उसकी आवाज़ भर से वह
पहचान जाती है कि माँ झूठ बोल रही है और दवा अक्सर भूल जाती
है। उससे झूठ बोला ही नहीं जा सकता।
बेटी ने हाल में एक हिंदी फिल्म देखी थी जिसके बारे में बताती
रही। बात के बीच में एकाएक उसने टोका- "अँ अँ... कहाँ हो आप?
डिस्ट्रैक्टेड क्यों हो? ध्यान कहाँ है?" फोन पर जैसे आईना लगा
हो। सही वक्त पर माँ के हुंकारा न भरने पर दो सेकेंड मे बेटी
पहचान जाती थी कि माँ कुछ और सोच रही है। देर तक दोनों फिल्म
के बारे में बात करते रहे। फोन रखते हुए उसने पूछा- "और मैक
कहाँ है?"
"कहाँ होगा भला- अपने रिहर्सल पर गया है।"
"आए तो उसे मेरा प्यार देना।" शिवा ने कहा।
बेटी एकाएक चहकी- "ओह, आप सुधर गई हो माँ। एकदम सेन वॉयस। नॉट
सिनिकल एनी मोर।"
शिवा मुस्कुराई। बहुत डाँट खाई है उसने मैक को लेकर। ‘माँ, आप
ऐसे नाम लेती हो उसका जैसे आपका बड़ा लाड़ला दामाद है। और हो भी
तो लाड़ को अपने तक रखो। ही इज़ नॉट माय हस्बैंड। और होने का कोई
चांस भी नहीं है। ही इज़ अ गुड फ्रेंड। वो हमेशा रहेगा।’ लेकिन
शिवा तो शिवा। कोंचती रही- इतने सालों से साथ हो, कितना
आजमाओगे एक-दूसरे को, अब तो शादी कर लो। एकबार तो बेटी ने
तल्खी से कह दिया था- ‘शादी करके अपना हाल देख-देख कर जी नहीं
भरा अभी जो अपनी बेटी को शादी की सलाह दे रही हो।’ आज वही बेटी
चहक कर बोल रही थी- "लव यू माँ। जाओ नाश्ता करो। मुझे भी बहुत
नींद आ रही है। अब सोऊँगी। यू हैव अ नाइस डे।"
शाम को छोटी बेटी चाइनीज़ खाने का पार्सल लेती हुए आई। शिवा की
पसंद के मोमोज़ और उसकी अपनी पसंद का वेज हक्का और पनीर
मंच्यूरिअन।
एक बेटी माँ कहती है दूसरी 'मॉम', और दोनों उस पर जान छिड़कती
हैं। फिर भी शिवा बादलों के साये से बाहर नहीं आ पाती। बीता
हुआ वक्त सामने अड़कर खड़ा हो जाता है। शिवा ने चाहा आज वह खुलकर
मुस्कुरा ले।
‘थैंक्यू’ - उसने बेटी का माथा चूमा और कमरे में सोने चली गई।
-
अगले रोज वह पार्क में गई तो
बूढ़ा नियत जगह पर पहले से ही बैठा था। शिवा पास गई तो वह एक
ओर सरक कर उसके बैठने की जगह बनाने लगा। शिवा ने कहा- "पहले
चक्कर लगा आऊँ।"
"आज रिवर्स कर लो। पहले बेंच, फिर सैर!"
शिवा कुछ अनमनी-सी जैसे उसके इंगित से परिचालित हो बैठ गई।
बूढ़े ने अपनी जेब में हाथ डाला, अपना वॉलेट निकाला और उसे ऐसे
खोला जैसे बंद फूलों की पंखुड़ियाँ खोल रहा हो- "देखो, यह है
मेरी वाइफ़- बिंदा!"
