आज उनकी नींद जल्दी ही खुल गई
थी। सर्दी के दिन थे। दिन अभी नहीं निकला था। आसमान लालिमा
लिये सूरज की प्रतीक्षा कर रहा था। पत्नी हमेशा की तरह उठ गई
थी। नहाकर अपने पूजा के बर्तन माँज रही थी। तभी उन्हें उठा देख
उनके लिए पानी ले आई और चाय बनाने चली गई। वे बाहर अखबार लेने
आ गए।
मोहल्ला धीरे-धीरे जाग रहा था। पड़ोस की छत पर शर्माजी अपनी
पत्नी के साथ चाय पी रहे थे। सड़क पर आवा-जाही शुरू हो गई थी।
लोग-बाग घूमने के लिए निकल रहे थे। उन्हें देखकर एक गाय तेजी
से आकर दरवाजे पर खड़ी हो गई। उन्होंने जमीन पर पड़ा अखबार उठाया
और अंदर आ गए। पत्नी ने चाय बनाकर टेबल पर रख दी।
"क्या बात है, आज जल्दी उठ गए?"
"हाँ, बस ऐसे ही नींद खुल गई। मैंने सोचा, उठ ही जाऊँ।"
कहकर वे अखबार पढ़ने लगे। पत्नी कुछ क्षण खड़ी रही, पर कोई
प्रतिक्रिया न पाकर पुनः अंदर जाकर अपना काम करने लगी।
पत्नी के जाते ही उन्होंने अखबार नीचे रख दिया और धीरे-धीरे
चाय पीने लगे।
वे बड़े साहित्यकार थे, बुजुर्ग थे, बहुत सी किताबों के रचयिता
थे। उम्र बहुत थी, इसलिए लिख कम पाते थे, लेकिन स्थानीय स्तर
के सभी सम्मेलनों व गोष्ठियों में पाए जाते थे। शुरू से
जोड़-तोड़ में कम विश्वास रखते थे। या यों कह लें, जोड़-तोड़ करना
उनकी सामर्थ्य से बाहर था, पर सम्मान पाने की इच्छा उनके मन
में रहती थी। उन्हें लगता कि उन्होंने जो साहित्य-सृजन में
उम्र गुजारी है, इस नाते सम्मान के हकदार तो हैं।
वह भी क्या करें। जीवन का दर्शन वाकई अजीब ही है। युवावस्था से
ही उन्हें अपने साहित्य-सृजन पर विश्वास था। उनकी रचनाओं में
ऊर्जा थी, उच्च कोटि का साहित्यिक स्तर था, ऐसा वे मानते थे।
इसीलिए उनकी कल्पनाओं में सदैव ऊँचे सम्मान व पुरस्कार रहते
थे।
नौकरी के बाद जो भी समय मिलता, वह सब साहित्य को समर्पित कर
देते। गोष्ठियाँ, सम्मेलन सभी में उनकी उपस्थिति बराबर पाई
जाती। धीरे-धीरे समय गुजरा, साहित्य-सृजन तो बहुत हुआ, पर कोई
उल्लेखनीय सम्मान व बड़ा पुरस्कार तो पा न सके। कुछ लोग उनसे
शाब्दिक सहानुभूति भी रखते, पर वह उन्हें कतई तसल्ली न दे
पाती, बल्कि ये स्थितियाँ उन्हें रह-रहकर कचोटती रहतीं। उम्र
के साथ समझौतावादी हो गए और औपचारिक सम्मान से ही संतुष्ट रहने
की कोशिश करने लगे।
आज सुबह जल्दी उठने की कोई विशेष बात नहीं थी, पर चार दिन पहले
ही गोष्ठी में हुए वाकए से वे अत्यंत रोमांचित थे। एक युवक
उनकी कविता से अत्यंत प्रभावित हुआ था, इतना अधिक कि गोष्ठी के
बाद वह रुका रहा और उनकी कविताओं की बहुत तारीफ की। वे बहुत
खुश हुए। उन्होंने भी उसकी रचनाओं के बारे में पूछा।
युवक अत्यंत प्रसन्न हुआ। उसने अपनी रचनाओं को एक बार दिखाने
की इच्छा प्रकट की। कहने लगा कि मैं तो आपके बताए रास्ते पर
चलकर ही अपना साहित्य-जीवन शुरू करना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ
कि आप पग-पग मेरा मार्गदर्शन करें।
वे इस सम्मान से अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने उसका उत्साह
बढ़ाया। वे चाहते तो मिलने के लिए दूसरे दिन का ही समय दे सकते
थे, पर अपनी व्यस्तता जाहिर करते हुए चार दिन बाद का समय दिया।
उन्हें लगा कि वह यदि दूसरे दिन का ही समय देते तो शायद वह यह
