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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में प्रस्तुत है
भारत से स्वाती तिवारी की कहानी- स्त्रीमुक्ति का यूटोपिया


प्रथम दृष्टया सब कुछ अद्भुत अलौकिक असाधारण था उसके घर में। सर्वप्रथम तो जान लीजिए कि उसके घर की पारिवारिक व्यवस्था ऐसी बनी थी जिसकी न पितृ-सत्तात्मकता थी न मातृ-सत्तात्मकता। वहाँ व्यक्तिवादी सत्ता का साम्राज्य था। एक सुन्दर सा फ्लैट जिसके ड्राइंग रूप में स्लेटी मेटेलिक कलर वाले साटन प्लस सुपर फाईन नेट के कांन्ट्रास परदों ने मुझे पहली ही नजर में आकर्षित कर लिया था।

एक पल को मेरी नजरों में खुद के ड्राइंगरूम में लगे हेण्डलूम के खादीवाले परदे फैल गए। फैले इसलिए कि वे सरसराते तो थे ही नहीं अपनी रफ खद्दर भारी भरकम सरफेस की वजह से। उसके घर में परदे सरसराते हुए अपने परदा होने का और परदा लहराने का अहसास कराते हुए मुझे मेरी पसंद पर ही शर्मिन्दा कर रहे थे। एक शानदार सोफा सेट और कार्नर पर फूलों का बड़ा सा गुलदस्ता। साफ सुथरा करीने से सजा ड्राइंगरूम अपने साजो सामान के साथ अपनी भव्यता और ऐश्वर्य का प्रमाण दे रहा था। वहाँ बैठते हुए मुझे अपना सलवार सूट मैला कुचैला लगा।

भारतीय रेलवे के तृतीय श्रेणी के वातानुकूलित कंपार्टमेंट से उतरने के बाद भी मैं उतनी ही अस्तव्यस्त थी जितनी जनरल कोच में होती तो लगती। वह मुझे लेने नहीं आ पायी थी पर उसने अपनी गाड़ी कम्पनी के ड्रायवर के साथ भेजी थी। साथ में एक छोटा सा फूलों का गुलदस्ता भी। ड्रायवर ने गाड़ी का गेट खोलने से पहले उसकी तरफ से मेरा स्वागत किया था। मैं खुश थी "वाह उसे याद है मुझे गुलाब लाल नहीं पीले रंग के पसंद हैं।" ड्राईवर ने पलट कर देखा। उसकी आँखों में मेरे लिए थोड़ा विस्मय झलक रहा था।

"सारी मेम मैं थोड़ा लेट हो गया, दरअसल मैं आपको लेने एयरपोर्ट वाले रूट पर निकल गया था।" पर मैंने तो शैरीन को अपना टिकिट मेल किया था।" "हाँ पर मैम को याद नहीं था बाद में फोन आया कि मैं एयरपोर्ट नहीं निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन जाऊँ।"

"ओह!" मैं इसी घटना से एक इन्फीरीटी काम्प्लेक्स का शिकार होना शुरू हो गयी थी- बची कसर उसके परदे की चिकनाई और सोफे ने कर दी। घर में एक फ्रिज पर एक चिट्ठी मेरे नाम पर चिपकी थी।

हाय स्वीटी, वेलकम टू माय हाऊस, एण्ड सॉरी कि आते ही नहीं मिल सकी, पर शाम को जरूर मिलती हूँ। गाड़ी और ड्रायवर तेरे लिए है तू दरियागंज का पब्लिशर वाला काम निपटा लेना। फ्रिज में फ्रोजन पराठे हैं, नहीं तो दूध कार्नफ्लेक्स या ब्रेड आमलेट का नाश्ता कर लेना। फ्रिज के बाईं तरफ एक लिस्ट है नम्बरों की, अगर मेकडोनाल्ड का नम्बर चाहिए तो ऊपर वाला है और सब-वे का तो नीचे वाला है। एज यू लाईक। शाम को मिलते हैं। हाँ तेरे लिए बेडरूम तैयार है तीन नम्बर लिखा कमरा, चाबी पेपरवेट के पास रखी है।