शिवा ने देखा, सफेद-सलेटी बालों में एक खूबसूरत-सी औरत की
तस्वीर। उसके चेहरे के पीछे के बैकग्राउंड से जितने फूल झाँक
रहे थे उससे कहीं ज़्यादा उसके चेहरे पर खिले थे। बूढ़े ने सफ़ेद
प्लास्टिक पर चढ़ी धूल की महीन-सी परत को उँगलियों से ऐसे पोंछा
जैसे अपनी बिंदा के माथे पर आए बालों को लाड़ से पीछे सरका रहा
हो।
"बहुत खूबसूरत है!" शिवा ने कहा और अपने भीतर एक टीस को महसूस
किया। फिर तस्वीर धुँधली हो गई और जाने कैसे उस साफ़ चौकोर
प्लास्टिक शीट के नीचे उसने अपना अक्स देखा जो नीचे से झाँकने
की कोशिश कर रहा था। पर आँखों की नमी जैसे ही छँटी- वहाँ बिंदा
थी, अपने भरे-पुरे अहसास के साथ! मटमैली-सी शिवा उसके सामने
खड़ी थी।
"सुंदर है न?" बूढ़े ने फिर पूछा और इस बार धूल-पुँछी तस्वीर को
निहारता रहा।
"बहुत!" शिवा होंठों को खींचकर मुस्कुराई और अपने में सिमट गई।
शुरू जनवरी की ठंडक हवा में थी। सुबह और रात को एक हल्के से
स्वेटर के लायक। बूढ़े ने भी आज एक स्वेटर पहन रखा था। झक सफेद
कुरता और क्रीज़ किया हुआ सफेद पायजामा। लेकिन स्वेटर जैसे किसी
पुराने गोदाम से धूल झाड़कर निकाला हो। नीचे के बॉर्डर में कुछ
फंदे गिरे हुए और फंदों के बीच से बिसूरता दिखता छेद। यह
स्वेटर किसी भी तरह बूढ़े की पूरी पोशाक से मेल नहीं खा रहा था।
शिवा सैर और प्राणायाम निबटा कर अपनी बेंच पर आ जमी। बूढ़ा आकर
पास खड़ा हो गया।
"बैठने की इजाज़त है या...?"
"आइये न!" शिवा बेंच पर थोड़ा सरक गई। बूढ़े के बैठते ही उसकी
निगाह स्वेटर पर गई।
"उधड़ गया है यह स्वेटर।" शिवा ने झिझकते हुए कहा।
"हाँ, बहुत पुराना है। एंटीक पीस!"
"इसको ठीक क्यों नहीं करवा लेते! एक फंदा गिर जाए तो फंदे
उधड़ते चले जाते हैं।" कहकर अपने ही जुमले ने उसे उदास कर दिया
।
"ऐसे ही ठीक है यह।" बूढ़े ने उधड़ी हुई जगह पर अपनी पतली-पतली
उँगलियाँ ऐसे फेरीं जैसे किसी घाव को सहला रहा हो।
"किसने बुना? आपकी...?"
"हाँ, मेरी वाइफ़ बिंदा ने बिना था यह स्वेटर मेरे लिए...शादी
के बाद। बाद में बेटे-बेटियों, नाती-पोतों के लिए स्वेटर बिनती
रही। इस बार सर्दियाँ आने से पहले गरम कपड़ों का ट्रंक खोला तो
यह हाथ आ गया। कितना सुंदर डिज़ाइन है न!" बूढ़े ने जैसे अपने आप
से कहा।
"हूँ।" शिवा बस सिर हिलाकर और मुस्कुरा कर रह गई। कह नहीं पाई
कि आखिर आपकी बिंदा की उँगलियों ने बुना है, सुंदर तो होगा ही!
"मेरी बिंदा मुझसे दो साल बड़ी थी, पर कोई कह नहीं सकता था कि
इस उम्र में भी तुम सोच नहीं सकतीं कि वह कितनी खूबसूरत लगती
थी।"
‘ज़रूर लगती होगी।’ शिवा ने कहा नहीं, सिर्फ सोचा- जिसको अपने
पति से इतना प्रेम मिलता रहा हो उसे हर उम्र में खूबसूरत दिखने
से भला कौन रोक सकता है! प्रेम की चमक को भला कौन नकार सकता
है!
शिवा अपने मटमैलेपन में खो गई थी। लग रहा था एक बार फिर संवाद
के सारे सूत्र यहाँ आकर समाप्त हो गए हैं। अब आगे जुड़ नहीं
सकते। बिंदा की उजास पूरे माहौल को चमका रही थी।
तभी उसे अपने सन्नाटे से उबारती बूढ़े की आवाज़ उसे सुनाई दी-
"आपकी दो बेटियाँ हैं न? शादी नहीं की उन्होंने?"
