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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से सुबोध मंडल की कहानी- रक्तस्रावित हथेली


रंजन को याद है, होश सँभालने के बाद दो-एक वसंत-पर्व दृष्टि-पथ से गुजर चुके थे। मग्न बाल मंडली-हर्षित, उल्लासित और पूर्ण! हालाँकि अभाव भी कम नहीं था। लेकिन, इसके बावजूद हर्ष और उल्लास में कोई कमी नहीं थी। तब भी उसने माँ से पिचकारी की माँग की थी, अन्य बच्चों के हाथ में पिचकारी देखकर। माँग ठुनक के स्वर में प्रकट हुई थी। वह कोमल, शिष्ट और सभीत माँग माँ की एक डाँट में ही न जाने खरगोश की तरह कहाँ दुबक गई थी? तब वह इतना ही सोच पाया था कि मेरे पास प्लास्टिक की रंगीन पिचकारी क्यों नहीं है? अच्छा, अगली होली में जरूर लूँगा। इसी संकल्प से वह अगले वसंत उत्सव की प्रतीक्षा करने लगा।

दिन, सप्ताह, महीना और वर्ष का तो ज्ञान ही कितना था! बस, इतना भर जानता था कि पहले दशहरा आएगा, फिर आएगी प्यारी होली! जब मन में आया, किसी से पूछ बैठा कि दशहरा कब, कितने दिनों में आ रहा है? और, दशहरे के बाद होली पर वे ही प्रश्न सोचा करता कि अब दीवाली बीत गई। अब सरस्वती पूजा समाप्त हो गई। अब फगुआ का गान कब होगा? फागुन घुसा कि फगुआ का गान शुरू! साँझ होते ही आँगन से बहराना मना था। रात में बिस्तर पर लेटा-लेटा अकनाता रहता। तभी एक रात ढोलक की आवाज के साथ ‘जोगीड़ा सऽऽडरऽ’ के चिर प्रतीक्षित मुधर स्वर कानों में पड़े। हृदय-गति बढ़ गई। दिल जोरों से धड़कने लगा। मन हुआ कि चुपके से बिलैया खिसकाकर घर से निकल पड़े। परंतु माँ के जानने/मारने के डर से मसोसकर रह जाना पड़ा। ‘जोगीड़ा’ को सुनता, प्रसन्न-विह्वल होता वह कल्पना के रंगीन संसार में खो गया।

माँ ने पिचकारी खरीद दी है। रंजन नए कपड़े पहनकर पिचकारी लेकर मैदान में कूद पड़ा है। किसी साथी को नहीं छोड़ा उसने। एक-एक पर रंग की तुर्री छोड़कर सराबोर कर दिया। प्रायः सब पर विजय प्राप्त करने के बाद अब वह चचेरी भाभी के पास उड़ा जा रहा है। उनको रंग से नहला दिया। अब मौसेरी भाभी की ओर भागा। साथ में और भी लड़के- ‘होऽऽलीऽऽऽ है......!’
सुबह उठते ही नजाने कितने प्यार से उसने माँ से कहा- "माँ! इस होली में मुझे पिचकारी खरीद दोगी न!"

माँ ने सहजता से हामी भर दी। संतोष हुआ। परंतु विश्वास नहीं होता था। गरीबी का अहसास विश्वास नहीं होने देता था। तिस पर माँ की डपट! फिर भी माँगना उसका काम था।

उसे अच्छी तरह याद है। क्या मजाल कि माँ की अनसुनी कर दे वह! वह पहले से ही आज्ञा की प्रतीक्षा करता रहता था। बड़ी माँ-दुष्टा नारी। अपने पेड़ से गिरा अमरूद भी उठाने न दे। उनकी पतोहू, वही चचेरी भाभी, नई भाभी, अच्छी भाभी! बड़ी माँ के सूने में चुपके से अमरूद लेकर हाथों और जेबों में खाने को भर देती। काम होता था बड़ी माँ का, नाम होता था भाभी का। बड़ी दूर, खेत पर खाना-पानी पहुँचाने का काम! कोई नहीं सुनता तो रंजन के माथे पर! वहाँ बड़का बाबू छीमियाँ देते, टमाटर देते और गाजर भी; बड़ी माँ से छुपाकर! हट्टे-कट्टे बड़का बाबू चीलड़मरी बड़ी माँ से डरते थे। रंजन को बड़ी माँ से घृणा थी, गुस्सा नहीं कर सकता था।

साँझ को रोज खेल से हटाकर माँ ले जाती थी रंजन को। मौसी का तंबाकू लाने के लिए पुचकारती जाती। वह मारे क्रोध के भर उठता था। कितना अच्छा खेल रहा था! और इतने अच्छे खेल में यह तंबाकू घुस आया! दूर हटिया बाजार के हुक्का वाले का ही तंबाकू मौसी को पसंद है; मसालेदार-खुशबूदार तंबाकू! नजदीक के बिरंची साव का तंबाकू बेस्वाद गोबर जैसा लगता है मौसी को।

अन्य दिनों एकाध बार रो-धोकर टाल भी देता। अभी तो माँ से पिचकारी खदीरवानी है। सो कैसे टाले वह! माँ उसके सेवा-भाव का अर्थ खूब समझती थी। फिर भी, बीतते दिनों के साथ उसकी माँग की आवृत्ति भी बढ़ती गई। माँग ने जिद पकड़ ली। जिद ने रोने का रूप धरा। रोने ने लोटने की क्रिया की। इस बार डाँट नहीं पड़ी। मार पड़ी, बहुत बुरी मार-आठ चोट की!