मैं पत्र के साथ-साथ व्यवस्थाएँ चेक कर रही थी। फ्रिज के बाईं तरफ, हाँ नम्बर है। पेपरवेट के पास, हाँ चाबी भी है। मेन गेट की चाबी दरवाजे में खोलते वक्त लटकी रह गई थी और दरवाजा बाहर से लॉक हो गया था अब क्या करूँ? मुर्खता का पहला नमूना मैने यहीं दे दिया था। वो तो ड्रायवर का फोन मेरे मोबाइल में आया था तो उसी की मदद ली। तैयार हुई। फ्रोजन पराठा पहली बार खाना तो दूर, देखा था, वाह क्या व्यवस्था है। पराठा माइक्रोवेव में गरम करके खाया, चाय बना कर पी और तैयार होकर दरियागंज चली गयी। तीन घंटे में मेरा काम खत्म हो गया था मैं उसके दफ्तर पहुँच गई वो एकदम स्मार्ट, विदाऊट स्ट्रीपवाली कोई ड्रेस पहने थी उसकी टाँगे खुली थीं शायद वह ड्रेस र्स्कट होगी। उसने मुझे हलो, हाय करके कहा कि मैं घर चलती हूँ एक ब्लेसर जैसा कोई कोट उसने ऊपर से डाला नीचे उतर आयी। हम साथ साथ गाड़ी तक पहुँचे। उसने ड्रायवर को सौ का एक नोट पकड़ाया ओर चाबी ले ली। अब हम दोनों थे तीसरा कोई नहीं था। गाड़ी में बैठते ही उसने कहा-
"तू मेरे आफिस क्यों आ गयी, कुछ अरजेंट काम था क्या?"
"नहीं सोचा तुझे सरप्राइज दूँ"
वो हँसी, मुझे लगा वो मेरी बेवकूफी पर हँसी थी।
गाड़ी में यहाँ-वहाँ की बातें होती रही। घर पहुँचे तो उसने एक कार्ड डाला ताला खुल गया था।
"तूने, खोला कैसे चाबी तो मेरे पास है?"
"कार्ड स्वीप करके।" उसने कार्ड दिखाया। "हमारे पास मेन गेट की तीन चाबियाँ हैं। एक मेरी, एक शैल की और एक गेस्ट के लिए।"
"अच्छा।"
"यहाँ सब व्यस्त हैं, इतना समय नहीं होता कि चाबियों के लिए रुके रहें। फिर सब की अपनी अपनी पर्सनल लाइफ है, अब मैट्रोस में तो यह सब व्यवस्थाएँ रखनी ही होती हैं। यहाँ कोई किसी का दबाव बर्दाश्त नहीं कर पाता। इसलिए 'घर' शेयर किया जाता है। तुम्हें जल्दी है तुम कर लो, तुम्हें देर है अपना खा कर आओ। अब थाली परोसने जैसी स्थितियाँ नहीं रही ना।"

"हाँ वो तो है?" मुझे लगा मैं बहुत पिछड़ गयी हूँ। अपने कॉलेज जाने से पहले तक भाग-भाग कर पूरे घर की व्यवस्थाएँ सँभालने वाला दृश्य आँखों में तैर गया। मैला कुचैला सूट पहने पहले बबलू का नाश्ता, फिर बाबूजी की दलिया, विनोद का फ्रूट जूस और लंच बाक्स, सब के बाद अपना लंच बाक्स। सब करते करते थक जाती हूँ। बस यहाँ से जाकर मैं भी फ्रिज को अपटेड करूँगी। ब्रेकफास्ट और लंच की सुविधाएँ फ्रिज के उपयोग से सुधर सकती हैं। माइक्रोवेव लेना है, सब अपना-अपना खाना गरम कर लें, मेरा समय बच सकता है। एक लिस्ट फोन की फ्रिज पर ही लगा दूँगी। सभी की चाबियाँ भी अलग अलग करना पड़ेंगी। कभी चाबी विनोद को देते हुए जाना पड़ता, कभी पड़ोस में।

मेरी पूरी एनर्जी उसके घर की तमाम सुविधाओं वाली तथाकथित सुव्यवस्थाओं को अपने घर में लागू करने पर खर्च हो रही थी। सात दिन का स्टे था मेरा, विज्ञान भवन में एक कान्फ्रेंस थी जहाँ मुझे भी अपना रिसर्च पेपर पढ़ना था। अभी तो पहला ही दिन था, थक गयी थी जल्दी ही सो गयी। अगले दिन सबेरे उठी। जल्दी उठने की आदत थी, तीनों की चाय बना ली अखबार के साथ चाय पी। तब तक शैरीन तैयार होकर बाहर आ गयी थी वह निकलने के मूड में थी कोई फारेन से आ रहे हैं जल्दी जाना था। मैं भी तैयार होने चली गयी। मेरा लंच विज्ञान भवन में ही था।

