वे खुद भी एक कहानी थे, एक लम्बी
कहानी और उनके भीतर मौजूद थीं -- अनगिनत कहानियाँ। क्या वे
क़िस्से-कहानियों की खेती करते हैं? हम सारे बच्चे अक्सर हैरान
होकर यह सोचते।
छब्बे पा' जी के पास अद्भुत कहानियों का खजाना था। हालाँकि वे
हम बच्चों के पिता की उम्र के थे लेकिन गली में सभी उन्हें पा'
जी (भैया) ही कहते थे। प्याज की परतों की तरह उनकी हर कहानी के
भीतर कई कहानियाँ छिपी होतीं। अविश्वसनीय कथाएँ। उनसे कहानियाँ
सुनते-सुनते हम बच्चे किसी और ही ग्रह-नक्षत्र पर चले जाते।
अवाक् और मंत्रमुग्ध हो कर हम उनकी कहानियों की दुनिया में गुम
हो जाते। उनके शब्दों के जादू में खो जाते। परियाँ, जिन्न,
भूत-प्रेत, देवी-देवता, राक्षस-चुड़ैल उनके कहने पर ये सब
हमारी आँखों के सामने प्रकट होते या गायब हो जाते। छब्बे पा'
जी की एक आवाज पर असम्भव सम्भव हो जाता, मौसम करवट बदल लेता,
दिशाएँ झूम उठतीं, प्रकृति मेहरबान हो जाती, बुराई घुटने टेक
देती, शंकाएँ भाप बनकर उड़ जातीं।
छब्बे पा' जी की कहानियाँ पंचतंत्र से महाभारत तक, रामायण से
अलिफ़-लैला तक फैली होतीं। हीर-राँझा, मिर्जा साहिबाँ, सस्सी
पुन्नू, सोहनी महिवाल, पूरन भगत, राजा रसालू, दुल्ला भट्टी,
जीऊणा मौड़ और कैमा मलकी के किस्से उन्हें ऐसे कंठस्थ थे जैसे
बच्चे को दो का पहाड़ा रटा होता है लेकिन इनसे भी ज्यादा रोचक
वे कहानियाँ होतीं जिनके स्रोत हम बड़े होने के बाद भी नहीं
जान पाए। क्या वे अद्भुत कहानियाँ उन्होंने खुद गढ़ी थीं?
कभी-कभी छब्बे पा' जी कुछ दिनों के लिए अपने गाँव चले जाते।
उनका गाँव अमृतसर शहर से पन्द्रह-बीस किलोमीटर दूर था। तब मुझे
उनकी कमी बहुत शिद्दत से खलती, क्योंकि तब मैं उनकी अद्भुत
कहानियाँ सुनने से वंचित रह जाता। तब मैं कल्पना करता कि काश,
कहानियाँ पेड़ों पर फलों की तरह उगतीं। यदि ऐसा होता तो हम सब
बच्चे उन्हें पेड़ों से तोड़-तोड़ कर उनका खूब स्वाद लेते।
किसी पेड़ पर एक तरह की कहानी तो किसी दूसरे पेड़ पर दूसरी तरह
की कहानी, कहीं संतरा-कहानी तो कहीं अमरूद-कहानी।
कई बार छब्बे पा' जी छुट्टी वाले दिन भी शहर में ही किसी काम
से निकल जाते और रात तक घर नहीं लौटते। ऐसे में हम बच्चे सारा
दिन उनकी राह देखते रहते। जब वे नहीं लौटते तो मैं सोचने लगता
कि वे क्या कर रहे होंगे। ज़रूर वे सुबह-सुबह दरबार साहब
(स्वर्ण मंदिर) गए होंगे, वहाँ गुरु ग्रंथ साहब के आगे माथा
टेक कर उन्होंने गुरबाणी सुनी होगी, उन्होंने सरोवर के पवित्र
जल में स्नान किया होगा और दरबार साहब की परिक्रमा की होगी।
उन्होंने अकाल तख़्त के आगे भी माथा टेका होगा और पास कहीं
बैठकर उन्होंने कड़ाह प्रसाद का हलवा खाया होगा।
फिर दरबार साहब से बाहर आ कर उन्होंने किसी ढाबे में बैठकर
छोले-भटूरे का नाश्ता किया होगा, किसी दुकान से उन्होंने
पापड़-बड़ियाँ खरीदी होंगी, कटरा जैमल सिंह से कुछ कपड़े खरीदे
होंगे, हाल गेट में डी. ए. वी. कॉलेज के पीछे वाली गली में
ज्ञानसिंह हलवाई की दुकान पर मलाई वाली लस्सी पी होगी और
गजरेला (गाजर का हलवा) खाया होगा। वहीं कहीं सड़क के किनारे
खड़े किसी रेहड़ीवाले से बढ़िया गज़क ली होगी, फिर उन्होंने
क्रिस्टल चौक से सॉफ़्टी खाई होगी। लौटते हुए शायद वे पुतलीघर
चौक पर उतरे होंगे, वहाँ सब्जी मंडी से उन्होंने सब्जियाँ ली
होंगी। लेकिन इतना सारा सामान लेकर वे गुरु नानक देव
यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी तो यक़ीनन नहीं जा पाए होंगे, तब तो
उन्हें थोड़ी देर में घर लौट आना चाहिए, मैं सोचता...
