सुनंदन बाबू अपनी पदोन्नति से
जितना प्रसन्न थे, उससे कहीं अधिक खुशी उनकी पत्नी एवं बच्चों
के चेहरों से झलक रही थी। कितने दिन यों घुट-घुटकर काट दिए।
सामने वाले चौबे जी के मकान में जो लेखा अधिकारी रहता है, उसकी
पत्नी बात-बात में अफसरी का रौब झाड़ती रहती। दोपहर को धूप
सेंकने के लिए पास-पड़ोस की सभी औरतें चौबे जी के घर के बाहर
लॉन में बैठ जातीं। चाय की चुस्कियों के बीच मकान मालिक और
किराएदार का भेद मिट जाता था।
चौबे जी सरकारी ठेकेदार हैं। अच्छा पैसा कमा लिया है। पूरे
मुहल्ले में उनकी अव्वल कोठी से यही प्रदर्शित होता है।
रस्तोगी जी बैंक में लेखाकार हैं और चौबे जी के बगल वाले मकान
में किराएदार हैं।
श्रीमती गिरिजा जैन अपने पति के पद से ज्यादा उनके मधुर स्वभाव
से संतुष्ट हैं। जैन साहब हायर सेकेंडरी स्कूल में विज्ञान के
अध्यापक हैं। स्कूल से अधिक समय बच्चों को घर पर देते हैं।
ट्यूशन से होने वाली प्रचुर आय के साथ-साथ घरेलू कार्यों में
मीन-मेख निकालने की फुर्सत नहीं मिलती, इसी कारण श्रीमती जैन
स्वयं को भाग्यशाली मानती हैं। दिन-भर महिला मंडली में बैठ
गप्प हाँकने का पूरा आनंद उठा लेती हैं।
आर्थिक दृष्टि से सुनंदन जी का परिवार सबसे कमजोर था। बेचारे
सरकारी कार्यालय में हिंदी अनुवादक हैं। वेतन के सिवाय टके भर
की ऊपरी आमदनी का कोई अवसर नहीं। तिस पर चार बच्चों का बड़ा
परिवार। इस महँगाई में आखिर काम कैसे चले? बड़ी दो लड़कियाँ हैं।
उनकी शादी के लिए अभी से बहुत कुछ नहीं बचाया तो आगे क्या
करेंगे? ऐसे में श्रीमती सुभद्रा के लिए हर माह घाटे का बजट
बनाने की विवशता रहती। बेचारी पिछले पाँच माह से अपने लिए एक
भी नई साड़ी नहीं खरीद पाई हैं। सुनंदन जी ने पिछली सर्दियों
में साठ रुपये का एक पुराना कोट सोम बाजार की पैंठ से खरीदा
था, उसी को ड्राईक्लीन कराकर दफ्तर पहनकर जाते हैं।
महँगाई का जिक्र चलते ही एकाउंट्स अफसर की पत्नी अपना रोना
लेकर बैठ जाती- "अजी! महँगाई का सबसे ज्यादा असर तो हम लोगों
पर ही पड़ा है। समाज में अफसरों वाला स्टेटस बनाकर रखना पड़ता
है। वेतन तो उतना बढ़ता नहीं। हमसे तो छोटे बाबू अच्छे। कैसे भी
रह लो, कोई कभी नहीं टोकता। पर यहाँ तो अपने ही रिश्तेदार
कटाक्ष करने लगेंगे- अरे भाई! अफसर हो तो अफसरों की तरह रहो।"
श्रीमती
सुभद्रा जानती थी कि ये सब बातें उन्हें चिढ़ाने के लिए ही कही
जा रही हैं क्योंकि उनके पति अफसर नहीं थे और आस-पड़ोस में केवल
उन्हीं के बच्चे हिन्दी माध्यम वाले सरकारी स्कूल में पढ़ते थे।
पिछले सप्ताह सुनंदन बाबू की पदोन्नति हो गई। वे अनुवादक से
हिंदी अधिकारी बन गए। घर में सर्वाधिक हर्ष श्रीमती सुभद्रा को
हो रहा था। अब महिला मंडली में वे भी रोब से कह सकेंगी कि उनके
पति राजपत्रित अधिकारी हैं। समाज में उनका भी स्तर है।
अगले दिन जब महिला गोष्ठी में सुभद्रा जी की तरफ से चाय पिलाई