शाम को आयी तो कमरे में राजधानी का पैक डिनर रखा था। शैरीन का फोन आया- "सॉरी थोड़ा बिजी हूँ विदेशी मेहमान साथ है देर हो जायगी तू खाना खा कर आराम कर। राजधानी का यह स्पेशल पैक है। शैल को भी बेहद पसंद है।" दो दिन में दूसरी बार पति का नाम उसके मूँह से सुना था। उसकी जगह में होती तो...? मैं तो हर बात में कहती, विनोद को तो ये चाहिए, वो चाहिए। विनोद तो बिल्कुल बाहर का पंसद नहीं करते, उन्हें तो बस मेरे हाथ के पराठे, खीर, आलू गोभी... लम्बी शृंखला याद आने लगी मैं मन ही मन हँसने लगी। विनोद बाबू यहाँ भी साथ हो, यहाँ तो पीछा छोड़ो यार ...।

हाँ, वो मेरे घर आती तो मैं तो विनोद के साथ लेने जाती "तुम छुट्टी ले लो मेरी दोस्त पहली बार आ रही है।"

राजधानी का पैक डिनर शानदार था। खा कर मैं उसके गेस्टरूम में अपना प्रेसेन्टेशन तैयार कर रही थी। देर रात, दरवाजे की आवाज आयी, आहट से अन्दाज हुआ दो लोग हैं। फिर आहट से ही समझ आया कि एक आवाज शैरीन की है दूसरी किसी विदेशी पुरुष की। शायद शैरीन ने फ्रिज से आइस और ...वोदका या कोई ड्रिंक निकाली थी। चियर्स की आवाज से पता चला वे लोग ड्राईंग रूम में ड्रिंक लेते रहे थे। मैं असंमजस में थी बाहर जाऊँ ना जाऊँ? फिर लगा अगर उसे मिलना होगा या मिलवाना होगा तो बुलाएगी बाहर। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। कुछ देर बाद मेरे रूम के सामने से दोनों निकले। कदमों की आहट से पता चल रहा था फिर दरवाजा लॉक हुआ। मैं सकते में आ गई "ओह गॉड, दिस गर्ल...।" कुछ देर तक उनके कमरे से कुछ अनकही आहटें, आवाजें आती रहीं फिर सब शान्त हो गया। मैं रात भर सो नहीं पायी...सुबह सुबह झपकी लगी, नौ बजे आँख खुली, बाहर निकली तो केयर टेकर घर ठीक कर रही थी बोली "मेम हेज गॉन एंड दिस लेटर इस फार यू।"

"सॉरी डियर, आज शाम को पक्का साथ बैठेंगे। आज तुम्हारा प्रेजेन्टेशन है... मैं चलती पर एक बड़ी डील आज हो जायगी ऐसा लग रहा है। इसलिए...खैर गुड लक।"

मैं तैयार हो रही थी जब बाहर निकली तो शैलेन्द्र यानी शैल अपनी किसी गर्ल फ्रेन्ड के साथ लिफ्ट में मिला वो घर आ रहा था, "हाय सुमी...तुम कब आयी?"
"आज चार दिन हो गए।"
"चलो शाम को मिलते हैं। बाय।"
"बाय"
प्रेजेन्टेशन अच्छा रहा, एकदम अच्छा, शाम को शैरीन का फोन था..."कैसा रहा?"
"फन्टास्टीक यार... तू आती तो मेरा कान्फिडेंस कुछ और बढ़ जाता।"
"चल मैं तुझे पिकअप करने आ रही हूँ दस मिनिट लगेंगे गेट पर मिलना।"
"ओ.के."
फोन बंद किया तो विनोद के पाँच काल मिस हो गए थे- खुशी हुई, तो जनाब उतावले हैं यह जानने के लिए कि मेरा प्रेसेन्टेशन कैसा रहा। फोन उठाते ही झल्ला उठे "कब से लगा रहा हूँ फोन।"
सारा कुछ जानने के बाद फोन बन्द किया तो एक फोन घर से था लेण्ड लाइन नम्बर बाबूजी जानना चाहते थे कैसा रहा?
फोन बन्द किया तो शेरीन सामने थी "कौन है...?"
"विनोद है यार और बाबूजी..."
"ये... ये बाबूजी... कहीं...?" उसकी आवाज में कालेज वाली शरारत भरी थी। उसने चिकोटी काटी "तू पागल है शैरीन...बाबूजी मेरे फादर इन लॉ हैं।
"व्हाट?"
"हाँ मेरे ससुरजी" वो आश्चर्य चकित थी, "वो भी तेरे से बात कर रहे हैं।"
"हाँ उन्होंने मेरी हेल्प की थी प्रेसेन्टेशन में... वो बॉटनी के हेड आफ द डिपार्टमेंट थे युनिवर्सिटी में।
तेरे ससुर भी साथ ही रहते थे ना?"
"हाँ! अब हमने उन्हें ओल्ड एज होम ‘आस्था’ में रख दिया है, कभी-कभी चले जाते हैं मिलने।"
"क्या... तूने उन्हें वृद्धाश्रम? आई एम शॉकिंग।"
"खर्चा तो भेजते ही हैं ना हम!" उसने सफाई दी।
"और तेरा बेटा वो भी नहीं दिखा मुझे इन दिनों?"
"हाँ, वो गुड़गाँव में है एक बोर्डिंग में।"