"नहीं।"
"दो में से किसी एक ने...?"
"हाँ, दो में से किसी ने भी नहीं!" शिवा ने एक-एक शब्द पर ज़ोर
देकर कहा और मुस्कुराहट को होंठों के एक सिरे पर उभरने से पहले
ही झटक दिया- जैसे मखौल उड़ा रही हो किसी का।
"क्यों भला? ऐनी ग्रजेज़ अगेंस्ट मैरेज? (शादी से कुछ परहेज़ है
क्या ?)"
"हाँ, वे कहती हैं - नो मैन इज़ वर्थ अ वुमैन!" (कोई भी मर्द
औरत के लायक नहीं होता)
"कौन-सी बेटी कहती है? बड़ी या... ?"
"दोनों!" सवाल के पूरा होने से पहले ही उसने जवाब दे दिया।
बोलते हुए शिवा को लगा वह अपनी कुढ़न बेवजह इस बूढ़े तक क्यों
पहुँचा रही है।
"अजीब बात है!" बूढ़े के चेहरे पर असमंजस था।
"वैसे दे आर ओपन टु इट! कोई सही मिल गया तो...!" उसने ‘सही’ को
दोनों हथेलियों की तर्जनी हिलाकर इन्वर्टेड कॉमा में होने का
संकेत दिया, और अपनी तल्खी को छिपाने में कामयाब हो गई।
"ह्म्म... वेटिंग फॉर मिस्टर राइट (सही आदमी के इंतज़ार में )
आय टेल यू दिस जेनेरेशन इज़ गोइंग हेवायर।" (यह पीढ़ी बदहवास हुई
जा रही है। )
"नो, दे आर मोर एक्यूरेट अबाउट देअर च्वॉयसेज़। (नहीं, वे अपने
चुनाव के बारे में ज्यादा आश्वस्त हैं) वो अपने कान का पर्दा
फटने देने के लिए तैयार नहीं हैं।" शिवा ने महसूस किया कि उसका
अपने पर से नियंत्रण छूट रहा है और मुस्कुराहट के वर्क में वह
अपने स्वर के तंज को बेरोकटोक उस ओर पहुँचने दे रही है।
मुस्कुराहट भी इतनी तल्ख होकर बहुत से राज़ खोल सकती है, उसने
पहली बार जाना।
"ओह यस, ऑफकोर्स! आय एग्री (मानता हूँ)! मेरा बेटा कभी मेरी
बहू को डाँटता था तो बिंदा उसे झिड़क देती थी - खबरदार जो मेरी
बहू से ऊँची आवाज़ में बोले। आदर्श सास थी बिंदा, जिसमें माँ
होने का ही प्रतिशत ज्यादा था! कभी बहू से रार-तकरार नहीं।
मेरी बहू भी अपने पति की हर शिकायत अपनी सास से ऐसे करती जैसे
वह माँ हो उसकी।" बूढ़ा एकाएक रुका- "सॉरी, मैं बहुत बोलता हूँ
न बिंदा के बारे में?"
"कोई बात नहीं, मुझे सुनना अच्छा लगता है!" शिवा ने डूबते स्वर
में कहा।
बूढ़े ने शिवा के चेहरे पर उदासी की लकीर खिंचती देख ली और उसके
कंधे पर हाथ रखा- "लाइफ़ नेवर स्टॉप्स लिविंग, शिवा!" बूढ़ा कंधा
थपथपाकर चला गया- "सी यू टुमॉरो! चीअर अप!"