गई तो सब जानने को उत्सुक थीं। श्रीमती सुनंदन ने बताया कि
उनके पति हिंदी अधिकारी हो गए हैं।
"यह क्या होता है?" श्रीमती जैन ने पूछा।
"अरी कुछ तो होता ही होगा। आखिर गजटेड पोस्ट है।" श्रीमती
रस्तोगी बोल पड़ीं।
"तब तो पार्टी पक्की।"
"हाँ-हाँ जरूर !" सुभद्रा जी ने गर्व से निमंत्रण दिया। कुछ
क्षण सोचकर पुनः बोलीं- "आप अगले महीने के पहले रविवार को सादर
आमंत्रित हैं।"
"पहले इतवार को ही क्यों?" श्रीमती चौबे पूछ बैठीं।
गिरिजा जैन हँसकर बोली- "अजी सरकारी कर्मचारी महीने के पहले
हफ्ते ही साहूकार रहता है। उसके बाद तो पूरा महीना आर्थिक
आपातस्थिति लगी रहती है।"
शीघ्र ही घर के पर्दे बदले गए क्योंकि क्या पता, कब कौन आ
टपके? यद्यपि यह सब बहुत महँगा पड़ रहा था। पिछली नौकरी में जो
कुछ बचाया, सब बराबर हो गया। सुनंदन जी ने अपने लिए एक पतलून
और दो नई कमीज सिलाई। असली महँगाई का आभास तो तब हुआ जब एक
टी-सैट और मेजपोश खरीदने में तीन सौ सत्तर रुपये लग गए। पर
विवशता थी, क्या करें? अफसर हो गए तो अन्य कोई-न-कोई सहकर्मी
अफसर भी घर पर आ सकता है। जब वे किसी के यहाँ जाएँगे तो उन्हें
भी दूसरों को बुलाना पड़ेगा।
सुनंदन जी की इकलौती बहन की चिट्ठी आई थी, लिखा था- "भैया अफसर
हो गए हैं, बधाई हो। अबकी बार राखी पर बनारसी साड़ी से कम न
लूँगी।"
सायंकाल बैठक में यह फैसला हुआ कि घर में स्कूटर भी होना
चाहिए। सुनंदन जी ने दफ्तर से स्कूटर एडवांस के लिए आवेदन
किया। पैसे मिलने में कोई विशेष कठिनाई नहीं आई। लेकिन स्कूटर
आने तक घर में हर रोज इसी बात पर चर्चा होती कि स्कूटर आने
वाला है। बड़ी लड़की रजनी खुश थी कि वह उसे यूनिवर्सिटी ले
जाएगी। उसकी सहेलियाँ प्रायः मोपेड पर आती हैं। जब वह स्कूटर
पर जाएगी तो सखियों में उसका स्थान ऊँचा हो जाएगा।
बिट्टू बोल पड़ा- "अरी ! तू कैसे ले जाएगी? लड़कियाँ स्कूटर नहीं
चलातीं। मैं तुझे यूनिवर्सिटी छोड़कर स्कूटर अपने कॉलेज ले
जाऊँगा।"
छोटे लड़के ने बीच में टोका- "यह स्कूटर पापाजी को दफ्तर से
मिला है। वे इसे अपने दफ्तर ले जाएँगे। तुम क्यों मुँह धोए
बैठे हो?"
सुनंदन बाबू को मन-ही-मन में स्कूटर की चर्चा अच्छी लग रही थी
पर सामान्य-सा बड़प्पन दर्शाते हुए बोले- "अरे तुम छोटी-छोटी
बातों पर क्यों लड़ते रहते हो? हम तुम दोनों के लिए एक-एक
स्कूटर और ला देंगे।"
सब बच्चों के चेहरों की मुस्कराहट देखते बनती थी। छोटा राजू
बबली के कान में फुसफुसाया- "अब पापा अफसर हो गए हैं। हमारे घर
में किसी चीज की कमी नहीं रहेगी।"
बबली बोली- "स्कूटर पर मम्मी-पापा घूमने जाएँगे।"
अगले महीने जब घर में सचमुच स्कूटर आ गया तो सब उसके चारों ओर
झूम गए। हाथ लगा-लगाकर देख रहे थे और एक-दूसरे को टोक भी रहे
थे कि हाथ न लगाओ, मैला हो जाएगा। बड़ा लड़का एक कपड़ा उठा लाया
और उसे साफ करने लगा।
रजनी बोली- "अरे इतने जोर से न रगड़ो, रंग उतर जाएगा। इस पर अभी
मैल जमा ही कहाँ है?"
