जिस दिन मिस्टर मजूमदार को पता
चला कि उनका तबादला अन्यत्र हो गया है, उसी दिन से दोनों
पति-पत्नी सामान समेटने और उसके बण्डल बनवाने, बच्चों की टी.सी
निकलवाने, दूधवाले, अखबार वाले आदि का हिसाब चुकता करने में लग
गए थे। पन्द्रह वर्षों के सेवाकाल में यह उनका चौथा तबादला था।
सम्भवत: अभी तक यही वह स्थान था जहाँ पर मिस्टर मजूमदार दस
वर्षों तक जमे रहे, अन्यथा दूसरी जगहों पर वे डेढ़ या दो साल
से अधिक कभी नहीं रहे। मि. मजूमदार अपने काम में बड़े ही
कार्यकुशल और मेहनती समझे जाते थे, किन्तु महकमा उनका कुछ इस
तरह का था कि तबादला होना लाजि़मी था। वैसे प्रयास तो उन्होंने
खूब किया था कि तबादला कुछ समय के लिए टल जाए किन्तु उन्हें
सफलता नहीं मिली थी।
ऑफिस से मि. मजूमदार परसों रिलीव हुए थे। ‘लालबाग’ में उनकी
विदाई पार्टी हुई और आज वे इस शहर को छोड़ रहे थे। उनके बच्चे
सवेरे से ही तैयार बैठे थे। श्रीमती मजूमदार ने उन्हें पन्द्रह
दिन पहले ही समझा दिया था कि अब उन्हें दूसरी जगह जाना है, अब
वे वहीं पर पढ़ेंगे।
सारा सामान पैक हो चुका था। मि. मजूमदार अपनी श्रीमती जी से यह
कहकर बाहर चले गए कि वे रिक्शा लेकर आते हैं, तब तक वे
माँ-साब, बुआ-साब आदि से एक बार और मिल लें।
गर्मी जोर की पड़ रही थी। मि. मजूमदार ने देखा कि ‘लालगेट’ पर
कोई रिक्शेवाला खड़ा नहीं था। एक है जो बस स्टैण्ड तक चलने के
बहुत ज्यादा पैसे माँग रहा है। मि. मजूमदार आगे बढ़े। शायद
‘सुन्दर-विलास’ पर कोई रिक्शा मिल जाए। ऑफिस आते-जाते वक्त
उन्हें वहाँ छायादार पेड़ों के नीचे दो-चार रिक्शे-वाले अक्सर
मिल जाया करते थे। वे ‘सुन्दर-विलास’ की तरफ बढ़े और इसी के
साथ उनकी यादाश्त दस वर्ष पीछे चली गई।
वे नए-नए इस शहर में आए थे और तब उन्हें यह शहर एक छोटा-सा,
सुन्दर-सा कस्बा लगा था। देखते-ही-देखते इन दस वर्षों में इस
कस्बे ने जैसे एक बड़ी छलाँग लगाई हो और चारों तरफ फैलकर अपने
आकार को बढ़ा लिया हो। बगल में एक बड़ा शहर स्थित था, शायद
इसलिए। वैसे, इस नगर का अपना धार्मिक महत्त्व भी कम नहीं था।
जब वे दस वर्ष पूर्व इस शहर में आए थे, तब यहाँ रिक्शे नहीं
चलते थे। बस-स्टैण्ड से शहर तक यात्रियों को लाने-लेजाने के
लिए ताँगे चलते थे। बस-स्टैण्ड भी शहर के ही भीतर
‘सुन्दर-विलास’ के निकट था।
‘सुन्दर-विलास’ का नाम आते ही मि. मजूमदार को लगा कि शायद
उन्होंने ‘सुन्दर-विलास’ को पीछे छोड़ दिया है। वे पीछे मुड़े।
एक रिक्शे वाला उनकी तरफ आया-
‘बस स्टैण्ड चलोगे?’
‘चलेंगे, बाबूजी।’
‘पैसे बोलो?’
‘कितनी सवारियाँ हैं, बाबूजी?’