चीअर अप, शिवा! शिवा ने कंधे से अपना नाम उठाकर अपने चेहरे पर
सजा लिया और खुश दिखने की कोशिश की।
बूढ़ा अपने पीछे बिंदा का अहसास छोड़ गया था -- बिंदा ये थी,
बिंदा वो थी। इन बोगनबेलिया के लहलहाते फूलों की तरह। इन
हरे-हरे पत्तों से झुकी शाख की तरह। इन शाखों पर बहती दिसम्बर
की भीनी-सी ठंडक लिए महक से भरी हवा की तरह। उस बूढ़े की
साँस-साँस में बिंदा बसती थी... और एक शिवा थी, जिसे पति का
प्रेम कभी मिला ही नहीं और हिटलर-पति की दहशत में कभी उसने
अपनी ओर आँख खोलकर देखा तक नहीं। इन लहलहाते फूलों-पत्तों में
एक अदना-सा ठूँठ! कितना बदसूरत-सा लगता है इस हरी-भरी आबादी के
बीच! इस पार्क में जहाँ हँसते-खिलखिलाते जोड़े हाथ थामे जब
सामने से निकल जाते हैं तो शिवा की हथेलियाँ अपने सूखेपन से
अकड़ जाती हैं और उसके बाद धुँधली आँखों के सामने सारी हरियाली
धुँधला जाती है।
बच्चों के लिए पीले चमकदार प्लास्टिक से बने खूबसूरत स्लाइड और
गेम स्टेप्स के क्यूबिकल्स देखकर शिवा सोचती रही कि ज़िन्दगी
हमारे लिए जापानी तकनीक के ऐसे सुरक्षित सैंड-पिट क्यों नहीं
बनाती कि हम गिरें तो हमारे ओने-कोने लहूलुहान होने से बच
जाएँ।
अतीत के धूसर सायों ने इस कदर छा लिया कि शाम को हरारत-सी
महसूस होने लगी और अगले दिन बुखार हो आया। जब मन और दिमाग पर
कोहरा छाता है तो शरीर पहले अशक्त होने लगता है, फिर अनचाहा
तापमान सिर से शुरू होकर पूरी देह को गिरफ्त में ले लेता है।
वह तीन दिन इस बुखार से लस्त-पस्त पड़ी रही। उसे लगा पार्क में
जाकर बैठने की उसकी हिम्मत जवाब दे रही है।
-
छोटी बेटी का टिफिन तैयार कर अब
वह अपने चाय के कप के साथ बाल्कनी में बैठी थी। इस बाल्कनी के
साथ सुबह की बहुत सारी यादें जुड़ी थीं। कभी अपनी दोनों बेटियों
के पिता के साथ इस बाल्कनी में बैठकर चाय पीते हुए भरसक इस
कोशिश में रहती थी कि बेटियाँ रात का कोई भी निशान उसके चेहरे
या गर्दन पर पढ़ न लें। इस कोशिश में वह अपने चेहरे पर एक
मुस्कान को ढीठ की तरह अड़ कर बिठाए रखती, पर बेटियों के स्कूल,
कॉलेज या नौकरी पर जाते ही वह मुस्कान अड़ियल बच्चे की तरह उसकी
पकड़ से छूट भागती और वह ज़िन्दगी के गुणा-भाग में फिर से उलझ
जाती। अब मुस्कान के उस खोल की ज़रूरत नहीं रही, उसने सोचा और
बग़ैर शक्कर की चाय के फीके घूँट गले से नीचे उड़ेलती रही। कमरे
की ठहरी हुई हवा में नय्यरा नूर की आवाज़ में फ़ैज़ की नज़्म तैर
रही थी-
जिस घड़ी सीनों में डूबे हुए दिन
आस्तीनों में निहा हाथों की
राह तकने लगे आस लिए
जब न कोई बात चले
जिस घड़ी रात चले
जिस घड़ी मातमी
सुनसान सियाह रात चले
तुम मेरे पास रहो।
कब बेटी उससे कह कर चली गई- ओके मॉम, गोइंग! योर मॉर्निंग वॉक
फ्रेंड इज़ कमिंग टु सी यू। आय हैव केप्ट द डोर ओपन! (जा रही
हूँ। आपके सुबह की सैर वाले फ्रेंड मिलने आ रहे हैं। मैंने
दरवाज़ा खुला छोड़ दिया है!) उसने सुना तक नहीं।
अपनी कुर्सी के हत्थे पर एक झुर्रियों वाला हाथ देखकर शिवा
चौंकी- "अरे, आप कब... "
"मैं यहाँ एक मिनट नहीं तो चालीस सेकेंड से तो खड़ा ही हूँ।
तुम्हारी बेटी ने इंटरकॉम पर मेरा स्वागत किया और कहा - ममी
ठीक हैं, चाय पी रही हैं, यू कैन गिव हर कम्पनी! लेकिन आप कहाँ
खोई हैं मैम?" बूढ़े ने लाड़ भरे स्वर में कहा- "लॉस्ट इन द
स्काई? आय हैव डिस्टर्ब्ड यू परहैप्स!" फिर रुक कर किंचित
मुस्कुराते हुए वाक्य पूरा किया- "शायद मैंने आकर तुम्हारी
दुनिया में खलल डाला!"