कभी-कभी ऐसा भी होता कि छब्बे पा' जी उदास लग रहे होते। जब वे
उदास होते तो कई दिनों तक उदास ही रहते। हम बच्चे सोचने लग
जाते कि उनकी उदासी का क्या कारण होगा? आज पीछे मुड़कर देखता
हूँ तो समझ में आता है कि पुराने ज़माने में लोगों के पास हँसी
का खजाना था। जितना चाहे हँस लो, वह भरा हुआ खजाना कभी खत्म
नहीं होता था। हुआ यह होगा कि
लक्कड़दादा-फक्कड़दादा-पड़दादा-दादा-बाप आदि से होता हुआ जब वह
खजाना छब्बे पा' जी के पास पहुँचा होगा तो वह लगभग खाली हो गया
होगा, उसमें हँसी की शायद ही कोई दमड़ी बची होगी। हो-न-हो,
छब्बे पा' जी उसी पुराने खानदान के बेचारे वारिस होंगे जिनके
खाली हो चुके खजाने में अब केवल उदासी की अठन्नी बची होगी
लेकिन उस प्राचीन खानदान के अगले वारिस छब्बे पा' जी के बेटे
के पास क्या बचेगा? उनके बेटे सुरिंदर के खजाने में तो वह
उदासी की अठन्नी भी नहीं होगी।
अक्सर छब्बे पा' जी गली में मंजी (खाट) डाल कर बैठ जाते। कभी
हम बच्चे उनके साथ गली में बंटे (कंचे) खेलते, कभी छोटे-छोटे
पत्थरों में डोर बाँध कर एक-दूसरे से 'आ गुलाबो काँटियाँ' खेल
रहे होते, कभी वे हमें शतरंज खेलना सिखा रहे होते तो कभी हम
उनके कोठे (छत) पर चढ़ कर उनकी कयादत में पतंग उड़ा रहे होते,
जब छब्बे पा' जी की पतंग किसी दूसरी पतंग को काट देती तो हम
सारे बच्चे 'आई बो, बो काटा' की आवाज चारों दिशाओं में फैला
देते। छब्बे पा' जी बड़े कुशल पतंगबाज थे, उनकी माँझा डोर और
पतंग उड़ाने की कलाकारी की चर्चा दूर-दूर तक थी। दूसरे पतंग
उड़ाने वाले उनकी पतंग से पेंच लड़ाने से घबराते थे लेकिन हम
सारे बच्चे उन्हें आकाश में उड़ती बाक़ी सारी पतंगें काट देने
के लिए उकसाते रहते थे।
हम छह-सात लड़के थे। मैं, करमजीत, बिट्टू, शाणे, बंटी, लवली और
टीटू। कभी-कभी हमारा एक और दोस्त तोते भी हमारे साथ हो लेता।
छब्बे पा' जी का बेटा सुरिंदर और बेटी सिमरन हालाँकि हमसे उम्र
में कुछ साल बड़े थे लेकिन वे भी खेल-कूद में हमारे साथ ही
रहते। छब्बे पा' जी जब आस-पास उड़ती सारी पतंगें काट देते और
हम बच्चे दूसरे पतंग उड़ाने वालों की भी कटी पतंगें और काफ़ी
डोर लूट लेते तब जा कर हमें चैन मिलता। फिर थोड़ी देर छब्बे
पा' जी हमें पतंग उड़ाना सिखाते और पेंच लड़ाने की बारीकियाँ
बताते। यह शिक्षा पतंग उड़ाने के 'क्रैश-कोर्स' जैसी होती।
इसमें पिन्ना लपेटना, अक्खाँदार, कन्नी डालना, ढील देना हाथ
मारना, हवा लगनी जैसे वाक्यांशों का खुल कर प्रयोग किया जाता।
जब हम बच्चे थक जाते, उसी समय चाई जी (छब्बे पा' जी की माता