सोचता कि बिल्कुल खाली है।
और चार दिन से उनकी कल्पनाओं में साहित्यिक संवाद चल रहे थे।
सचमुच, आज के दौर में नए लोगों को कितना समझाना पड़ेगा। वे उसे
बतलाएँगे कि उनके युग में उन्हें कैसा संघर्ष करना पड़ा था। याद
करके उन्हें हँसी आ गई। ये नए लड़के भी उनके बराबर मेहनत कर
सकते हैं क्या? कैसे वे नौकरी के बाद शाम को निकलते थे, कैसे
वरिष्ठ साहित्यकारों से मिलते रहते थे, लगातार उन्हें अपनी
कविताएँ दिखलाते थे। कभी-कभी कोई उनकी कविताओं पर व्यर्थ
टीका-टिप्पणी कर देता, पर वे कभी विचलित नहीं होते थे। वे
दिवाकर को भी यही कहेंगे कि टीका-टिप्पणी से कभी परेशान नहीं
होना है, क्योंकि साहित्य की दुनिया में दोनों तरह के लोग
मिलते हैं। एक सच बताने वाले और दूसरे जान-बूझकर हतोत्साहित
करने वाले।
चाय खत्म करके वे पुनः दीवान पर जा लेटे। ठंडा मौसम था, इसलिए
गर्दन तक रजाई भी ओढ़ ली और फिर कल्पनाओं में डूब गए। सचमुच, आज
के बच्चों में समर्पण भी नहीं रहा। वरिष्ठ साहित्यकारों के
प्रति सम्मान। वे स्वयं कितना सम्मान करते थे! मिलते ही पाँव
छूना, आदर से बात करना....और जाते समय कभी पाँव छूना नहीं
भूलते थे।
उस दिन दिवाकर ने भी उनके पाँव नहीं छुए थे। उनके भीतर एक टीस
उत्पन्न हुई। ...खैर, कोई बात नहीं। सोचते-सोचते उन्हें कब
नींद आ गई।
"सुनो जी, आज कब उठना है?" पत्नी की आवाज सुनकर वे हड़बड़ाकर
उठे।
"हाँ, बहुत देर हो गई।" वे उठे। देखा, घड़ी नौ बजा रही थी।
उन्हें समय पर बहुत गुस्सा आया। दिवाकर अभी सुबह ही आ जाता तो
क्या कहते। वे तेजी से अपने काम निपटाने लगे।
नहाते समय वे दिवाकर के बारे में ही सोच रहे थे। उन्हें अपनी
जल्दबाजी पर हँसी आ गई। कहते क्या, यही कि रात को देर तक लिखते
रहते हैं, टाइम ही नहीं मिलता।
नहा-धोकर नाश्ता किया, तब तक ग्यारह बज चुके थे। वे पुनः अपने
कमरे में जा पहुँचे। इधर-उधर बिखरी किताबों को व्यवस्थित किया।
पैड पर लिखे हुए कागज लगाए, उन पर पेन रखा। दिवाकर को मूल्यों
के बारे में बताना जरूरी है। जीवन में मूल्यों का ध्यान रखना
और अपने साहित्य में ईमानदारी से उसे बतलाना।
उन्होंने यही तो किया है, अपने साहित्य के माध्यम से
सदैव लोगों को मूल्यों का पालन करने के लिए प्रेरित किया। उनका
संपूर्ण साहित्य यही तो संदेश देता है।
घड़ी का काँटा निरंतर आगे बढ़ता जा रहा था। उन्होंने खाना खाया
और पुनः अपने कमरे में आकर बैठ गए। दिवाकर अभी तक नहीं आया था।
उन्होंने दिवाकर से यही कहा था कि वह सुबह का नाश्ता उनके साथ
ही कर लेगा, दोपहर को उन्हें कहीं जाना है। ये आजकल के लड़के भी
समय की कोई कीमत नहीं जानते। एक उनका जमाना था, जब वे किसी बड़े
साहित्यकार से मिलने जाते थे तो समय से पहले ही पहुँच जाते थे।
कई बार तो उन्होंने घंटों इंतजार भी किया है, तभी तो यहाँ तक
पहुँचे हैं। वे दिवाकर से यह जरूर कहेंगे कि वह समय का ध्यान
अवश्य रखे। वे समय के मामले में बड़े पक्के हैं, नहीं तो फिर
ऐसे मिलना संभव नहीं होगा।
तभी पत्नी ने आकर कहा, "ब्याईजी के यहाँ हो आएँ आज। कह रहे थे,
आज घर पर ही मिलेंगे।"
"नहीं-नहीं, आज नहीं, फिर कभी देखेंगे।"
"क्यों, आज क्यों नहीं, आज क्या काम है?"