शिवा ने आँखें ऊपर नहीं उठाईं।
बूढ़े ने अब धीमे से कहा- "मुझे लगा तुम कहीं बीमार न हो इसलिए
देखने चला आया तुम्हें।"
"सॉरी!" उसने माफी माँगी, पर शब्द बुदबुदाहट में सिमट कर रह
गए। बाएँ हाथ की उँगलियों ने उठकर धीरे से दूसरी कुर्सी की ओर
इशारा किया- "बैठ जाइए प्लीज़!"
बूढ़े ने सुना नहीं और कुर्सी पर अनमनी-सी बैठी शिवा की आँखों
में झाँका। शिवा ने एकाएक महसूस किया कि उसकी आँखों की कोरों
पर बूँदें ढलकने को ही थीं। ये आँसू भी कभी-कभी कैसा धोखा देते
हैं- बिन बुलाए मेहमान की तरह मन की चुगली करते हुए आँखों की
कोरों पर आ धमकते हैं और बेशर्मी से गालों पर ढुलक कर मन के
बोझिल होने का राज़ खोल जाते हैं।
शिवा ने जैसे ही पलकें उठाईं, वहाँ से एक बूँद ढलक गई। बूढ़े ने
उन आँखों में अपना अक्स देखा और धीमे से अपनी हथेलियाँ उसके
चेहरे की ओर बढ़ा दीं! उस मुरझाए चेहरे को दो बूढ़ी हथेलियों ने
भीगे पत्तों की तरह जैसे ही थामा, चेहरे ने अपने को उस अँजुरी
में समो दिया। गुलाब की पंखुड़ियों-सा इतना मुलायम स्पर्श,
जैसे कोई रूई के फाहों से घाव सहला रहा हो। हथेली के बीच आँसू,
अब पूरी नमी के साथ, बेरोकटोक बेआवाज़ बह रहे थे। कोई बाड़ जैसे
टूट गई थी। शिवा को लगा यह वक्त जिसका उसे सदियों से इंतज़ार
था, यहीं थम जाए। बूढ़े की उँगलियाँ उसके बालों में हल्के से
फिर रही थीं। उन उँगलियों की छुअन कानों की लवों तक पहुँच रही
थी। वह चाह रही थी अपने भीतर जमा हुआ वह सब कुछ इन हथेलियों
में उड़ेंल दे जो उसने अपने आप से भी कभी शेअर नहीं किया था।
शिवा भूल गई थी कि एक फ्लैट की बाल्कनी होने के बावजूद यह एक
खुली जगह थी - दाईं-बाईं ओर बने टावरों की बाल्कनी में खड़े
होकर या इसी इमारत के दूसरे बरामदों से उन्हें देखा जा सकता
था। जो अपने आँसुओं को अब तक अपने से भी छिपाती आई थी वह आज इस
तरह अपने को उघाड़ क्यों रही है? लेकिन उन हथेलियों की नमी थी
कि शिवा अपने को हटा नहीं पा रही थी।
कमरे में हवा लहराने लगी थी। आँसुओं से भीगे चेहरे पर ताज़ा
ठंडी हवा की छुअन पाकर शिवा ने अपनी मुँदी हुई आँखें खोलीं।
उसके ज़ेहन में एक पुरानी भूली-बिसरी पंक्ति बजी- टु डाय एट द
मोमेंट ऑफ सुप्रीम ब्लिस...