जी) हम सबके खाने के लिए गजक, रेवड़ियाँ और मूँगफली कोठे पर ले
आतीं। साथ में छब्बे पा' जी के लिए अदरक और इलायची डाल कर बनाई
गई दूध-पत्ती होती। हम सब बच्चे चाई जी को 'पैरीं पैन्ना हाँ
जी' (चरण-स्पर्श) कहते और उनसे 'जींदे रहो' का आशीर्वाद भी
लेते।
फिर हम सब हाथ धो कर छब्बे पा' जी के पीछे पड़ जाते-
"पा' जी, कहाणी सुनाओ"
हम बच्चों को छब्बे पा' जी से कहानी सुनने की लत लग गई थी। यह
एक तड़प, एक धुन, एक जुनून की तरह थी।
"लै राजे, नेकी और पूछ-पूछ... आ जाओ भई, सारे बच्चे यो"...
छब्बे पा' जी की यह आवाज़ सुनते ही बीच समन्दर में भटकता हमारा
जहाज़ जैसे किनारे आ कर लंगर डाल लेता
छब्बे पा' जी को इतनी कहानियाँ कैसे आती हैं -- अक्सर हम बच्चे
हैरान हो कर यह सोचते। दाढ़ी-मूँछों के बीच मुस्कराते उनके
सफेद दाँत मुझे आज भी याद हैं। वे हमेशा नीली पगड़ी पहनते थे।
"पुत्तर, नीला रंग आकाश का होता है। नीला रंग समन्दर का होता
है, बड़ा शांत रंग होता है यह, पर इस रंग में अथाह गहराई होती
है समझे?" वे कहते। इसलिए उनके घर के पर्दों का रंग भी नीला
था।
ज़रूर छब्बे पा' जी को ये सारी कहानियाँ चाई जी सुनाती होंगी,
अक्सर हम बच्चे आपस में एक-दूसरे से कहते। चाई जी को देखना,
उनसे बातें करना टाइम-मशीन में बैठकर प्राचीनकाल में चले जाने
जैसा था। पीछे मुड़ कर देखने पर अब तो मुझे यही लगता है, उनकी
एक-एक झुर्री में जैसे सैकड़ों साल बंद पड़े थे। उनके मुँह से
निकला एक-एक शब्द एक आदिम गूँज लिए होता लेकिन उनकी गोद में
बैठ कर बड़ा सुकून मिलता था।
दूसरी ओर छब्बे पा' जी का बेटा सुरिंदर था। उससे बात करना
टाइम-मशीन में बैठ कर सुदूर भविष्य में निकल जाने जैसा था।
पीछे मुड़कर देखने पर अब मुझे यही लगता है, सुरिंदर हमेशा
हेलीज़ कॉमेट, कॉमेट शूमाकर, बिग बैंग, ब्लैक-होल,
रेडियो-टेलेस्कोप, रेड-स्टार, लाइट-इयर्स आदि की बातें किया
करता था। वह गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी, अमृतसर से
एस्ट्रो-फ़िज़िक्स में एम. एस. सी . करना चाहता था। उसका सपना
'नासा' जा कर अंतरिक्ष-यात्राएँ करने का था लेकिन उस समय उसकी
बातें हम बच्चों को कम ही समझ आती थीं। हमारे लिए इतना ही बहुत
था कि सुरिंदर छब्बे पा' जी का बेटा था। हालाँकि कभी-कभी उसके
टेलेस्कोप से मैं भी रात में आकाश के तारे देख लिया करता था।
छब्बे पा' जी की बेटी सिमरन तब अठारह बरस की थी। वह तीखे
नैन-नक्श, गेंहुआ रंग और भरी-पूरी गोलाइयों वाली सोहणी मुटियार
(सुंदर युवती) थी। मुझे उसके साथ रहना, उससे बातें करना अच्छा