‘भई, मैं, मेरी श्रीमतीजी और दो छोटे बच्चे और थोड़ा-सा
सामान।’
‘दस का नोट लगेगा।’
‘अरे, दस तो बहुत ज्य़ादा है। पाँच ठीक हैं।’
‘नहीं बाबूजी, दस में एक पैसा भी कम न होगा। देख नहीं रहे,
क्या गर्मी पड़ रही है।’
गर्मी वास्तव में बहुत जोर से पड़ रही थी। मि. मजूमदार ने अब
रिक्शा ढूँढने के लिए और आगे बढना उचित नहीं समझा। उन्हें चार
बजे की बस पकडऩी थी। इस वक्त दो बज रहे थे। बड़ा-बड़ा सामान
सवेरे ही उन्होंने रेल से बुक करा दिया था। केवल एक अटैची और
थोड़ा-सा बिस्तर उनके साथ था। रिक्शे में बैठकर उन्होंने
रिक्शेवाले से कहा-
‘ठीक है भाई, दे देंगे दस का नोट। थोड़ा सामान रखवाने में मदद
करना हमारी।’
रिक्शा चल दिया। चलते-चलते रिक्शे वाला बोला- ‘बाबूजी, और
सवारियाँ कहाँ से लेनी हैं?’
‘भई, दूसरे मोड़ पर, तहसील के पास ‘सोनी-बँगले’से।’
‘सोनी-बँगला’ कहते ही मि. मजूमदार फिर अतीत में खो गए।
प्रारम्भ में मकान न मिलने तक चार-पाँच दिन के लिए उन्हें एक
धर्मशाला में रुकना पड़ा था। आफिस के सहयोगियों ने ज्वाइन करते
ही कहा था-
‘भई मजूमदार? यहाँ इस कस्बे में अच्छे मकान हैं ही नहीं। हमें
देखो, बड़े ही रद्दी किस्म के मकानों में रहना पड़ रहा है।
दो-पाँच अच्छे मकान हैं भी, तो उन्हें अफसरों ने घेर रखा है।
हाँ, तहसील के पास सोनी जी का बँगला है। चाहो तो उसमें कोशिश
कर लो। सुना है बँगले का मालिक अपना मकान किसी को भी किराए पर
नहीं देता है। मिस्टर मजूमदार उसी दिन ऑफिस से छूटकर सीधे
‘सोनी बँगले’ पर गए थे। बँगले पर उनकी भेंट एक बुजुर्ग-से
व्यक्ति से हुई थी जिन्हें बाद में पूरे दस वर्षों तक वे
‘बा-साहब’ के नाम से पुकारते रहे। बा-साहब ने छूटते ही पहला
प्रश्न किया था-
‘आप इधर के नहीं लगते हैं?’
‘जी हाँ, मैं बाहर का हूँ। रोज़गार के सिलसिले में इस तरफ आ गया
हूँ।’
‘आपका परिवार, बाल-बच्चे?’
‘मकान मिल जाए तो उन्हें भी ले आऊँगा। विवाह इसी वर्ष हुआ है।’
‘खाते-पीते तो नहीं है?’
मि. मजूमदार समझ गए थे कि उनका इशारा माँस-मदिरा के सेवन से
है। तुरन्त जवाब दिया-
‘नहीं जी, बिल्कुल नहीं।’
‘ठीक है, आप कल शाम को आ जाना, मैं सोचकर बताऊँगा।’
और अगले दिन जब शाम को मजूमदार उनसे मिलने गए तो पता चला कि
‘बा-साब’ ने निर्णय उनके पक्ष में दिया है। फिलहाल एक कमरा और
रसोई और बाद में दो कमरे। यह समाचार ‘बा-साब’ की पत्नी
‘माँ-साब’ ने पर्दा करते हुए उन्हें दिया था।
‘बा-साब’ जवानी के दिनों में काफी मेहनती, लगनशील और
जि़न्दादिल स्वभाव के रहे होंगे, यह उनकी बातों से पता चलता
था। चाँदी के ज़ेवर, खासकर मीनाकारी का उनका पुश्तैनी काम था।
काम वे घर पर ही करते थे और इसके लिए उन्होंने पाँच-छ: कारीगर
भी रख छोड़े थे। यों ‘बा-साब’ के कोई कमी नहीं थी। तीन-चार
मकान थे, खेत थे, समाज में प्रतिष्ठा थी। थोड़ा-बहुत लेन-देन