तिवारी जी ने दरवाजे पर दस्तक दी तो स्वयं सुनंदन जी ने गर्व
से दरवाजा खोला और बोल पड़े- "आइए तिवारी जी! देखिए कैसा
रहेगा?"
"अरे वाह! बहुत खूब! आज तो इसी बात पर मुँह मीठा हो जाए!"
श्रीमती सुभद्रा ने चाय का कप तिवारी जी को थमाया और बर्फियों
का डिब्बा आगे बढ़ा दिया।
जब तक चाय का दौर चला, सुनंदन जी ने स्कूटर के अतिरिक्त किसी
अन्य विषय पर चर्चा ही नहीं चलने दी।
शहर के प्रतिष्ठित लायंस क्लब की सदस्यता के लिए सुनंदन जी ने
आवेदन कर दिया। वे उच्च अधिकारियों की मानसिकता को समझने का
प्रयास कर रहे थे ताकि उसकी मनोविज्ञान के आधार पर स्वयं को
विकसित कर सकें।
सात बजे सोकर उठने वाले सुनंदन जी छह बजे उठकर सैर के लिए जाने
लगे। हाथ में लकड़ी का रूल थामे वे पिछली गली से निकलकर महावीर
पार्क में पहुँच जाते, जहाँ शहर के प्रतिष्ठित व्यक्ति एकत्र
होते थे। रिटायर्ड मेजर कृष्णमूर्ति अपने कुत्ते के साथ पार्क
के चक्कर काटता मिलता। सुरोधा जी फाइनेंस कंपनी में उपप्रबंधक
हैं, वे भी अपने पिल्ले को लेकर सुबह-सुबह ही पार्क में पहुँच
जाते।
सुनंदन जी ने अपना परिचय दिया कि वे केंद्रीय सरकार में अधिकरी
हैं। शेष व्यक्तियों ने प्रसन्नतापूर्वक उनका स्वागत किया और
पूछा, "आप कहाँ रहते हैं?"
सुनंदन ने उन्हें पता बताया।
"अच्छा! छुट्टी वाले दिन हम आपके घर जाएँगे।" मेजर बोला।
"क्यों नहीं- क्यों नहीं!" सुनंदन बाबू ने मुस्कराकर निमंत्रण
दिया।
आज एक बात उन्होंने विशेष रूप से नोट की कि अफसरों के पास
अक्सर कुत्ते अवश्य मिलते हैं। सुबह घूमने जाते हैं तो गले में
चेन डालकर साथ-साथ रखते हैं। अवश्य यह बड़प्पन की निशानी है।
फिर कुत्ता कोई बुरा जानवर तो नहीं। कृष्णमूर्ति के अलिसेशियन
कुत्ते ने उनका मन मोह लिया था। उन्होंने भी कुत्ता पालने का
मन बना लिया। सोचा, घर में थोड़ी-बहुत जूठन तो बच ही जाती है,
उसी को खाकर पेट भर लेगा। इससे मोहल्ले में हमारी इज्जत बढ़ेगी।
अगले दिन बात-बात में उन्होंने मेजर से पूछ लिया कि उन्हें यह
कुत्ता कहाँ से मिला?
