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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में प्रस्तुत है
भारत से मदनमोहन अरविंद की कहानी- होली पर लक्ष्मीपूजन


होली का नाम सुनते ही अतीत के न जाने कितने चित्र गौरी शंकर की आँखों के आगे घूम गये। न जाने कितनी यादें थीं जो फिर से मन की गहराइयों को छू गयीं। टेसू के फूलों का रंग और उसकी महक, ढोलक की थाप और ढोल की धमक, एकसाथ झूमने-गाने की मस्ती और अकेलेपन की कसक, सब कुछ जैसे एक पल में महसूस कर लिया उन्होंने।

याद आ गया रामचरन पाण्डे, गुलाल तो माथे पर चुटकी भर लगाता था पर कम्बख्त बाँहों में भर कर ऐसा भींचता कि साँस रुकने लगती, साथ में उसका भाई, ‘थोड़ा लगाऊँगा’ कहते-कहते सिर में ढेर सारा रंग डाल कर भाग जाता। याद आये लाला हजारी मल, पार्वती इस लिये उनसे पर्दा करती कि वे उसके पति से उम्र में चार दिन बड़े थे।

धूल वाले दिन लाला जबरन पार्वती का घूँघट हटाते, गुलाल लगाते और ठहाका मार कर कहते ‘फागुन में जेठ कहे भाभी’। पार्वती फिर भी लालाजी के पैर छूती और वे उसे जी भर कर आशीर्वाद देते। अब कहाँ हैं ऐसे लोग। एक उनका जमाना था और एक आज का। अब तो जहाँ देखो सब के चेहरे बुझे-बुझे से नजर आते हैं। प्यार-प्रीत की चमकदार चादर पर रंजिश का रंग बिखरता जा रहा है। गले मिलने की जगह गला काटने की आदत परवान चढ़ने लगी है। पहली सी गर्मजोशी अब कहीं नहीं रही।

अपने पुराने दिनों को गौरी शंकर आज भी नहीं भूले। एक नामी कम्पनी में नौकरी लगे कुछ ही दिन हुए थे कि होली आ गयी। गाँव-घर से दूर उनकी पहली होली थी। न कोई संगी-साथी न घर-परिवार के लोग, अकेले बैठे सोच रहे थे कि क्या करें, तभी कुछ जानी-पहचानी आवाजें उनके कानों तक पहुँचीं, देखा बाहर कई सहकर्मी प्रतीक्षा कर रहे थे। बातों-बातों में वे उन्हें मिल-कम्पाउण्ड तक ले आये। वहाँ की रंगत देख कर गौरी शंकर की उदासी जाती रही। लोगों के झुण्ड आपस में गले मिलते एक दूसरे को गुलाल लगाते नजर आये तो वे खुद भी झिझक छोड़ कर सब के साथ हो लिये। चलते-चलते देखा कुछ व्यक्ति इकट्ठे होकर अजीब तरह की बातें कर रहे थे।

‘जल्दी करो भाई, लक्ष्मी पूजन का मुहूर्त निकला जा रहा है।’ कोई एक बोला।
‘ध्यान रखना, पूजन हर साल की तरह इस बार भी धूमधाम से हो।’ एक और आवाज आई।

होली वाले दिन लक्ष्मी पूजन की बात सुनकर चौंक पड़े थे गौरी शंकर। इस बारे में कुछ और सोच पाते उससे पहले ही नजारा बदल गया। एक हृष्ट-पुष्ट, लम्बे कद-काठ के श्यामवर्ण व्यक्ति को कई लोगों ने घेर लिया था लेकिन देखते-देखते वह उनका घेरा तोड़ कर भाग निकला। लोगों की भीड़ उसे पकड़ने के लिये पीछे-पीछे भाग छूटी। वह दौड़ता जा रहा था और बीच-बीच में कुछ उत्तेजक वाक्य भी बोलता जा रहा था, जिन्हें सुन कर पीछा करने वालों को और जोश आने लगता। पकड़ने छूटने का यह सिलसिला काफी देर चला पर आखिर वह पकड़ा ही गया। पास ही जमीन में कमर तक गहरी एक हौदी बनी थी, एकदम काले पानी से पूरी भरी हुई। उस पहलवान सी काया को सबने हाथ-पैरों से पकड़ कर खूब ऊँचा उठाया और हो...हो...हो...की आवाजें निकालते हुए वहीं पानी में फेंक दिया। इस के बाद वे ऐसे भागे मानो डर रहे हों कि अगर बाहर आ गया तो उनमें से किसी को साबुत नहीं छोड़ेगा। उस रोज कुछ देर की हँसी ठिठोली और स्वल्पाहार के बाद सुविधानुसार सभी अपने-अपने घर चले गये।

