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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से संजीवदत्त शर्मा की कहानी- नानी कितनी खुश होती


आखिरकार नानी चल बसीं। कंधा देने वाले चार लोग थे और साथ में छह-सात लोग और। कुल मिलाकर एक दर्जन से कम। वो इसलिए कि नानी कोई बड़ी हस्ती तो थीं नहीं। नानी जैसे लोग बगैर हल्ले-गुल्ले के निकल जाते हैं। अखबार में न तो उठावने का विज्ञापन छपाने की जरूरत होती है, न ही उनकी फोटो के साथ क्रिया का विज्ञापन छपाने की।

लेकिन नानी की मौत पर कुछ लिखना इसलिए जरूरी लग रहा है कि एक साधारण घरेलू औरत होने के बावजूद नानी कई मामलों में बड़ी असाधारण थीं।

नानी ने भरपूर जिंदगी पाई। नब्बे बरस की उम्र कोई कम तो नहीं होती और एक लंबी जिंदगी में जो कुछ अच्छा-बुरा कोई देख सकता है वो नानी ने भी देखा।

नानी पैदा हुई थी लाहौर के नजदीक एक गाँव में, खानदानी पटवारियों के परिवार में। परिवार पटवारियों का था इसलिए घर में पैसा भी था, जमीन भी थी और घोड़े भी थे। नानी को घोड़े की सवारी बखूबी आती थी।

जब नानी की शादी हुई तब नाना खूबसूरत जवान थे। सवा छह फुट से ऊपर निकलता कद। गोरा रंग और ग्रीक देवताओं जैसे नाक-नक्श। उस जमाने के ग्रेजुएट थे नाना। अरबी, उर्दू, अंग्रेजी और गणित के मास्टर। गहस्थी जमती चली गयी। शुरू में लड़कियाँ होती रहीं तो मान-मनौतियों का सिलसिला शुरू हुआ फिर एक बेटा हुआ। डिप्थीरिया से चल बसा। उस जमाने में कोई टीकाकरण तो होता नहीं था- होता तो नानी जरूर अपने सब बच्चों को पूरे टीके लगवातीं क्योंकि अनपढ़ होने के बावजूद एलोपैथिक इलाज में उनकी बड़ी श्रद्धा थी। नानी को डॉक्टरों से मिलने का और नयी से नयी दवाएँ लिखवाने का भी बड़ा शौक था। घर में कोई भी बीमार होता तो वे एलोपैथिक दवाएँ ही दिलवातीं।

सब कुछ अच्छा चल रहा था। लाहौर जो उन दिनों हिन्दुस्तान का पेरिस कहलाता था वहाँ नाना-नानी ने नया मकान बनवा लिया था। गहनों का भी नानी को खूब शौक था और उन्होंने ढेर सारे गहने बनवा भी रखे थे।

लेकिन बेटे की पैदाइश के साल भर बाद जो हुआ उसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी। हिन्दुस्तान का बँटवारा हो गया। मारकाट मच गयी। गली-गली लूटपाट। सारे हिन्दुओं में भगदड़ मच गयी हिन्दुस्तान आने की। नया मकान नानी को बहुत प्यारा था। बहुत मेहनत से खुद खड़े होकर उन्होंने यह मकान बनवाया था। उनका खून और पसीना दोनों ही लगे थे इस मकान में। दंगे-फसाद के नाम पर कैसे छोड़ती नानी अपना मकान। लेकिन मकान ही नहीं पूरा माल-असबाब छोड़कर सिर्फ एक पोटली में जरूरी चीजें बाँधकर नानी का परिवार चल पड़ा हिन्दुस्तान की तरफ। मारकाट तो रास्ते में भी मची थी। इस भगदड़ में नाना कहीं गुम हो गये। नानी बच्चों के साथ एक रिफ्यूजी कैंप में आ गयीं। लेकिन नानी को जिंदगी से बहुत उम्मीदें थीं। उनके जैसी आशावादी और हिम्मती औरत की मिसाल कम ही मिलती है। अपने बच्चों को कैंप में छोड़कर नानी पाकिस्तान जाने वाली गाड़ी में सवार हुईं और भारी मेहनत के बाद पता नहीं कहाँ से और कैसे नाना को जिंदा ही नहीं एकदम सही-सलामत, चौकस हालत में खोज लायीं।