"हमारे एक कर्नल थे, उनसे तीन हजार रुपये में खरीदा था। इसके
खाने पर प्रतिदिन पैंतीस रुपये खर्च आता है।" मेजर ने बताया।
सुनंदन जी ने सुना तो उत्साह ढीला पड़ गया और कुछ दिनों के लिए
कुता पालने के विचार को स्थगित कर दिया।
सुरंजन चाचा की तेरहवीं पर जब वे गाँव गए तो चचेरा भाई रघुबर
बोला- "सुनंदन।! सुना है, तुम अफसर बन गए हो। तुम्हारे भतीजे
ने इसी साल गाँव के स्कूल से दसवीं कर ली है। आगे पढ़ने के लिए
शहर में तुम्हारा मार्गदर्शन चाहता है।"
सुरंजन चाचा की विधवा बीच में बोल पड़ी- "बेटा सुनंदन! तू कोई
पराया तो है नहीं। तेरे चाचा के बाद तो अब तेरा ही सहारा है।
दिवाकर एम.ए. तक पढ़कर बेकार घूम रहा है। कहीं दो महीने नौकरी
मिलती है तो कहीं पंद्रह दिन। बेकारी से बहुत दुखी हो गया है
बेचारा। ऊपर से बापू की मौत ने विक्षिप्त बना दिया है। बेटा,
तू अफसर हो गया है, इसे अपने साथ शहर ले जा और कहीं अच्छी
नौकरी लगवा दे।"
सुनंदन क्या जवाब दे? कैसे बताए कि उसके हाथ में कुछ नहीं है।
लेकिन यह भी तो नहीं कह सकता कि उसकी एक नहीं चलती। यह तो
अपमान वाली बात होती। बोला- "ठीक है, कोशिश करेंगे।"
इतना इशारा मिलते ही दिवाकर ने चलने की तैयारी शुरू कर दी।
दिवाकर के साथ शहर लौटते सुनंदन को गाँव की गली में एक
सुंदर-सी कुतिया दिखाई दी। वह उसके आकर्षक रूप-लावण्य पर मुग्ध
हो गया। सोचा, यह तो मेजर कृष्णमूर्ति के कुत्ते से कहीं कम
नहीं। मुफ्त मिल रही है, क्यों न इसे शहर ले चलूँ? सुबह पार्क
में घूमते समय साथ चलेगी तो आम अफसरों में रौब बनेगा, मुहल्ले
में इज्जत बढ़ेगी। फिर गाँव की कुक्कुरी है जैसा रूखा-सूखा
देंगे, खा लेगी। शहरी कुत्तों वाले नाज-नखरे तो नहीं करेगी।
यह सब विचारने में क्षण-भर से अधिक समय नहीं लगा। उन्होंने
दिवाकर से कहा- "जैसे भी हो, इस कुतिया को पकड़ो, इसे अपने साथ
शहर ले चलेंगे।"
दिवाकर हैरान था पर सुनंदन का आदेश मानकर उसने थोड़ी भाग-दौड़ के
बाद कुतिया को पकड़ लिया। फिर बड़ी मुश्किल से उसे गोद में लेकर
स्कूटर पर बैठाया और स्वयं पीछे बैठा।
सुनंदन बाबू स्कूटर चला रहे थे। स्कूटर की आवाज के कारण कुतिया
डरकर चिल्लाने लगी। पर वे भी धुन के पक्के थे। वहाँ से चले तो
घर आकर ही साँस ली। श्रीमती सुभद्रा एवं बच्चे घर में कुतिया
के आगमन से जितने प्रसन्न थे, उतना ही कष्ट उन्हें दिवाकर को
देखकर हो रहा था। जब उन्हें पता चला कि यह अब यहीं रहेगा तो
उनकी त्यौरियाँ और चढ़ गई। श्रीमती सुनंदन ने पति को उनकी
सहृदयता के लिए लताड़ा। एक तरफ ले जाकर बोलीं- "तुम्हें जरा भी
अक्ल नहीं? मना क्यों नहीं कर दिया। यहाँ महँगाई में अपना ही
पेट पालना दूभर हो रहा है, ऊपर से इस मुस्टंड को और ले आए।
बहाना बनाकर टाल देते। चाची एक बार बुरा मान लेतीं। अब कैसे
भुगतेंगे इसे? अगले महीने मोहल्ले की औरतों को दावत देनी है।
दो माह हो गए टालते हुए।"
"अरे सब हो जाएगा, क्यों चिंता करती हो। जी. पी. एफ. से पैसे