उन्हें गुस्सा आ गया- "तुमसे कह दिया न, आज नहीं, फिर भी बहस
करती हो!" पत्नी चुपचाप चली गई।
वे लेट गए। धीरे-धीरे शाम भी ढलने लगी। अब उन्हें दिवाकर पर
गुस्सा आने लगा। ये लोग कैसे आगे बढ़ेंगे, कोई समर्पण नहीं, कोई
निष्ठा नहीं, कोई ध्यान ही नहीं। उन्हें दिवाकर को अच्छी तरह
समझाना होगा, अभी तो बहुत आगे जाना है। बहुत लिखना पड़ेगा।
कितनी मेहनत, त्याग करना पड़ता है। जब आप अपने पथ-प्रदर्शक के
साथ इतने महत्वपूर्ण समय में ऐसी लापरवाही कर रहे हैं तो फिर
जीवन में भला कैसे आगे बढ़ पाएँगे।
तभी फोन की घंटी बजी। उन्हें लगा, दिवाकर का फोन है। वे उठे,
पर पत्नी पहले ही फोन उठा चुकी थी। वे रुक गए। लगा, अभी उन्हें
आवाज देगी। वे भूमिका बनाने लगे, तभी पत्नी ने फोन रख दिया।
उनका मन नहीं माना, पूछ ही लिया, "किसका फोन है?"
"ब्याईजी का फोन था। पूछ रहे थे, आज आ रहे हैं? मैंने मना कर
दिया।" पत्नी कहकर बाहर चली गई।
उन्हें अब गुस्सा आ ही गया। दिवाकर ने उनका फोन नंबर भी लिया
था। वह फोन भी कर सकता था। पर हो सकता है, किसी जरूरी काम में
फँस गया हो। घर में किसी की तबीयत खराब हो गई हो, जरूर यही बात
है, नहीं तो वह ऐसा लड़का तो नहीं लगा। कितना सीधा और
संस्कारवान् लड़का लगा। पाँव नहीं छूए तो क्या हुआ, अपने सृजन
को मामूली और दूसरे को इतना महत्वपूर्ण बताना, यह क्या कम
कलेजे का काम है ?
उन्हें लगा कि वह ही पूछ लेते हैं। उन्होंने कागज उलटे-पलटे,
दिवाकर का मोबाइल नंबर मिल गया। उन्होंने फौरन नंबर डायल किया
घंटी बजती रही, कोई जवाब नहीं आया। उन्होंने फिर घंटी दी।...
फिर वो ही.....वो पाँच मिनट रुके..... क्या बात है? कहीं
दिवाकर जानबूझकर तो फोन नहीं उठा रहा। उनका मुँह अपमान से बुझ
गया पर मन नहीं माना। उन्होंने फिर घंटी दी। अब फोन उठा। वे
फौरन बोले, "मैं केशवदत्त बोल रहा हूँ। तुम कैसे हो?"
"अरे, मैं कवि... उस दिन गणतंत्र दिवस की कवि गोष्ठी में मिले
थे ना... तुमने कहा था..."
"हाँ-हाँ, मैं..... दरअसल एक खुशी की बात है... मंत्रीजी ने
पार्टी की कमेटी में मुझे भी ले लिया है, महामंत्री बनाया है।
चुनाव आ रहे हैं। भाषण व नारे लिखने की जिम्मेदारी मुझे ही दे
दी है। बस, अब तो तीन-चार महीने दम मारने की फुर्सत नहीं है।
सचमुच मैंने तो सपने में भी नहीं सोचा था। आप भी कभी कोई काम
हो तो बताना। बिल्कुल मंत्रीजी का खास आदमी बन गया हूँ।"
उन्होंने
धीरे से फोन रख दिया।
"क्या हुआ, किसका फोन है?" पत्नी न जाने कब पीछे आकर खड़ी हो गई
थी।
"अरे, किसी का नहीं, बाहर से है। एक कवि महोदय हैं, किताब
दिखाने के पीछे पड़े हैं। मैंने मना कर दिया, मेरे पास टाइम
नहीं है। कहाँ-कहाँ, किसको देखता रहूँ।"
"अरे, बाहर से है, कल बुला लेते।" पत्नी को दया आ गई।
"नहीं-नहीं, कल तो ब्याईजी के यहाँ जाना है।" पत्नी से नजरें
चुराते हुए वे भीतर कमरे में घुस गए। |