नानी आसानी से हार मानने वाली औरत कतई नहीं थीं। खून-खराबे के उस दौर में जब किसी के गुम हो जाने का मतलब ही मर जाना मान लिया जाता था- ये सिर्फ नानी की हिम्मत थी कि नाना को उन्होंने खोज निकाला। नाना तो वाकई इतने खुश हुए जिसकी सीमा नहीं। उन्हें तो नया जीवन मिल गया था।

नाना के माता पिता और रिश्तेदार दंगों में खत्म हो गये। नानी ने जो तकलीफें उठायीं वो भी कम नहीं थीं लेकिन इस सबके बावजूद नानी के मन में कोई कड़वाहट किसी के लिए नहीं थी। नानी ने हमेशा गाँधीजी को अपना नेता ही नहीं भगवान माना। पंडित नेहरू जिनका नाम वो ‘पंडत नेहरू’ करके लेती थीं, में भी उनकी आस्था थी और फिर इंदिरा गाँधी भी उनकी नेता रहीं। नानी के पास चरखा था जिसे वह अक्सर चलाया करती थीं।

नानी घनघोर निरक्षर थीं लेकिन मोटी-मोटी राजनीतिक घटनाएँ, हिन्दुस्तान-पाकिस्तान की लड़ाई उन्हें मालूम रहती थीं। कांग्रेस उनकी पार्टी थी। वह पाटी की मेम्बर नहीं थीं - ना ही किसी कांग्रेसी से कोई मुलाकात थी उनकी, लेकिन कांग्रेस के खिलाफ वो एक लफ्ज नहीं सुन सकती थीं। इंदिरा जी की हत्या की खबर टेलीविजन पर आई तो नाना ने उन्हें पंजाबी में अनुवाद करके बताया। नानी को यकीन ही नहीं हुआ। और जब यकीन हुआ तो उन्हें बेहद दुख हुआ।

नानी की शख्सियत के कई पहलू थे। नानी-नाना जब १९४७ में आकर हिंदुस्तान में बस गये तो उन्हें दिल्ली से ९० किलोमीटर दूर पानीपत (वही तीन लड़ाइयों वाला पानीपत) में एक रिहाइशी प्लॉट मिला। लाहौर वाले मकान के बदले में। नाना को एक प्राईवेट स्कूल में नौकरी मिली जो उन्होंने रिटायरमेंट तक की। इसी स्कूल से मिलने वाली तनखा में नानी ने एककमाल कर दिखाया। चार बच्चों के परिवार को पालने-पोसने और स्कूलों में अच्छी शिक्षा के खर्चों के साथ-साथ सात कमरों वाल एक हवेलीनुमा मकान भी बना डाला। यही मकान हम सबका ननिहाल बना।

मेरी आँखों में बचपन की एक तस्वीर कौंधती है जिसमें इस घर के लंबे-चौड़े बरामदों में, कमरों में नानी झाडू-पोंछा करती दिखाई देती हैं। सच में बड़ी मेहनत का काम था मगर यही नानी का शौक था। इस घर में तीन रसोईघर थे। एक असली रसोईघर जिसमें खूब मेहनत से माँजे गये काँसे और पीतल के चमचमाते बर्तन लाइन से अलमारियों में लगे रहते थे। दूसरा रसोईघर एक बरामदे में था जहाँ रोज खाना पकता था और तीसरी रसोई थी खुले आँगन में जहाँ गर्मियों में शाम का खाना तंदूर में पका करता था।

 
नानी का सजावट का भी अपना एक नजरिया था। बर्तनों को वह अनोखे ढंग से सजाकर रखती थीं। सब भगोने एक लाइन में, कढ़ाइयाँ उनके पीछे। एक लाइन गिलासों की और हर गिलास के ऊपर एक कटोरी उल्टी रखी हुई। नानी ने घर में कोई नौकर नहीं रखा। झाडू-पोंछा, साफ-सफाई, सब खुद करना उनका शौक भी था और लगन भी।