निकलवा लेंगे।" सुनंदन जी ने उसका गुस्सा ठंडा करने की कोशिश
की।
बिट्टू बाजार से कुतिया को बाँधने के लिए जंजीर लेने चला गया।
बबली और राजू ने मिलकर घर के एक कोने में पेटी पर टाट डालकर
कुक्कुरी के लिए छोटा-सा ढारा बना दिया।
स्वच्छंद विचरण करने वाली कुतिया को यह बंधन बड़ा अजीब-सा लग
रहा था। यद्यपि सभी ने अपने हाथों से उसे रोटी का एक-एक टुकड़ा
खिलाया। सुनंदन जी ने प्याली भर दूध पिलाया। पर यह सब डकारकर
भी कुक्कुरी कूँ-कूँ करती रही। गले में पड़ी जंजीर को तोड़ने का
प्रयास करती। कभी इधर आती तो कभी खिड़की पर अगले पैर रखकर आधी
खड़ी हो जाती।
बिट्टू बोला- "रफीक का कुत्ता अंग्रेजी समझ लेता है। मैं भी
इसे अंग्रेजी सिखाऊंगा।"
बबली बोली- "मैं इसका नाम मिस फ्लूडी रखूंगी।"
दिवाकर ने समझाया- "यह मिस नहीं, मिसेज है। देख नहीं रही, कुछ
ही दिन में यह माँ बनने वाली है।"
"तब तो लेडी फ्लूडी कहेंगे।" राजू ने चुटकी ली।
कुतिया चिल्लाए जा रही थी। उसका शोर सुनकर घर के आसपास गली के
आवारा कुत्ते जमा हो गए।
मिसेज फ्लूडी सारी रात चिल्लाती रही। सुनंदन बाबू का परिवार तो
जागा ही, पड़ोसियों की भी नींद हराम हो गई। मकान मालिक रात-भर
बड़बड़ाता रहा- "पता नहीं कहाँ से आफत ले आए? दो दिन में इन
लोगों को ऐसी हवा लगी है, पूछो मत। किराया बढ़ाने की बात करता
हूँ तो मिमिया उठते हैं। वैसे प्रदर्शन ऐसा कि क्या करेगा कोई
लखपति!"
आवाज सुनंदन जी के कानों तक पहुँच रही थी पर वे चुप ही रहे।
करें भी क्या? इतना सस्ता मकान कहीं मिलता भी तो नहीं!
सुबह उठकर देखा तो परेशानी और बढ़ गई। पूरे बरामदे में जगह-जगह
कुक्कुरी के मल-मूत्र की दुर्गंध आ रही थी। अरे! यह तो सोचा ही
नहीं था। मकान-मालिक ने देख लिया तो आज ही खाली करा लेगा। सूरज
निकलने से पहले सारा फर्श धोना पड़ा।
महावीर पार्क में मेजर ने सुनंदन जी को कुतिया के साथ आते देखा
तो आगे बढ़कर बधाई दी। उनके एलिसेशियन कुत्ते ने मिसेज फ्लूडी
का स्वागत किया। कुछ क्षण दोनों एक-दूसरे को सूँघते रहे।
सुरोधा जी बोले- "सुनंदन जी, अब तो आपको मिसेज डागी की वेलकम
पार्टी देनी ही होगी।"
सुनंदन बाबू खिलखिलाकर हँस पड़े। कुतिया को साथ लेकर वे आज
स्वयं को गौरवान्वित अनुभव कर रहे थे।
पर दो दिन बाद ही लगने लगा कि इस कुक्कुरी ने घर में आफत पैदा
कर दी है। धर्मभीरु स्वभाव की श्रीमती सुनंदन सहेलियों में
कितनी ही आधुनिक बनती हों परंतु उन्हें यह कतई सहन नहीं था कि
कुतिया उनके घर के अंदर चक्कर काटती फिरे या रसोई-चौके में
घुसकर बर्तनों को मुँह लगाए। रात-रात भर भौंककर सिर में दर्द
कर देती है। मकान-मालिक ने साफ कह दिया कि यदि इस कुतिया को
रखना है तो मकान बदल लो। मैं अब इसे और एक दिन भी अपने घर में
नहीं भौंकने दूँगा।
अंत में यही निर्णय लिया गया कि इसे सुनंदन जी के कमरे में
रोककर रखा जाए। यही सही था कि खिड़की-दरवाजे बंद होने से आवाज
बाहर नहीं गई परंतु उसकी उछल-कूद से मेज पर रखे फूलदान टूट गए
और किताबों का रैक गिर गया।