लगता था। तब मैं तेरह साल का हो गया था और साथ उठते-बैठते या
खेलते-कूदते जब कभी मेरी नाक में उसकी युवा देह-गंध पड़ती तो
मेरे भीतर एक नशा-सा छा जाता। तब मेरा मन हमेशा सिमरन के
आस-पास रहने का करता।
कभी-कभी छब्बे पा' जी कुछ दिनों के लिए अमृतसर से पन्द्रह-बीस
किलोमीटर दूर अपने पुश्तैनी पिंड (गाँव) 'चढ़दी कलाँ' चले
जाते। एक बार स्कूल की छुट्टियों में जिद करके मैं भी उनके साथ
चला गया। मेरे पिता छब्बे पा' जी के मित्र थे। लिहाजा छब्बे
पा' जी के भरोसा दिलाने पर उन्होंने मुझे छब्बे पा' जी के साथ
उनके गाँव जाने की इजाजत दे दी।
"आप फ़िकर ना करो जी, इसे कुछ नहीं होगा, ये मेरे पुत्तर जैसा
है। सुरिंदर और सिमरन भी हैं ना साथ, हम सब इसका ख़याल रखेंगे"
छब्बे पा' जी ने पिता जी के चेहरे पर चिंता की लकीरें देख कर
हँसते हुए कहा था।
गाँव में एक अपनापन होता है, एक जानी-पहचानी कशिश होती है जो
शहर के अजनबीपन से बिल्कुल अलग होती है। आज जब मैं पीछे मुड़
कर देखता हूँ तो यही लगता है।
जितने दिन मैं छब्बे पा' जी के गाँव रहा, हम ट्यूब-वेल पर ही
नहाते और खेतों में ही दोपहर की रोटी खाते। तब मैं पहली बार
ट्रैक्टर पर चढ़ा था। लुंगी और कुर्ते में छब्बे पा' जी उस
उम्र में भी बेहद आकर्षक लगते थे। जब वे अपनी बाँह मोड़ते थे
तो उनके बाज़ू में मछलियाँ बनती थीं। वे लम्बे, तगड़े जाट सिख
थे, उनके चौड़े कंधों पर बैठ कर सरसों के खेतों में घूमना मुझे
आज भी याद है।
"पुत्तर, रज्ज के खाया-पिया कर सेहत बणा" खाने-पीने के मामले
में वे पक्के अम्बरसरिए (अमृतसर के) थे।
चाई जी भी हमारे साथ आई थीं। उस दिन उन्होंने जो मक्की की रोटी
और सरसों का साग खिलाया था उतना स्वादिष्ट खाना मैंने कभी नहीं
खाया था। लगता था जैसे उनके हाथों में जादू हो। उसी दिन सिमरन
ने मुझे अकेले में 'पिच्छे-पिच्छे आंदा, मेरी चाल वेहंदा आईं,
चीरे वालेया वेखदा आईं वे, मेरा लौंग गवाचा' गीत सुनाया था। हम
दोनों टहलते हुए खेतों की ओर निकल गए थे। सिमरन ने फुलकारी
वाला गुलाबी सूट पहना हुआ था। तभी तेज़ हवा के एक झोंके से
उसकी चुन्नी उड़ गई थी। मैंने तेजी से दौड़ कर चुन्नी पकड़ ली
थी। जब मैंने सिमरन को उसकी चुन्नी लौटाई थी तो उसने प्यार से
मेरा माथा चूम लिया था।
"आप बहुत सोहणे (सुंदर) हो" मैंने शर्म से लाल होते-होते भी यह
कह दिया था
"चल, झूठे" सिमरन ने बनावटी ग़ुस्से से कहा था हालाँकि उसकी
आँखें ख़ुशी से झूम रही थीं और वह खुल कर हँस रही थी। उस दिन
सिमरन मुझे बहुत अच्छी लगी थी। मैं उसकी उन्मुक्त खनकती हुई
हँसी का दीवाना था।