अगले दिन बातचीत में पता चला कि कल जिसे उठा कर हौदी में फेंका गया था उसे गम्भीर चोटें आयी हैं। तय हुआ शाम को सभी उसका हालचाल लेने चलेंगे। साथियों ने बताया कि मिल के कर्मचारी हर साल उस भले मानस को इसी तरह दौड़ा-दौड़ा कर पानी की हौदी में पटकते हैं लेकिन ऐसी चोट पहले कभी नहीं लगी, पता नहीं इस बार किसकी भूल से ऐसा हुआ। जाकर देखा तो सचमुच उस के पैर पर पलस्तर चढ़ा हुआ पाया। एक बाजू पर भी भारी सूजन थी। जिन्होंने उसे पानी में पटका था वे वहीं थे, उन के चेहरों पर दुख और पश्चाताप के भाव स्पष्ट दिखाई दे रहे थे। घर के अन्दर से एक खीझ भरी आवाज आ रही थी ‘आग लगे ऐसी होली को, हर साल कपड़े फड़वाते थे अबकी बार हाथ पैर तुड़वा लिये, यही हाल रहा तो अगली बार पता नहीं क्या करेंगे।’ यह शायद उसकी पत्नी की आवाज थी। सब कुछ सुन कर जब नहीं रहा गया तो गौरी शंकर ने पूछ ही लिया ‘भाई साहब, ये लोग हर बार आपको पानी में गिराये बिना नहीं मानते तो आप बिना विरोध किये क्यों नहीं हौदी में उतर जाया करते? इस तरह चोट लगने की सम्भावना तो समाप्त हो जायेगी।’

‘इन सबके ‘लक्ष्मी पूजन’ की घूमधाम भी समाप्त हो जायेगी।’ उत्तर सुन कर गौरी शंकर आश्चर्य में पड़ गये, न कुछ कह पाये न ही समझ पाये। उन्हें चकित देख कर उसने थोड़ा मुस्कराते हुए आगे कहना शुरू किया-

‘आप नहीं समझेंगे, अभी नये आये हैं न, मैं बताता हूँ, मेरा नाम लक्ष्मी नारायण है, यहाँ सब प्यार से मुझे ‘लक्ष्मी’ कह कर बुलाते हैं। आप देख चुके हैं होली वाले दिन मेरी कैसी खातिर होती है, ये इसी को ‘लक्ष्मी पूजन’ कहते हैं। आप पूछ रहे थे मैं इन्हें ऐसा क्यों करने देता हूँ। सच बताऊँ, हम सब यहाँ परदेसी हैं, एक दूसरे के परिजन, मित्र, बन्धु-बान्धव जो कुछ हैं हम लोग ही हैं, होली हमारा सब का त्यौहार है। मुझे दौड़ा-दौड़ा कर पानी में गिराने से ही अगर इनको होली मनाने का सुख मिलता है तो ऐसा ही सही। थेाड़ी शरारतें, थोड़ा हो-हल्ला, थोड़ी मौज-मस्ती यही तो है होली की शान, होली का हुरदंग। मैं इसमें अपनी इच्छा से शामिल होता हूँ और मेरे साथ वाले भी। अब कोई छोटी-मोटी चोट कहीं किसी को लग भी गई तो क्या हुआ? एक बात और, सब लोग इस तरह डर कर पीछे हटने लगे तो इस त्यौहार की असली पहचान कैसे बचेगी। क्या लोग कमरों में बन्द होकर होली मनाया करेंगे? आने वाली पीढ़ी क्या जानेगी होली क्या होती है?’

बोलते-बोलते अचानक वह कराह उठा। करवट बदलने की कोशिश में शायद कोई घाव बिस्तर से रगड़ खा गया, लेकिन इस पीड़ा को उसने अपनी सहज मुकान पर हावी नहीं होने दिया। उस समय जो चमक, जो दृढ़ता और जो आत्मसन्तुष्टि गौरी शंकर ने लक्ष्मी नारायण की आँखों में देखी इससे पहले शायद कहीं नहीं देखी थी। अब लक्ष्मी नारायण उन लोगों की ओर पलटा जिन्होंने उसे पानी में फेंका था, कहने लगा, ‘भाई तुम लोग क्यों मुँह लटकाये बैठे हो, अपनी भाभी की बातों का बुरा मत मानना, जुबान की कड़वी जरूर है पर दिल की बड़ी मीठी है। उदासी छोड़ो, जाओ मेरे सूरमाओ जाओ, तुम्हारा लक्ष्मी पूजन सफल हुआ।’

बात सुन कर सब धीरे से मुस्करा दिये, खुद लक्ष्मी नारायण भी, तब गौरी शंकर को लगा कि लक्ष्मी नारायण के दर्द को चीर कर उभरती उस हँसी में जैसे सम्पूर्ण ब्रह्मांड मुस्करा रहा था। होली का सारा रस-रंग जैसे उसके चेहरे पर बिखरा हुआ था। बरसों पुरानी इस घटना को आज भी जब गौरी शंकर याद करते हैं तो उनके होठों पर हँसी और आँखों में नमी एक साथ उभर आती है।

१५ मार्च २०१६

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