ज़िन्दा रहने के लिए सिर्फ़ इतनी-सी छुअन ज़रूरी होती है, उसे
नहीं मालूम था। इस छुअन को पाने की साध इतने बरसों से उसके
भीतर कुंडली मारे बैठी थी और उसे पता तक नहीं चला। एक खूबसूरत
सपने से जैसे लौट आई थी वह। उन हथेलियों पर अपनी पकड़ को वह कस
लेना चाहती थी, पर अचानक उसने पूरा जोर लगाकर अपने चेहरे को
आज़ाद कर लिया।
बूढ़ा अब बाहर फैले शून्य में ताकता हुआ खड़ा था। मुट्ठी बाँधे
अकबकाया-सा। पास रखी खाली कुर्सी पर ढहते हुए उसने कहा- "आय'म
सॉरी।" कहने के बाद उसने बँधी मुट्ठी खोली और हथेलियों से अपने
चेहरे को ढँक लिया। भीगे चेहरे को छिपाए वह बुदबुदाया- "आय'म
सॉरी शिवा!" कुरते की जेब से रुमाल निकाला और अपने भीगी आँखों
को पोंछा। बिना उसकी ओर देखे उसने जैसे अपने आप से कहा- "शिवा,
मुझे क्यों ऐसा लगा जैसे बिंदा लौट आई है!... मेरी बिंदा! छह
महीने से मैं उसे ढूँढ़ रहा था और वह यहाँ बैठी थी मेरे सामने।
... शिवा, मुझे माफ कर देना! मुझे आज वो बहुत दिनों बाद दिखी
तो मैं अपने को रोक नहीं पाया।" और वह फफक कर रोने लगा।
शिवा जैसे पत्थर की शिला हो गई। पथराई-सी वह उठ खड़ी हुई। "चाय
लाती हूँ।" उसके होंठ हिले और वह रसोई की ओर मुड़ गई।
बिंदा!... तो यह छुअन शिवा के हिस्से की नहीं थी। शिवा के लिए
नहीं थी, बिंदा के लिए थी।
एक पनीले सपने से बाहर आते हुए उसके भीतर बार-बार वह वाक्य बज
रहा था- ‘मुझे क्यों ऐसा लगा जैसे बिंदा लौट आई है...!’ शिवा,
तुम्हारे लिए नहीं था यह गुलाब की पंखुरियों-सा स्पर्श! ज़ाहिर
है, उसके हिस्से ऐसे मुलायम स्पर्श तो कभी आए ही नहीं। उसके
हिस्से में पहला पुरुष स्पर्श उस चुंबन का था जो होंठों पर
जबरन प्रहार की तरह था- उसके अपने फूफा का, जब उसकी उम्र
सिर्फ़ बारह साल थी, जिसके बाद होंठ तीन दिन तक सूजे रहे थे और
वह अपने माँ- पापा, सबसे अपने होंठों को छिपाती रही थी, जैसे
कितना बड़ा अपराध कर डाला था उसके होंठों ने। उसे लगा था जैसे
अब वे होंठ फिर से पहले जैसे होंठ कभी बन नहीं पाएँगे। लेकिन
नहीं, ऐसा नहीं हुआ। वह फिर से लौट आई थी जब उसकी शादी हुई, और
उसने अपने वजूद को उतना ही नम पाया- फिर से एक भीगी-सी छुअन के
लिए तैयार। पर शादी के बाद की वह पहली खौफनाक रात- पूरी देह पर
जैसे चोट देते ओले पड़ रहे थे। उसके बाद वैसी ही अनगिनत रातें
और बीहड़ चुंबन। होंठों ने दोबारा, तिबारा, सौ बार, हज़ार बार
धोखा खाया, खाते रहे। सालों साल। वे सारे चुंबन ऐसे थे जैसे
उसके होंठ अनचाही लार और थूक से लिथड़-लिथड़ कर बार-बार लौट आते
हों। वह उन्हें कितना भी पानी से धोती, तौलिये से पोंछती, पर
थूक और लार की लिथड़न उसके भीतर एक उबकाई की तरह जमकर बैठ जाती
- उतरने से इनकार करती हुई। उसके बाद स्पर्श की नमी को तो भूल
ही गई थी वह। सबकुछ भीतर जम गया था। नहीं सोचा था कि कभी यह