उसी शाम छब्बे पा' जी ने मुझे, सुरिंदर और सिमरन को एक ऐसी
मार्मिक कहानी सुनाई थी जो आज भी मेरी आँखें नम कर देती है।
"पुत्तर, आज मैं तुम सब को एक सच्ची कहाणी सुनाता हूँ, १९७१ की
भारत-पाक जंग हमने जीती थी पर अपने फ़ौजियों की क़ुर्बानियों
के बाद" छब्बे पा' जी ने कहानी शुरू की-
"जंग ख़त्म होने के बाद भी हमारे दर्जनों फौजी लापता थे। उनके
घरवाले उन्हें शिद्दत से ढूँढ़ रहे थे। दो-ढाई महीने बाद ऐसे
ही एक फौजी ने अपने घरवालों को फोन किया। फोन पर उसने बताया कि
वह जंग में घायल हो गया था, लेकिन उसके एक साथी फौजी ने अपनी
जान पर खेल कर उसे बचा लिया। इस दौरान उसका फौजी साथी बुरी तरह
घायल हो गया। उसके फौजी साथी के दोनों हाथ और एक टाँग को काटना
पड़ा तब कहीं जा कर उसकी जान बच पाई। फोन पर फौजी ने अपने
घरवालों को आगे बताया कि उसका फौजी साथी अब अपाहिज हो गया था
उस फौजी ने अपने घरवालों से आगे पूछा कि क्या उसका अपाहिज
दोस्त अब उसके घर पर रह सकता है? उस अपाहिज का अब कोई नहीं
इसलिए फौजी ने अपने घरवालों से गुज़ारिश की कि वे उसके अपाहिज
साथी को अपना लें" हम सब ध्यान से पा' जी की कहानी सुन रहे थे।
"लेकिन उस फौजी के घरवालों ने उसे अपने अपाहिज साथी को अपने
साथ घर लाने से मना कर दिया, वे उसके अपाहिज साथी का बोझ उठाने
को तैयार नहीं थे। यह सुन कर उस फौजी ने फ़ोन बंद कर दिया"
"फिर क्या हुआ, पा' जी?" मैंने पूछा
"पुत्तर, इसके बाद उस फौजी के घरवालों को उसका कोई अता-पता
नहीं लगा। उसने फिर कभी अपने घरवालों को फ़ोन नहीं किया" छब्बे
पा' जी ने उदास आवाज़ में कहा।
"ऐसा क्यों पा' जी?" मैंने फिर पूछा
"ऐसा इसलिए पुत्तर क्योंकि दरअसल उसके अपाहिज फौजी साथी की
कहानी झूठी थी। असल में वह फौजी खुद ही जंग में अपाहिज हो गया
था। अपने घर फोन करके वह दरअसल यह जानना चाहता था कि कहीं उसके
घरवाले अब उसे बोझ तो नहीं समझेंगे। अपने घरवालों का इम्तिहान
लेने के लिए उस फौजी ने उन्हें अपने अपाहिज दोस्त की झूठी
कहानी सुनाई थी। घरवालों की बात सुन कर उस फौजी का दिल टूट
गया। वह फिर कभी अपने घरवालों से नहीं मिला" छब्बे पा' जी की
आवाज़ में जैसे अथाह दर्द था।
कहानी सुन कर हमारी आँखें भी नम हो गई थीं
"आपको यह कहानी कैसे पता, पा' जी?" मुझसे रहा नहीं गया तो
मैंने पूछ ही लिया।
"मुझे यह कहाणी इसलिए पता है पुत्तर क्योंकि यह मेरे जिगरी यार
की कहाणी है।" यह कहते-कहते छब्बे पा' जी की आँखों में भी आँसू
आ गए थे ...
पीछे मुड़ कर देखने पर यह सब किसी बीते हुए युग की बात लगती
है। एक प्राचीन कथा, एक पूर्व-जन्म...