नानी का शरीर कुछ भारी था। जब हम थोड़े बड़े हुए और नानी और ज्यादा बूढ़ी तो मैं उन्हें देखता था एक छोटी सी पीढ़ी पर बैठकर वह झाडू-पोंछा करती थीं और पीढ़ी को सरका-सरका कर अपना काम कर लेती थीं।

नानी का शरीर भारी होने का एक ठोस कारण था। नानी थी ठेठ पंजाबन। नानी ने पंजाबी के अलावा कोई भाषा न समझी, न बोली, सलवार-कमीज के अलावा कुछ पहना नहीं और देसी घी के अलावा कुछ खाया नहीं। घी-दूध से उनका अगाध प्रेम था। खाने की हर चीज में भरपूर देसी घी न हो तो उनका काम ही नहीं चलता था। चाय के बारे में वह मानती थीं कि चाय गरमी करती है इसलिए चाय को एक तो वो ठंडा करके पीती थीं और उनमें एक-दो चम्मच खालिस घी जरूर डाल लेती थीं। उनका शैंपू लस्सी थी और लस्सी से सिर की मालिश करती थीं और हम अपने बचपन में उनके शरीर से आने वाली घी की गंध से उन्हें पहचानते आ रहे थे। घर में उनके बिस्तर, कपड़ों, सब जगह घी की गंध छायी रहती थी। पिछले बरस जब वो काफी बीमार होकर अस्पताल में भर्ती रहकर लौटीं तो फिर मरते दम तक करीब नीम-बेहोशी की हालत में रहीं। इस दौरान उन्होंने घी की मालिश नहीं की। हमें उनके पास से घी की वो गंध नहीं आती थी जो कि उनकी पहचान का हिस्सा बन चुकी थी।

करीब दस बरस पहले एक डॉक्टर ने उनका भारी-भरकर शरीर और बुढ़ापा देखकर निराशा में सिर हिलाया तो हम सबको बड़ी चिंता हुई। हमने डॉक्टर से पूछा कि आप कहें तो इनका घी-दूध बंद कर दें जिससे उनका मोटापा कुछ कम हो जाए। डॉक्टर ने कहा ‘नहीं! इन्हें शौक से खाने दीजिए- चार-छह महीने की तो बात है।’ हम सब थोड़ा घबराये। लेकिन नानी की समझ में डॉक्टर को घी के फायदे पता ही नहीं थे। बहरहाल, नानी अगले दस साल तक अंतिम साँस तक घी-दूध का भरपूर सेवन करती रहीं।

हमारा मँझला भाई शुरू से नानी के पास ही रहा। दूध की जादुई ताकत में नानी का इतना यकीन था कि हर दिन घर से वह एक ‘कड़ेवाला’ गिलास भर कर दूध स्कूल में ले जाकर उसे पिलाती थीं।

एक बार तो नानी ने हिन्दुस्तान - पाकिस्तान बँटवारे में घर खोया, दूसरी बार उन्होंने अपना घर खोया एक किरायेदार की वजह से। पानीपत के उस मकान का एक हिस्सा कॉलेज के एक संगीत प्रोफेसर ने किराये पर लिया। प्रोफेसर जन्मांध था और खूबसूरत बीवी का पति। उन्होंने पहले तो किराया देना बंद किया और फिर धीरे-धीरे पूरे मकान पर कब्जा जमाने लगे। प्रोफेसर होने के बावजूद उनके संबंध असामाजिक तत्वों से भी थे। ऐसे लोग घर में आकर बूढ़े नाना-नानी को तरह-तरह से डराते-धमकाते। दोनों बूढ़ों की जान साँसत में थी। पुलिस में रिपोटा-रिपाटी भी की, लेकिन सबकी सहानुभूति अंधे प्रोफेसर और उससे ज्यादा उसकी खूबसूरत बीवी के साथ थी, कोई कार्यवाही नहीं हुई। नानी हिम्मतवाली जरूर थीं लेकिन उसमें आज के जमाने वाला काइयाँपन नहीं था। थक हार कर नानी ने अपनी कोठी औने-पौने दामों पर बेच दी और भोपाल का रुख किया। भोपाल में उन्होंने एक फ्लैट खरीद लिया और बाकी पैसे फिक्स्ड डिपाजिट कराकर ब्याज से अपना गुजारा चलाने लगीं। महल जैसे सात कमरों के मकान के बाद यह फ्लैट नानी के लिए चूहेदानी जैसा था।