बर्फ़ पिघलेगी। पर स्पर्श ऐसा भी होता है- हवा से हल्का, लहरों
पर थिरकता हुआ और गुलाब की पंखुड़ियों-सा मुलायम, यह तो उसने
पहली बार जाना। अब तक वह अपने जीने की निरर्थकता को स्वीकारती
आई थी। आज उसे पल भर को लगा था कि अब वह मर भी जाए तो उसे
अफसोस नहीं होगा। पर यह तो ग़लती से एक नक्षत्र उसकी झोली में आ
गिरा था। जब तक उसकी चमक को वह आँख भर सहेजती उसकी झोली को
कंगाल करता हुआ नक्षत्र वापस अपने ठिये से जा लगा था।
बरामदे में दो कुर्सियों के बीच की छोटी-सी तिपाई पर उसने चाय
का कप रख दिया। बूढ़ा जा चुका था। उसने लम्बी साँस भरी और अपनी
ही हथेलियों से मुँह ढाँप कर, आँखों में कैद आँसुओं को जी भर
कर बह जाने दिया।
चाय का प्याला बरामदे में पड़ा-पड़ा उसके सामने ठंडा होता रहा।
उसने चाय को उठाकर अंदर वाशबेसिन में उलट दिया।
-
अगले दिन वह पार्क गई। उसी बेंच
पर बैठी। देर तक प्राणायाम की कोशिश में लगी रही पर अपने मन को
एकाग्र नहीं कर पाई। जैसे ही आँखें बंद करती लगता वह सफेद
कुरता पास आकर खड़ा है। उसकी खुशबू भी हवा में घुलकर उस तक
पहुँच रही थी। खुशबू को छूने के लिए वह आँखें खोलती तो वहाँ
कोई नहीं होता। बस पेड़ों की शाखों में हिलते हुए पत्ते थे। बीच
में टहलने के लिए बने रास्ते पर एक के बाद एक अधेड़ अपने ट्रैक
सूट में तेज़-तेज़ चल रहे थे, दौड़ रहे थे पर वह ए॰ के॰ कहीं
नहीं था।
किसी तरह वह अधूरे प्राणायाम लेकिन सैर के पूरे बदहवास चक्कर
लगाकर लौट आई। शिवा अपनी उम्र के पैंसठ साल फलाँग गई थी। उसने
कहा था- वह पचास की लगती है। पैंसठ की हो तो भी क्या! शिवा ने
सोचा- उम्र से कहीं कोई फर्क नहीं पड़ता।
दो दिन। तीन दिन। चार दिन। आँखें उन नर्म-काँपती हथेलियों को
ढूँढ़ती रहीं जिनमें उसका चेहरा था उस दिन। शिवा बेचैन हो उठी।
रोज़ दिखता आसमान जैसे ढँक गया था, बदली गहरा आई थी, लेकिन उसके
पीछे छिपे हुए सूरज की किरणें तेज़ थीं जो शिवा के भीतर जमे
ग्लेशियर को पिघला रही थीं।
पाँचवें दिन शिवा के कदम खुद-ब-खुद उस सफेद कुरते और उधड़े हुए
स्वेटर की उँगली की दिशा में उठ गए। वही इक्कीसवाँ माला। फ्लैट
नम्बर वही जो उसका है। फोन नम्बर में सिर्फ एक का फर्क। बस
बिल्डिंग का नाम अलग। ढूँढ़ पाना मुश्किल नहीं था।
-
लिफ्ट का दरवाज़ा खुला और शिवा
सकुचाते हुए बाहर निकली। क्या कहेगी वह? क्यों आई यहाँ? क्या
वैसे ही जैसे सफेद कुरता चला आया था उसके घर, जब वह पार्क में
कुछ दिन नहीं दिखी थी। क्या लौट जाए वह?
वह दुविधा में थी।
फ्लैट के बाहर ही चंदन की अगरबत्तियों का धुआँ और भीनी-सी
खुशबू आ रही थी। सामने खूब सारी चप्पलें पड़ी थीं। आखिर
पोते-पोती, नाती-नातिनियों वाला घर है। उसके घर की तरह उजाड़
नहीं कि एक जोड़ा चप्पल न दिखे कभी।
फ्लैट का दरवाज़ा खुला था और सामने इतने सारे सिर- अड़ोसी-पड़ोसी,
नाते-रिश्तेदार!