सुनंदन जी घर में बढ़ते अप्रत्याशित खर्च से वैसे ही परेशान थे,
ऊपर से इस कुक्कुरी ने नाक में दम कर दिया। उन्होंने बिट्टू से
कहा- "दिवाकर को साथ लेकर इसे स्कूटर पर वापस गाँव छोड़ आओ।"
घर के सभी सदस्य मिसेज फ्लूडी को विदा करने का मन बना चुके थे।
लेकिन सप्ताह-भर साथ रहने के कारण कुक्कुरी ने उनके हृदय के
किसी कोने में स्थान बना लिया था। सुबह तो यह चली ही जाएगी,
ऐसा सोचकर सबने रात को उसे बड़े प्यार से भर-पेट भोजन खिलाया।
सुभद्रा जी ने दूध में शरबत मिलाकर पिलाया। सुनंदन ने एक
पुरानी रजाई का बिछौना बनाकर कमरे में इस ढंग से रखा कि कुतिया
उस पर आराम से बैठ सके और सर्दी लगने पर उसमें छिप सके।
अगली सुबह जब सुनंदन जी सोकर उठे तो चकित रह गए। कमरे में
फ्लूडी ही नहीं, उसके आसपास चार नवजात पिल्ले भी घूम रहे थे।
फ्लूडी के प्रसव का समाचार सुनकर घर के सभी सदस्य एकत्र हो गए।
बिट्टू बोला- "पापा! अब इतने सारे कुक्कुर स्कूटर पर गाँव नहीं
जा सकते। इनके लिए कोई टैंपो करना होगा।"
सुनंदन जी सोचते रहे- यह तो बहुत महँगा पड़ेगा।
दिन में यह खबर पूरे मोहल्ले में फैल गई कि सुनंदन के यहाँ
कुतिया ने चार बच्चों को जन्म दिया है। श्रीमती रस्तोगी ने
पिल्लों को देखा तो खुश होकर बोलीं- "सुभद्रा जी! इस काले
पिल्ले को बड़ा होने पर हमें दे देना। देखो तो, कितना आकर्षक
है।"
गिरिजा जैन अपनी छोटी बिटिया के साथ बधाई देने आईं। उनकी बेटी
को पिल्ले इतने अच्छे लगे कि वह वहाँ से जाने को ही तैयार नहीं
हुई। बोली- "मैं तो अब सारा दिन आंटी के पिल्लों से खेलूंगी।"
शाम को सुरोधा जी एवं मेजर कृष्णमूर्ति एक पशु चिकित्सक को साथ
लेकर सुनंदन जी के घर उपस्थित हो गए।
आते ही मेजर कहने लगा- "अरे सुनंदन बाबू! आप दो दिन से सैर
करने नहीं आ रहे। सब कुशल तो है? इनसे मिलिए, ये हैं हमारे
पशुओं के फैमिली डॉक्टर सुब्रत जी! हमारे राकी को देखने आए थे।
आजकल कुत्तों में बीमारी फैली हुई है। मैंने सोचा, मिसेज
फ्लूडी को भी इन्हें दिखा दें। हर महीने रोग निरोधक टीका लगा
देंगे।"
तभी कुक्कुरी वहाँ आ गई। उसके साथ पिल्ले भी थे। डॉक्टर ने
देखा तो बोला- "यह तो और भी अच्छा हुआ। नवजात बच्चों को तो आज
ही दवा दे देता हूँ।"
सुरोधा जी कहने लगे- "वैरी लवली! देखो तो कितने सुंदर बच्चे
हैं।"
डॉक्टर की फीस एक सौ सत्तर रुपये हुई। सुनंदन जी को काटो तो
खून नहीं। उन्होंने महीने के आखिरी दो दिनों के खर्च के लिए
डेढ़ सौ रुपये बचाकर रखे थे। वे तो गए सो गए, बीस रुपये बच्चों
की गुल्लक तोड़कर निकालने पड़े।
इसके बाद तो उन्होंने निश्चय कर लिया कि जैसे भी हो इस
कुक्कुरी से पिंड छुड़ाना ही है। रात के अंधेरे में दिवाकर,
बिट्टू और राजू मिलकर मिसेज फ्लूडी और उसके बच्चों को शहर के
बाहर एक फार्म हाउस के पास छोड़ आए।
अब वे निश्चिंत थे कि बड़ी बला से पिंड छूटा। रजनी बोली- "लेकिन
पापा, जब सुबह मोहल्ले वालों को पता चलेगा कि हमने फ्लूडी को
भगा दिया तो इसमें हमारा अपमान नहीं होगा क्या?"