"क्यों? ऐसा भी क्या घर जहाँ पति पत्नी केवल एक पता यानी एड्रेस यानी मकान नम्बर भर शेयर कर रहे बाकी सब अलग हैं। जहाँ बच्चा बोर्डिंग में और पिता बृद्धाश्रम में।"
"यह तेरा इंदौर नहीं है...यहाँ घर मेनेज करना बड़ा टफ जॉब है, केयर टेकर खाली घर तो देख लेती है। बूढ़ों और बच्चों वाले घर में मिलती ही नहीं है। शैल और मैं एक माडर्न सोसायटी के पार्ट हैं। गृहस्थी के साथ जॉब टू मच यार। नहीं हो सकता सब। ट्वन्टी फर्स्ट सेंन्चूरी है जहाँ ग्लोबलाइजेशन का दौर है। घूँघट सभी के सर पर से चला गया है - बल्कि सूट से दुपट्टा भी हट गया है। बराबरी से कमाते हैं बल्कि ज्यादा ही कमाते हैं, तब फिर क्या जरूरी है वंचितों, शोषितों, दुखियाओं की तरह बने रहें। किचन और पालने की भावनात्मक दुनिया में ही बँधे रहें। नौकरानी नहीं हैं हम और देह भी नहीं हैं केवल देह, हम स्वतंत्र हैं, हमारी भी इच्छाएँ हैं, हमारी देह की भी जरूरतें हैं। जब जहाँ जो जरूरत लगे उसके साधन होने चाहियें हमारे पास भी।

मैं अपने दायरे में ही थी, हालाँकि मेरे पास शब्द बहुत मजबूत थे उसे नकारने के, उसे बेइज्जत करने को, पर मैंने मानवीय प्रेमपूर्ण रिश्तों से पायी ऊर्जा उस पर खर्च करना उचित नहीं समझा।
"मैंने प्रश्न ही दागा था उस पर, शैरीन कल तेरे बेडरूम में...?"
"हाँ...यह तो सामान्य बात है नया क्या था इसमें?"
"शैल को पता है?" मैंने गंभीर होते हुए पूछा।
"होगा, मैं परवा नहीं करती।" हमारे बेडरूम अलग अलग हैं - जब मन होता है साथ होते हैं वरना दोनों की निजता बनी रहती है। शरीर की माँग पेट जैसी ही होती है, पेट को खाना चाहिए ना?
"पर निष्ठा, पवित्रता और विश्वास की त्रिवेणी का क्या होगा शेरीन?"
"वॉट इज त्रिवेणी?"
"क्या ये अपराध या भटकाव नहीं?"

उसका तर्क था इम्मोरल ट्रैफिकिंग पर बुल्फेनडेन की रिपोर्ट कहती है कि "कोई भी वयस्क रजामंदी से निजी तथा अंतरंग रूप से जो कुछ भी करते हैं वह अपराध या पाप-पूण्य का मामला नहीं होता, बल्कि उनका निजी मामला है।"

"चल छोड़, शाम खराब करेगी क्या? क्या नया खिला रही है आज।" मैंने प्रश्न किया बात बदलने के लिए।
"आज खिला नहीं पिला रही हूँ तुझे।"
"क्या?"
"वोदका पिएगी?'
समझ नहीं पा रही हूँ मैं, ये किससे मुखातिब थी? स्त्री-मुक्ति के यथार्थ से या स्त्री-मुक्ति के यूटोपिया से?

अप्रैल २०१६

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