सावधान, आगे कहानी में कुछ अंधे मोड़ हैं --
"दशकों पहले एक बचपन था
बचपन उल्लसित किलकता हुआ
एक मासूम उपस्थिति
सूरज चाँद और सितारों के नीचे
बचपन चिड़िया का पंख था
बचपन उड़ती-कटती पतंगें थीं
बचपन चाई जी की गोद थी
बचपन छब्बे पा' जी की कहानियाँ थीं ... "
धीरे-धीरे मैं बड़ा हो रहा था। न जाने कब मेरे समय में कई
नुकीले काँटे उग आए थे। मुझे लगने लगा जैसे समय ने मुझे धोखा
दिया है। मेरी मासूमियत को छला है। यह बोध ही मेरे बड़े हो
जाने की शुरुआत थी। दरअसल पंजाब में आतंकवाद का डरावना दौर
शुरू हो गया था।
फिर घरवालों ने वहाँ के बिगड़ते माहौल को देख कर मुझे आगे की
पढ़ाई करने के लिए दिल्ली भेज दिया।
"रब्ब राखा, पुत्तर" जाते समय छब्बे पा' जी ने मुझे सीने से
लगा कर कहा था। हम दोनों का गला रुँध गया था, पलकें भीग गई
थीं।
धीरे-धीरे मेरा अमृतसर आना कम होता चला गया था। आतंकवाद अपने
चरम पर था। धर्मांध आतंकवादी हिंदुओं को बसों से उतार कर
गोलियों से भून देते थे। दूसरी ओर सुरक्षा-बलों की गोलियों से
कई निर्दोष सिख युवक भी मारे जा रहे थे। चारों ओर दहशत का
माहौल था, दर्दनाक वारदातें हो रही थीं। पंजाब के दरियाओं में
आग लग गई थी। ऐसे माहौल में जान के लाले पड़े हुए थे। पिताजी
ने अपना अमृतसर का मकान कम किराए पर ही चढ़ा दिया और हमारा
सारा परिवार दिल्ली आ गया।
फिर पता चला कि छब्बे पा' जी जून, १९८४ में ऑपरेशन ब्लू-स्टार
के समय बड़े पैमाने पर चलाए गए फौजी अभियान की चपेट में आ गए
थे। उनके गाँव में किसी की उनसे व्यक्तिगत दुश्मनी थी। उसका
रिश्तेदार पुलिस में था। उसकी झूठी निशानदेही पर छब्बे पा' जी
को 'ए' कैटेगरी का ख़तरनाक आतंकवादी बता कर उन्हें गिरफ़्तार
कर लिया गया और बाद में जोधपुर जेल में बंद कर दिया गया।
उन्होंने लाख दुहाई दी कि वाहेगुरु की सौंह ( क़सम ), वे सच
बोल रहे थे, उन्होंने अपने बच्चों की कसम खाई कि उनका
आतंकवादियों से कोई लेना-देना नहीं था, लेकिन उनकी एक नहीं
सुनी गई। कई साल वे जोधपुर जेल में सड़ते रहे, फिर १९९४-९५ में
ख़राब सेहत की वजह से बड़ी मुश्किल से वे रिहा हो पाए।
इस बीच सिमरन के मामा और दूसरे रिश्तेदारों ने ज़बर्दस्ती उसकी
शादी एक अधेड़ उद्योगपति से कर दी लेकिन यह बेमेल शादी जल्दी
ही टूट गई। जब छब्बे पा' जी जेल से रिहा हो कर घर पहुँचे तब तक
तीन साल की लम्बी कानूनी लड़ाई के बाद सिमरन का तलाक़ हो चुका
था। उनके बेटे सुरिंदर का एक-डेढ़ साल से किसी को कोई अता-पता
नहीं था।
उन्हीं दिनों एक रात मैंने एक सपना देखा। सपने में एक दृश्य--
अतीत में हँस रहे छब्बे पा' जी वर्तमान में रो रहे हैं लेकिन
ऐसे जैसे वैक्यूम में कोई रोता है, उनके आँसू तो दिख रहे हैं
पर रुदन सुनाई नहीं दे रहा है।
सपने में दूसरा दृश्य- भविष्य की आकाशगंगा के किसी सुदूर
नक्षत्र से लौटा उनका बेटा सुरिंदर अपने पिता को वर्तमान में
रोता हुआ पा कर उन्हें उनके हँसते अतीत में ढूँढ़ रहा है। वह
उन्हें अतीत से भविष्य में ले जाने आया है पर उनका रोता हुआ
वर्तमान बीच में बाधा बन रहा है। सुरिंदर छब्बे पा' जी को जिस
भविष्य की ओर ले जाना चाहता है उसका रास्ता अमेरिका से हो कर
जाता है लेकिन छब्बे पा' जी डॉलर की गंध से अपरिचित हैं,
उन्हें अंग्रेज़ी नहीं आती और उनके मोबाइल का रिंग-टोन
'सतनाम-वाहेगुरु' है। दूसरी ओर उनके बेटे सुरिंदर के मोबाइल का
कॉलर-ट्यून माइकल जैक्सन का धड़ाम-धड़ूम रॉक संगीत बजाता है जो
छब्बे पा' जी के पल्ले नहीं पड़ता। सुरिंदर भी अब कोई अजनबी
ज़बान बोलने लगा है। बाप-बेटा एक-दूसरे को नहीं समझ पा रहे...