अपना मकान छोड़ने का दुख तो था ही और फिर बुढ़ापे की मार। नानी लगातार बीमार रहने लगीं। पिछले दो तीन बरसों से तो उनका चलना-फिरना भी बंद-सा ही था। लेकिन मकान को लेकर नानी के शौक कम नहीं हुए। बिस्तर पर पड़े-पड़े उन्होंने नाना को हुक्म लगाया कि पूरे खिड़की-दरवाजों में जाली लगवायी जाए। जाली लगने के बाद नानी को फितूर हुआ - पूरे फर्श पर टाइलें लगवाने का, फिर गुलाबी डिस्टेंपर कराने का। सब काम नानी की मर्जी से पूरे होते रहे। उनसे बहस करने की किसी की हिम्मत नहीं थी। पूरा घर उनका रौब खाता था और उनकी बुलंद आवाज से डरता था। आवाज की ये बुलंदगी आखिर तक कायम रही। उन्हें यह पसंद नहीं था कि उनका कहना पूरा न हो।

ईश्वर में नानी की गहरी आस्था थी। पानीपत वाले मकान के हॉल में नानी ने एक बड़ी अलमारी को मंदिर का रूप दे रखा था। अलमारी के सामने एक चौकोर तख्त रखा रहता था जिस पर एक मृगछाल थी। यह नानी का आसन था। मोहल्ले की औरतें अक्सर दोपहर को इक्ट्ठी होकर आती थीं और नानी के चरण छूकर उनके इर्द-गिर्द फर्श पर बैठ जाती थीं। फिर शुरू होता था नानी के भजनों का दौर। नानी अपने भजन खुद ही बनाती थीं और पुराने भजन भूलकर रोज नये भजन रचती थीं। सब भजन भगवान कृष्ण की महिमा में होते थे। कृष्ण नानी के आराध्य कम और दोस्त ज्यादा थे। नानी के असली आराध्य थे हनुमान जी जिन्हें वह महावीर जी कहती थीं। उनकी गदा का चिह्न हमेशा धारण किये रहती थीं। हालाँकि उत्तर भारत में महिलाएँ हनुमान जी के मंदिर नहीं जातीं लेकिन नानी ने खुद को ही हनुमान घोषित कर दिया था। उनके श्रद्धालु उन्हें ‘महावीर जी’ कहकर ही संबोधित करते थे। हम भी शुरू से ही उन्हें बजाय नानी या कुछ और कहने के ‘महावीर जी’ ही कहते थे। यही उनका नाम बन गया था। उनके डील-डौल और ताकत को देखकर लोग उन्हें सहज ही हनुमान जी का अवतार मान लेते थे।

नानी का अपना अध्यात्म था और किसी धर्मगुरु की तरह ही उनके पास पानीपत में श्रद्धालुओं की छोटी-मोटी फौज थी। ये लोग समय-समय पर नानी के मंदिर में मत्था टेकने, अपनी समस्याओं का निदान पूछने, सपनों का हाल जानने और आशीर्वाद लेने आया करते थे। मोहल्ले में जितनी भी शादियाँ होती थीं, सब नवदंपत्ति नानी के मंदिर में आशीर्वाद लेने आते थे और चाँदी के ‘कलीरे’ चढ़ाकर जाया करते थे। नानी के बारे में यह भी मान्यता थी कि नानी जिन नव वधुओं को पुत्रवती होने का आशीर्वाद देती थीं उनको बेटे ही पैदा होते थे - लेकिन यह बात अलग है कि बावजूद तमाम आशीर्वादों के नानी की अपनी बहू तीन बेटियों की माँ बनी। नानी की अपनी किस्मत में पोतियाँ ही लिखी थीं, पोता नहीं।