सभी भाई-बहन माँ के साथ कपड़ा सिलवाने गए। नहीं गया तो सिर्फ रंजन। उसे कपड़ा नहीं, पिचकारी चाहिए। कपड़ा तो दशहरा-होली में मिलता ही है, मिलेगा ही। पिचकारी नहीं मिलेगी, इसका अनशन था। मार खाकर भी कई जून खाना नहीं खाया। भैया पिचकारी को लेकर मुँह खोले, दाँत बाहर को निकाले चिढ़ाते थे; तंग करके रुला देते। कहते- "रंजन! पिचकारी लेगा, ऐं? लाल लेगा कि हरी? प्लास्टिक वाली लेकर क्या करेगा? जल्दी ही फट जाती है। पीतल वाली लेना, पीतल वाली! सालों-साल चलेगी।"

रंजन को पता था। माँ देगी तो प्लास्टिक वाली ही; सस्ती होती है। पीतल वाली, मँहगी, कहाँ से लाकर देगी?
वह होली की पूर्व संध्या थी जब उसकी पिचकारी आ गई। माँ ने हाथ में देते हुए कहा- "लो।"

और पिचकारी लेते हुए उसकी झुकी आँखें डबडबा आई थीं, नाक चू पड़ी थी और होंठ मुस्कराने लगे थे। उसने सीधे छोटी अलमारी (अलमारी क्या थी? मिट्टी की दीवार लगे चौखटे में पल्ले जुड़े थे और बीच में तख्ती लगाकर दो खाने बनाए हुए थे जिसमें वह किताब-कापी और अगड़म-बगड़म सामान रखा करता था) में पिचकारी को अपने जानते रख छुपाया था। क्या मजाल कि किसी को देखने भी दे! वह रात सचमुच उसने आँखों में ही काट ली थी।

सुबह फुर्ती से नहा-धोकर नए कपड़े पहने; गोसाई बाबा को प्रणाम किया। माँ-पिताजी के चरण छुए। मीठी पूड़ी (गुड़-आटे की सरसों के तेल में तली पूड़ी गरीबी की मार से शायद ही कभी मीठी बन पाई हो!) खाई और पिचकारी में रंग भरकर दौड़ पड़ा। माँ ‘अरे...रे...रे...सुन’ कहती ही रह गई। वह दौड़कर गया चचेरी भाभी को रंग देने। चचेरी भाभी आहट पहचानकर ही बाहर चली आ रही थी; प्रसन्नमुख! बड़ी माँ आँगन में बैठी पुआ खा रही थी। उसने दूर से देखते ही जो दुरदुराना शुरू किया- "अरे छोरा! भागता है कि नहीं? रत्ती भर का छोरा! आया है रंग खेलने?"

वह झट मुड़ ही तो गया। भागा जा रहा है मौसेरी भाभी के यहाँ। एक विश्वास है कि मौसी तो अपनी है। यह क्या? मौसी ने तो दुआर पर ही धमका दिया- "अभी भैया आने वाले हैं!"

भैया मतलब उनका जेठ लड़का, भाभी का पति, उसके लिए सबसे भयानक आदमी! लो, अब खेलो होली! कैसे खेलते हो? वह समझ गया। अब तक मन चूर-चूर हो गया था और हौसला पस्त! सोच में डूबा वह धीरे-धीरे वापस आने लगा।

भाभी ने पीछे से आवाज दी। मौसी पर बिगड़ी भी- "क्यों छोटे बच्चे का दिल तोड़ दिया आपने?"
भाभी की अनसुनी कर रंजन अब तक काफी आगे बढ़ चुका था। पड़ोस की भाभी ने बुलाया, उनकी सास ने भी बुलाया। परंतु शर्म-संकोच और सबसे बढ़कर दुख के मारे वह ठहर ही नहीं पाया।

घर आकर पिचकारी अनुज को दे दी। उन सबके प्यार और अपनेपन पर मन संदेह से भर उठा। रह-रहकर मौसी और बड़ी माँ के चेहरे मानस-पटल पर उभरने लगे। हे मेरी सगी बहन! तनिक रंजन को कहो, तंबाकू ला देगा। सुबह से डिब्बा खाली पड़ा है। तलब से जी छन-छन कर रहा है।... रे रंजन, भाभी बुलाई है, बड़का बाबू को कलेवा नहीं दे आइएगा?

वह रंजन के जीवन की सातवीं ही सही; असल में पहली होली थी। वह पहली होली ही अंतिम होली बन गई। उसके बाद एक-एक करके ग्यारह वसंतोत्सव और भी आए। दुनिया होली के रंग में डूबती, हँसती, खेलती और गाती रही। रंजन दुनिया से दूर, बहुत दूर होता गया।

आने वाली हर होली उसकी पहली होली बनकर आती है। एक सात वर्षीय बालक, पिचकारी, रंग बड़ी माँ...रे छोरा...मौसी...भैया...दिल में दहक उठती है होली! वह मन-ही-मन अपनी कसम को कसता चला जाता है- जिंदगी में फिर कभी होली नहीं खेलने की। उस समय उसके जबड़े ही कसे नहीं होते हैं, मुट्ठियाँ भी भिंची होती हैं।

उस साल उसने दसवीं की परीक्षा दे रखी थी। मौसी की तीसरी सबसे छोटी पतोहू ने पीछे से ही उसके गालों को रंग से मलने की चेष्टा की- चुपके से। प्रतिक्रिया में उनकी दोनों कलाइयाँ रंजन की एक-एक मुट्ठी में। नई महँगी चूड़ियाँ कचकचा उठी थीं। चूड़ी का एक टुकड़ा रंजन की दाईं हथेली में चुभ गया था। टप-टप लाल रंग गिरने लगा था।

गरीब रंजन की आँखों में थीं उनकी महँगी टूटी-चूड़ियाँ, उनकी आँखों में थी मासूम रंजन की रक्तस्रावित हथेली।

२ मार्च २०१५

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