यहीं मेरा सपना टूट गया।
छब्बे पा' जी की रिहाई के बाद जब मैं उनसे मिलने अमृतसर गया तो
उन्हें देख कर मैं डर गया। वे शरीर से अलग हो गई परछाईं-से लग
रहे थे, किसी ढही हुई इमारत-से...
"पा' जी, कोई कहानी सुनाओ" उनका काँपता हाथ अपने हाथों में
लेकर मैंने कहा।
"मेरी सारी कहाणियाँ मर गई हैं, पुत्तर, भीतर कहाणियों का
समंदर अब सूख गया है" थरथराती हुई आवाज़ में वे बोले।
"नहीं पा' जी, कहानियाँ कभी नहीं मरतीं, कहानियों की अमर-बेल
सदा हरी रहती है" मेरे मुँह से खुद-ब-खुद निकल आया।
"पुत्तर, मेरे बाद मेरी सिमरन का क्या होगा?" उनकी आँखों में
अँधेरा भरा था
"वाहेगुरु पर भरोसा रखो, पा' जी, सब सही हो जाएगा" उनके काँपते
हुए हाथों को अपनी हथेलियों में स्थिर करते हुए मैंने कहा।
सिमरन बगल में बैठी हुई थी, उसकी आँखों में आँसुओं के मोती चमक
रहे थे
"जब दुख मेरे पास बैठा होता है
मुझे अपनी परछाईं भी
नज़र नहीं आती
केवल एक सलेटी अहसास होता है
शिराओं में इस्पात के
भर जाने का
केवल एक पीली गंध होती है
भीतर कुछ सड़ जाने की
और पुतलियाँ भारी हो जाती हैं
न जाने किन दृश्यों के बोझ से... "
-उस रात मैंने अपनी डायरी में लिखा था
अब छब्बे पा' जी नहीं रहे
उनके दो भाई पहले ही अमेरिका जा कर बस चुके थे। वहाँ जा कर वे
डॉलर के हो कर रह गए थे और अपने मुल्क और रिश्तेदारों को भूल
गए थे। उनकी इकलौती बहन शादी के बाद पति के साथ आस्ट्रेलिया
चली गई थी। बेटा सुरिंदर अमेरिका जाना चाहता था, बाद में पता
चला कि वह एजेंटों के चंगुल में फँस गया था। अवैध रूप से यूरोप
में प्रवेश करने के ज़ुर्म में वह इटली की किसी जेल में बंद
था। बहुत मुश्किल से इटली के भारतीय दूतावास की मदद से वह रिहा
हो पाया। चाई जी भी पूरी हो चुकी हैं, वे छब्बे पा' जी के
गुज़र जाने का ग़म नहीं सह पाईं।
मेरी शादी हो चुकी है। मेरे दो बच्चे हैं। बेटा बारह साल का है
और बेटी सात साल की। अब मैं छब्बे पा' जी से सुनी हुई
तमाम
कहानियाँ अपने बच्चों को सुनाता हूँ। मैंने छब्बे पा' जी से
कहा था- कहानियाँ कभी नहीं मरतीं। छब्बे पा' जी आज भी मेरे
भीतर जीवित हैं। हर रविवार मैं, मेरी पत्नी और मेरे दोनों
बच्चे, हम सब इलाक़े के एक अनाथालय में जाते हैं। यहाँ मैं
अनाथ बच्चों को भी छब्बे पा' जी से सुनी हुई कहानियाँ सुनाता
हूँ और उन बच्चों को हँसता-खिलखिलाता हुआ पाता हूँ। मेरी सुनाई
कहानियाँ सुनकर मेरे अपने बच्चे भी खुलकर हँसते हैं। मैं उनकी
वही निष्कपट और मासूम हँसी बचाए रखने की जद्दोजहद में जुटा
हूँ। इस प्रयास में मेरी पत्नी और उनकी माँ सिमरन भी मेरे साथ
है। जी हाँ, मैंने सिमरन से शादी कर ली। छब्बे पा' जी भी यही
चाहते थे। |