का काम भी करते थे। बस, अगर कमी थी तो वह थी सन्तान का अभाव।
इस अभाव को ‘बा-साब’ भीतर-ही-भीतर एक तरह से पी-से गए थे।
चाहते तो वे खूब थे कि उनका यह अभाव प्रकट न हो, किन्तु उनकी
आँखों में उनके मन की यह पीड़ा जब-तक झलक ही पड़ती थी। एक दिन
मि. मजूमदार जब ऑफिस से घर लौटे तो क्या देखते हैं कि घर के
प्राँगण में बा-साब बॉलिंग कर रहे हैं और आशु मियां बल्ला
पकड़े हुए हैं। बिटिया को फील्डिंग पर लगा रखा है। एक हाथ में
धोती को थामे ‘बा-साब’ खिलाडिय़ों के अंदाज में बॉल फेंक रहे
थे।
समय गुजरता गया और इसी के साथ मकान मालिक व किराएदार का रिश्ता
सिमटता गया और उसका स्थान एक माननीय रिश्ता लेता गया। एक ऐसा
रिश्ता जिसमें आर्थिक दृष्टिकोण गौण और मानवीय दृष्टिकोण प्रबल
हो जाता है। वैसे, इस रिश्ते को बनाने में मजूमदार दम्पति की
भी खासी भूमिका थी क्योंकि सुदृढ़ रिश्ते एकपक्षीय नहीं होते।
उनकी नींव आपसी विश्वास और त्याग की भावनाओं पर आश्रित रहती
है। पिछले आठ-दस वर्षों में यह रिश्ता नितान्त सहज और आत्मीय
बन गया था।
एक दिन ‘बा-साब’ मूड में थे। मि.मजूमदार ने पूछ ही लिया था-
‘बा-साब, उस दिन पहली बार जब मकान के सिलसिले में मैं आपके पास
आया था, तो आपने बिना किसी परिचय या जान-पहचान के मुझे यह मकान
कैसे किराए पर दे दिया?’
बात को याद करते हुए बा-साब बोले थे-
‘आप यहाँ के नहीं थे, तभी तो मैंने आपको मकान दिया। आपको
वास्तव में मकान की आवश्यकता थी, यह मैं भाँप गया था। अपना
मकान मैंने आज तक किसी को किराए पर नहीं दिया, पर आपको दिया।
इसलिए दिया, क्योंकि आपके अनुरोध में एक तड़प थी, एक कशिश थी
जिसने मुझे अभिभूत किया। बाबू साहब, परिचय करने से होता है,
पहले से कौन किसका परिचित होता है?’
बा-साब अब इस संसार में नहीं रहे थे। गत वर्ष दमे के जानलेवा
दौरे में उनकी हृदय-गति अचानक बन्द हो गई थी। मजूमदार की बाहों
में उन्होंने दम तोड़ा था।
‘सोनी-बँगला आ गया साहब’, रिक्शेवाले की इस बात ने मि.मजूमदार
को जैसे नींद से जगा दिया। उन्होंने नज़र उठाकर देखा। बँगले के
गेट पर उनकी श्रीमतीजी, दोनों बच्चे, माँ-साब और बुआ-साब खड़े
थे। पड़ोस के मेनारिया साहब, बैंक मैनेजर श्रीमाली जी तथा
शर्मा दम्पति भी उनमें शामिल थे। वातावरण भावपूर्ण था। विदाई
के समय प्राय: ऐसा हो ही
जाता है। बच्चों को छोड़ सबकी आँखें
गीली थीं। मजूमदार ज़बरदस्ती अपने आँसुओं को रोके हुए थे।
उन्हें लगा कि माँ-साब उनसे कुछ कहना चाहती है। वे उनके निकट
गए। माँ-साब फफक-कर रो दी- ‘मने भूल मत जाज्यो। याद है नी, बा
सा आपरी बावाँ में शान्त विया हा।’
माँ-साब को दिलासा देकर तथा सभी से आज्ञा लेकर मि. मजूमदार
रिक्शे में बैठ गए। मानवीय रिश्ते भी कितने व्यापक और कालातीत
होते हैं, मि. मजूमदार सोचने लगे। |