उनका नाम था राजरानी और जिंदगी भर उन्होंने अपने को किसी रानी से कम नहीं माना। मुसीबतों के वक्त भी मर्जी उन्हीं की चलती थी - नतीजे चाहे जो भी हों। बुढ़ापे में कमजोरी के बावजूद उन्हें कभी गवारा नहीं हुआ कि वो अपने बेटे के घर जाकर रहें। दरअसल उन्हें आदत थी घर को अपने राजपाट जैसे चलाने की। किसी और के घर में तो उनका राज चलता नहीं। यही सोचकर वह कभी हमारे मामा के घर जाकर नहीं रहीं। बावजूद इसके कि मामा उन्हें बार-बार बुलाते रहे। एक बार गयी थीं तो हफ्ते भर में लौट भी आयीं थी। मामा के घर जाकर न रहने की शायद एक वजह और भी थी। नानी को घर में हमेशा ‘फुल अटेंशन’ चाहिए होता था। अपने घर में तो नाना का पूरा ध्यान वह अपने पर केन्द्रित कराके रखती थीं।

हद तो ये थी कि वे नाना को न तो टी.वी. देखने देती थीं, न अखबार या किताब पढ़ने देती थीं। अपनी बेटियों से वह अक्सर शिकायत करती थीं कि तुम्हारे पिता तो टी.वी. में या किताबों में औरतों की तस्वीरें देखते रहते हैं। नाना को नफीस शौक था उर्दू शायरी का। वह नानी ने टोक-टोक कर बहुत पहले ही छुड़ा दिया था। इस तरह नाना पर उनका पूरा राज चलता था। नाना की क्या मजाल कि वह नानी की आज्ञा के बगैर घर के बाहर कदम भी रख लें। दरअसल नानी जब से बीमार थीं तब से उन्हें लगता था कि उनके इर्द-गिर्द किसी न किसी का होना जरूरी है।,

नानी का अपना एक सौंदर्य-बोध भी था। खुद को वे बहुत सुंदर मानती थीं और बीमारी के दिनों में भी खूब सजधज के रहती थीं। उठने से लाचार थीं इसलिए एक आईना उनके बगल में ही पड़ा रहता था। नानी का रंग गोरा था और नाक बहुत लंबी। उन्हें अपनी लंबी तोतापरी नाक का बहुत गुमान था। छोटी नाक वाले लोग उन्हें पसंद नहीं आते थे। खानदान में जितने बच्चे पैदा होते उन सबको जब नानी से मिलवाने लाया जाता तो नानी सबसे पहले नाक टटोल कर देखती थीं और नाक लंबी पाने पर बहुत खुश होती थीं।

नानी जो कुछ भी थीं पूरी शिद्दत से थीं। उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। हमेशा लड़ाई लड़ीं - उसमें जीतीं या हारीं, यह अलग बात है।

मौत से भी उनकी लंबी लड़ाई चली। बीच-बीच में कई बार मर कर जी उठीं नानी। यहाँ से वहाँ टेलीफोन खनखनाये जाते। सब लोग इकट्ठे हो जाते और नानी वापस जी जातीं। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। गहरी बेहोशी में जब नानी के मुँह में पानी डाला गया तो पानी भीतर गया नहीं। नब्ज लगभग गायब थी। डॉक्टर को सबेरे से आने का बोल रखा था, उन्हें दुबारा खबर की। लेकिन डॉक्टर का इंतजार नानी ने नहीं किया। वह चल बसीं।

नानी की शवयात्रा में ढेर सारे मखाने, छुहारे, सिक्के, बताशे उड़ाए गये। सब चीजें एकदम फर्स्ट क्लास थीं। चिता पर डालने के लिए खूब सारा घी भी था। हमारी नानी का राजरानी की राजसी शान के मुताबिक ही था सारा इंतजाम। नानी जिंदा होंतीं तो कितनी खुश होतीं ये सब देखकर। खासतौर पर इतना सारा घी देखकर।

२३ मार्च २०१५

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