"क्या हुआ?" उसने सामने पड़े पहले व्यक्ति से पूछा।
"ए॰ के॰ के फादर नहीं रहे। रात को सोए तो बस... सुबह उठे ही
नहीं!"
"क्याssआ?" शिवा की साँस थम गई। ऐसा कैसे हुआ! उसे तो किसी ने
यहाँ बुलाया नहीं था। आज ही उसके पैरों ने इस घर का रुख क्यों
किया? क्यों? इस मलाल से कहीं बड़ा मलाल था कि उसके पैरों ने इस
घर का रुख इतने दिन क्यों नहीं किया? पूरे पाँच दिन। रोज़ उसकी
निगाहें पार्क में ही क्यों ढूँढ़ती रहीं उसे। ये पैर पहले भी
तो इस ओर मुड़ सकते थे। क्या उसकी उम्र आड़े आ रही थी? शायद...
शायद वह पहले यहाँ आ गई होती तो बिंदा से मिलने की ऐसी
अफरातफरी न होती इन ए॰ के॰ को! गले के भीतर रुलाई का एक
गुबार-सा उठा, जिसे नीचे धकेलने की कोशिश में उसका सिर वज़नी हो
रहा था। मन ने चाहा कि यहीं से अपने को लौटा ले, पर पैर अपने
आप सामने खड़े लोगों के बीच से राह बनाते आगे को बढ़ चले, जहाँ
ज़मीन पर एक रँगीन चटाई पर सफेद चादर से ढँका वह चेहरा लेटा था-
शांत, निस्पंद। कसकर भिंचे हुए पतले-पतले होंठ!
शिवा एकटक आशीष कुमार के चेहरे को निहारती रही जहाँ अब ‘आय एम
सॉरी' का कोई माफीनामा नहीं था। ‘कोई बात नहीं’- अब वह किससे
कहती! किस तक पहुँचाती जो वो कहना चाह रही थी और न कह पाकर
अपने गले तक कुछ फँसा हुआ महसूस कर रही थी।
ज़मीन पर बिछी हुई एक रँगीन चटाई पर लेटे उस चेहरे पर एक अपूर्व
शांति थी- कोई इच्छा, आकांक्षा, लालसा जहाँ बची न हो। खुली हुई
मुट्ठी ऐसे खुली थी जैसे सबकुछ पा लेने के बाद सबकुछ छोड़कर चले
जाने की तसल्ली!
सहसा शिवा की निगाह उनके कंधों पर गई। वही क्रीम और ब्राउन
धारियों वाला उनकी अपनी बिंदा के हाथ का बिना हुआ स्वेटर। ऐसे
स्वेटर का बिना जाना और ऐसे सहेजते हाथों में उस स्वेटर को
पहुँचा पाना, जि़न्दगी की नायाब हकीकत है। कितनी औरतें अपने
पतियों के लिये ऐसे स्वेटर बुनतीं हैं पर वे उधड़ने के बाद भी
ऐसे सहेजने वाले हाथों में कहाँ पहुँच पाते हैं। सारे स्वेटर
हवा में तैरते रहते हैं और कोई हाथ उन्हें रोकने के लिये आगे
नहीं बढ़ता। एक दिन वे सारे स्वेटर पूरे आसमान को ढक लेते हैं
और उजाले की एक किरण को भी धरती तक पहुँचने नहीं देते। शिवा के
गले तक आया रुलाई का गुबार आँखों के रास्ते बह निकला, जैसे कोई
बढ़ती आती लहर सूखी रेत को दूर तक भिगो दे और फिर भिगोती चली
जाए।
आखिर अपनी बिंदा के पास वे इस उधड़े हुए स्वेटर को पहने बिना
कैसे जा सकते थे- शिवा ने सोचा और अपने को तसल्ली दी। नहीं,
उनकी जगह वहीं थी जहाँ वे इस वक्त चले गए हैं। क्या सचमुच-
अपनी बिंदा के पास?
शिवा एक साये की तरह मुड़ गई, जैसे अपने को वहीं छोड़ आई हो।
पैरों ने अपने फ्लैट की ओर का रुख किया, जहाँ बाल्कनी की
कुर्सी पर चाय का अनछुआ कप जैसे बरसों से अब तक वहीं पड़ा था।
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