सुभद्रा जी ने उसकी बात का समर्थन किया- "वह कलमुंही अफसर की
बहू तो वैसे ही हमारी तरक्की से जली-भुनी बैठी है। उसे तो मौका
मिलना चाहिए। कहती फिरेगी- कुत्ते पालने का शौक चढ़ा था, दस दिन
में ही तौबा कर गए।"
सुनंदन ने इस समस्या का निदान भी सुझा दिया। कहा- "तुम
शोकमुद्रा में मोहल्ले वालों को बताना कि किसी ने हमारी फ्लूडी
को चुरा लिया है। दो दिन बाद सब शांत हो जाएगा।"
ऐसा ही किया गया। अगले दिन जब मुहल्ले में पता चला कि सुनंदन
जी की फ्लूडी बच्चों सहित चोरी हो गई तो वे शोक प्रकट करने
उनके घर आने लगे।
पदोन्नति के बाद इन दो महीनों का वेतन कब आया और कब गया, कुछ
पता ही नहीं चला। जी.पी. फंड से चार हजार रुपये निकलवाए, वे
अलग। परंतु इतना सब खर्च करके भी श्रीमती सुनंदन को इस बात की
प्रसन्नता थी कि पिछले सात वर्षों की हीनता को छोड़ अब समाज में
गर्दन ऊँची करके चल सकेंगे।
परंतु लगा, भाग्य को यह मंजूर नहीं था। अगले सप्ताह ही सुनंदन
जी को पटना के लिए स्थानांतरण आदेश मिल गए। उन्हें घर, शहर,
मोहल्ला छोड़कर इतनी दूर जाने का बिल्कुल दुख नहीं था। कष्ट था
तो मात्र इस बात का कि इतने रुपये खर्च कर मुश्किल से समाज में
नई-नई प्रतिष्ठा अर्जित की थी, उसमें कुछ दिन रह भी नहीं सके।
छुट्टी वाले दिन प्रातः सामान बाँध पटना जाने की तैयारी शुरू
हो गई। ट्रक में सामान लद ही रहा था कि जैन साहब अपने एक शिष्य
के साथ आते दिखाई दिए। उनके पीछे-पीछे दो बिहारी मजदूर मिसेज
फ्लूडी और उसके बच्चों को उठाये चल रहे थे।
दूर से ही सुनंदन जी को देखकर जैन साहब मुस्कराए। बोले- "मिठाई
खिलाओ बंधु! आपकी फ्लूडी ढूँढ दी है। गिरिजा कह
रही
थीं कि कोई आपकी फ्लूडी को उसके बच्चों सहित उठा ले गया। मैंने
ट्यूशन पढ़ने वाले बच्चों से जिक्र किया। कल राहुल को अपने
फार्म हाउस के पास फ्लूडी दिखाई दी तो इसने मुझे बताया। मैंने
सोचा, इतने दिन आपके साथ रहे हैं, चलते हुए क्यों न आपको सुखद
सरप्राइज दूँ?"
तभी गिरिजा जैन आ गईं। बोली- "सुभद्रा जी! एहसान मानिए, हमारे
जैन साहब का। अन्यथा फ्लूडी के वियोग में आप वहाँ और आपके
वियोग में फ्लूडी यहाँ तड़पती रहती।"
किंकर्तव्यविमूढ़ सुनंदन जी नाशपीटी पदोन्नति को कोस रहे थे। |